पनिहारन

ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

शनिवार, मई 07, 2016

सवाल

अगर मान लिया जाए कि बड़े-बूढ़े,
जो कहते हैं सही कहते हैं,
तब मानना पड़ेगा,
कि बादल जमीन के बहुत नजदीक था,
बुढ़िया के कूबड़ से टकराता था,
बुढ़िया आजिज थी,
गुस्साकर एक दिन बढ़नी मारी थी,
तब से आसमान ऊपर ही है,
फिर कभी नीचे नहीं आया
यह घर में सबसे बड़ी बूढ़ी दादी की बात थी
तब ये भी मानना पड़ेगा
कि बरतन जूठे हो जाते हैं
गैर सवर्णों को खाना खिलाने से
इस कदर जूठे कि
चाहे जितना राख रगड़ो
आग में तपाओ
लेकिन साफ नहीं होते
कई थाली-गिलास
चौपालों की ताखों में धूल खाते थे
घर के बरतनों में कभी मिलाए नहीं जाते थे
यह घर में सबसे बड़ी बूढ़ी दादी के जज्बात थे
ये तो मानना ही मानना पड़ेगा
जब हवा एकदम ठप पड़ जाए
गर्मी और उमस बर्दाश्त से बाहर हो जाए
तब पीपर के पत्ते गिनने चाहिए
हवा बहने लगती है
जितनी तेज पत्ता गिनेंगे
उतनी तेज हवा बहेगी
बाबा ने कई बार अजमाकर दिखाया था
यह बहुत अजमाया हुआ वैज्ञानिक नुस्खा था
अगर सवाल न उठे होते
तो आसमान की धुंध कभी साबित न हुई होती
चौपालों की ताखों में बर्तन पड़े रहते
बयार न चलने पर बिजली का इंतजार नहीं
पीपर के पत्ते गिनने का काम हो रहा होता।
-ऋषि कुमार सिंह

मछली

धारा के साथ लुढ़कना,
और लुढ़ककर गोल हो जाना,
पत्थरों की खूबी है,
मछलियों की नहीं।
मछलियों को मंजूर नहीं,
चिकना और गोल हो जाना,
इसलिए वे चुनती हैं चढ़ाई,
धारा के विपरीत,
तब तक चढ़ती हैं,
जब तक सांस चलती है,
जिंदादिली उनकी चढ़ाई में नहीं,
उनके हौसलों में है,
जो मुठभेड़ करती है,
सबको बहा ले जाने वाली धारा से ,
सबको सागर की तलछट बना देने वाली धारा से,
इन मछलियों ने ही सिखाया है,
मुठभेड़ करना,
हर उस बात से, विचार से, व्यवहार से,
जो नकारता है अपने आगे सबका अस्तित्व,
जो खारिज करता है मानव मस्तिष्क की विविधता,
तय करना चाहता है सबके लिए एक जैसी दिशा।
-ऋषि कुमार सिंह

किसान

जब ये सारे किसान मर जाएंगे
और कुछ मरे हुए बच जाएंगे
तब आलीशान कब्रिस्तानों के बाद भी
बची रह जाएगी ढेर सारी जमीन
छोटे-छोटे टुकड़ों में नहीं
बड़े-बड़े आकारों में होगी जमीन
अमेरिकी फॉर्म हाउस की तरह
फिर कंपनियां करेंगी खेती
इजराइल जैसी वैज्ञानिक खेती
खेतों में दौड़ेगे रोबोट
रोबोट बोएंगे बीज
पौधे उगेंगे एक सीध
दानों की होगी एक नाप
और धीरे-धीरे जैसे कब्रिस्तान में
गलेंगी किसानों की हड्डियां
बढ़ने लगेगी धरती की उर्वरता
जब किसानों की हड्डियां
पूरी तरह गल जाएंगी
तब और लहलहाएगी विकास की खेती,
लोगों को याद आएगी पुरखों की बात,
वाहवाही करेंगे सब
देंगे उन्हें दाद
जिन्होंने बताया है कि
डीहवा पर होत है अच्छी खेती,
एकदम हरेर, करिया-करिया।
-ऋषि कुमार सिंह

सोमवार, सितंबर 07, 2015

उड़ीसा के पूर्व राज्यपाल, राज्य सभा सदस्य और इतिहासकार श्री विशम्भर नाथ पाण्डेय ने अपने अभिभाषण और लेखन में उन ऐतिहासिक तथ्यों और वृतांतों को उजागर किया है, जिनसे भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास को मनमाने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा गया है।



उन्होंने कहा-
अब मैं कुछ ऐसे उदाहरण पेश करता हूँ, जिनसे यह स्पष्ट हो जायेगा कि ऐतिहासिक तथ्यों को कैसे विकृत किया जाता है
जब मैं इलाहाबाद में 1928 ई. में टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में रिसर्च कर रहा था,तो ऐंग्लो-बंगाली कॉलेज के छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने हिस्ट्री एसोसिएशन का उद्घाटन करने के लिए मुझको आमंत्रित किया। ये लोग कॉलेज से सीधे मेरे पास आये थे। उनके हाथों में कोर्स की किताबें भी थीं। संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पड़ी। मैंने टीपू सुल्तान से सम्बन्धित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत आश्चर्य में डाल दिया, वह यह थाः
तीन हजार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली,क्योंकि टीपू उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था
इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डॉ.हरप्रसाद शास्त्री थे, जो कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे। मैंने तुरंत डॉ. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में उपरोक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा है। कई पत्र लिखने के बाद उनका जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना मैसूर गजेटियर(Mysore Gazetteer)से उद्धृत की है। मैसूर गजेटियर न तो इलाहाबाद में और न तो इम्पीरियल लाइब्रेरी, कलकत्ता में प्राप्त हो सका। तब मैंने मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर बृजेंद्र नाथ सील को लिखा कि डॉ.शास्त्री ने जो बात कही है,उसके बारे में जानकारी दें। उन्होंने मेरा पत्र प्रोफेसर श्री कन्टइया के पास भेज दिया जो उस समय मैसूर गजेटियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे।
प्रोफेसर कन्टइया ने मुझे लिखा कि तीन हजार ब्राह्मणों की आत्महत्या की घटना मैसूर गजेटियर में कहीं भी नहीं है और मैसूर के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरा यकीन है कि इस प्रकार की कोई घटना घटी ही नहीं है। उन्होंने मुझे सूचित किया कि टीपू सुल्तान के प्रधानमंत्री पुनैया नामक एक ब्राह्मण थे और उनके सेनापति भी एक ब्राह्मण कृष्णाराव थे। उन्होंने मुझको ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टीपू सुल्तान वार्षिक अनुदान दिया करते थे। उन्होंने टीपू सुल्तान की तीस पत्रों की फोटो कॉपियां भी भेजीं जो उन्होंने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरू शंकराचार्य को लिखे थे और जिनके साथ सुल्तान के अति घनिष्ठ मैत्री संबंध थे। मैसूर के राजाओं की परम्परा के अनुसार टीपू सुल्तान प्रतिदिन नाश्ता करने के पहले रंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे,जो श्रीरंगापटनम के किले में था। प्रोफेसर श्री कंटइया के विचार में डॉ.शास्त्री ने यह घटना कर्नल माइल्स की किताब हिस्ट्री ऑफ मैसूर (मैसूर का इतिहास) से ली होगी। इसके लेखक का दावा है कि उसने अपनी किताब टीपू सुल्तान का इतिहास एक प्राचीन फारसी पांडुलिपि से अनूदित किया है,जो महारानी विक्टोरिया की निजी लाइब्रेरी में थी। खोजबीन से मालूम हुआ है कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोई पाण्डुलिपि थी ही नहीं और कर्नल माइल्स की किताब की बहुत सी बातें बिल्कुल गलत एवं मनगढ़ंत हैं।
डॉ.शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान के पाठ्यक्रम में स्वीकृत थी। मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति पर आशुतोष चौधरी को पत्र लिखा और इस सिलसिले में अपने सारे पत्र व्यवहारों की नकलें भेजी और उनसे निवेदन किया कि इतिहास की इस पाठ्य-पुस्तक में टीपू सुल्तान से संबंधित जो गलत और भ्रामक वाक्य आए हैं,उनके विरूद्ध समुचित कार्रवाई की जाए। सर आशुतोष चौधरी का शीघ्र ही जवाब आया कि डॉ.शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है। परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 ई. में भी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाईस्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठ्यक्रम किताबों में उसी प्रकार मौजूद थी। इस सिलसिले में महात्मा गांधी की वह टिप्पणी भी पठनीय है जो उन्होंने अपने अखबार यंग इंडिया में 23 जनवरी 1930 के अंक में पृष्ठ 31 पर की थी। उन्होंने लिखा था कि-
मैसूर के फतह अली (टीपू सुल्तान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानो वह धर्मांधता का शिकार था। इन इतिहासकारों ने लिखा है कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर जुल्म ढाए और उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया,जबकि वास्तविकता इसके विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे संबंध थे।.......मैसूर राज्य(अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग (Archaeology Department) के पास ऐसे तीन पत्र हैं,जो टीपू सुल्तान ने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरू शंकराचार्य को 1793 ईसवी में लिखे थे। इनमें एक पत्र में टीपू सुल्तान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे निवेदन किया है कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलाई, कल्याण और खुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें। अंत में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे मैसूर लौट आएं, क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से वर्षा होती है, फसल अच्छी होती है और खुशहाली आती है।
यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णित अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है। यंग इंडिया में कहा गया है-
टीपू सुल्तान ने हिन्दू मंदिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरमण, श्रीनिवास और श्रीरंगनाथ मंदिरों को जमीनें एवं अन्य वस्तुओं के रूप में बहुमूल्य उपहार दिए। कुछ मंदिर उसके महलों के अहाते में थे यह उनके खुले जेहन, उदारता एवं सहिष्णुता का जीता जागता प्रमाण है।इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपू एक महान शहीद था। जो किसी भी दृष्टि से आजादी की राह का हकीकी शहीद माना जाएगा। उसे अपनी इबादत में हिन्दू मंदिरों की घंटियों की आवाज से कोई परेशानी महसूस नहीं होती थी। टीपू ने आजादी के लिए लड़ते हुए जान दे दी और दुश्मन के सामने हथियार डालने के प्रस्ताव को सिरे से ठुकरा दिया। जब टीपू की लाश उन अज्ञात फौजियों की लाशों में पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी-वह तलवार जो आजादी हासिल करने का जरिया थी। उसके ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने योग्य हैः शेर की एक दिन की जिंदगी लोमड़ी की सौ सालों की जिंदगी से बेहतर है। उसकी शान में कही गई एक कविता की वे पंक्तियां भी याद रखे जाने योग्य हैं,जिनमें कहा गया है कि खुदाया जंग के खून बरसाते बादलों के नीचे मर जाना,लज्जा और बदनामी की जिंदगी जीने से बेहतर है।
इसी प्रकार जब मैं इलाहाबाद नगरपालिका का चैयरमैन था (1948 ई. से 1953 ई.तक) तो मेरे सामने दाखिल-खारिज का एक मामला लाया गया। यह मामला सोमेश्वर नाथ महादेव मंदिर से संबंधित जायदाद के बारे में था। मंदिर के महंत की मृत्यु के बाद उस जायदाद के दो दावेदार खड़े हो गये थे। एक दावेदार ने कुछ दस्तावेज दाखिल किये जो उसके खानदान में बहुत दिनों से चले आ रहे थे। इन दस्तावेजों में शहंशाह औरंगजेब के फरमान भी थे। औरंगजेब ने इस मंदिर को जागीर और नगद अनुदान भी दिया था। मैंने सोचा कि ये फरमान जाली होंगे। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कैसे हो सकता है कि औरंगजेब जो मंदिरों को तोड़ने के लिए प्रसिद्ध है,वह एक मंदिर को यह कह कर जागीर दे सकता है कि यह जागीर पूजा और भोग के लिए दी जा रही है। आखिर औरंगजेब कैसे बुतपरस्ती के साथ अपने को शरीक कर सकता था। मुझे यकीन था कि ये दस्तावेज जाली हैं,परन्तु कोई निर्णय लेने से पहले मैंने डॉ.सर तेज बहादुर सप्रू से राय लेना उचित समझा। वे अरबी और फारसी के अच्छे जानकार थे। मैंने दस्तावेज उनके सामने पेश करके उनकी राय मालूम की तो उन्होंने दस्तावेजों का अध्ययन करने के बाद कहा कि औरंगजेब के ये फरमान असली और वास्तविक हैं। इसके बाद उन्होंने अपने मुंशी से बनारस के जंगमबाड़ी शिव मंदिर की फाइल लाने को कहा। यह मुकदमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में 15 साल से विचाराधीन था। जंगमबाड़ी मंदिर के महंत के पास भी औरंगजेब के कई फरमान थे,जिनमें मंदिर को जागीर दी गई थी।
इन दस्तावेजों ने औरंगजेब की एक नई तस्वीर मेरे सामने पेश की,उससे मैं आश्चर्य में पड़ गया। डॉक्टर सप्रू की सलाह पर मैंने भारत के विभिन्न प्रमुख मंदिरो के महंतों के पास पत्र भेजकर उनसे निवेदन किया कि यदि उनके पास औरंगजेब के कुछ फरमान हों जिनमें उन मंदिरों को जागीरें दी गई तो वे कृपा करके उनकी फोटो स्टेट कॉपियां मेरे पास भेज दें। अब मेरे सामने एक और आश्चर्य की बात आई। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर, चित्रकूट के बालाजी मंदिर, गौहाटी के उमानंद मंदिर, शत्रुन्जाई के जैन मंदिर और उत्तर भारत के फैले हुए अन्य प्रमुख मंदिरों एंव गुरूद्वारों से संबन्धित जागीरों के लिए औरंगजेब के फरमानों की नकलें मुझे प्राप्त हुईं। ये फरमान 1065 हिजरी से 1091 हिजरी अर्थात् 1659 से 1685 ई. के बीच जारी किए गए थे।
हालांकि हिन्दुओं और उनके मंदिरों के प्रति औरंगजेब के उदार रवैये की ये कुछ मिसालें हैं,फिर भी इनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि इतिहासकारों ने उसके संबन्ध में जो कुछ लिखा है,वह पक्षपात पर आधारित है और इससे उसकी तस्वीर का एक ही रूख सामने लाया गया है। भारत एक विशाल देश है,जिसमें हजारों मन्दिर चारों ओर फैले हुए हैं। यदि सही ढंग से खोजबीन की जाये तो मुझे विश्वास है कि और बहुत से ऐसे उदाहरण मिल जाऐंगे जिनसे औरंगजेब का गैर-मुस्लिमों के प्रति उदार व्यवहार पता चलेगा।
औरंगजेब के फरमानों की जांच पड़ताल के सिलसिले में मेरा संपर्क श्री ज्ञानचंद्र और पटना म्यूजियम के भूतपूर्व क्यूरेटर डॉ.पी.एल.गुप्ता से हुआ। ये महानुभाव भी औरंगजेब के विषय में ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण रिसर्च कर रहे थे। मुझे खुशी हुई कि अन्य अनुसंधानकर्ता भी सच्चाई को तलाशने में व्यस्त हैं और काफी बदनाम औरंगजेब की तस्वीर साफ करने में अपना योगदान दे रहे हैं। औरंगजेब,जिसे पक्षपाती इतिहासकारों ने भारत में मुस्लिम हुकूमत का प्रतीक मान रखा है। उसके बारे में क्या विचार रखते हैं इसके विषय में यहां तक कि शिबली जैसे इतिहास गवेषी कवि को कहना पड़ाः
तुम्हें ले-दे के सारी दास्तां में याद है इतना।
कि औरंगजेब हिन्दू-कुश था,जालिम था,सितमगर था।।
औरंगजेब पर हिन्दू-दुश्मनी के आरोप के सम्बन्ध में जिस फरमान को बहुत उछाला गया है, वह फरमाने बनारस के नाम से प्रसिद्ध है। यह फरमान बनारस के मुहल्ला गौरी के एक ब्राह्मण परिवार से संबंधित है। 1905 ई. में इसे गोपी उपाध्याय के नवासे मंगल पाण्डेय ने सिटी मजिस्ट्रेट के समझ पेश किया था। इसे पहली बार एशियाटिक-सोसाइटी बंगाल के जर्नल(पत्रिका) ने 1911 ई. में प्रकाशित किया था। फलस्वरूप रिसर्च करने वालों का ध्यान इधर गया। तब से इतिहासकार प्रायः इसका हवाला देते आ रहे हैं और वे इसके आधार पर औरंगजेब पर आरोप लगाते हैं कि उसने हिन्दू मन्दिरों के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था,जबकि इस फरमान का वास्तविक महत्व उसकी निगाहों से ओझल रह जाता है।
यह लिखित फरमान औरंगजेब ने 15 जुमादुल-अव्वल 1065 हि.(10 मार्च 1659 ई.) को बनारस के स्थानीय अधिकारियों के नाम भेजा था जो एक ब्राह्मण की शिकायत के सिलसिले में जारी किया गया था। वह ब्राह्मण एक मंदिर का महंत था और कुछ लोग उसे परेशान कर रहे थे। फरमान में कहा गया हैः
अबुल हसन को हमारी शाही उदारता का कायल रहते हुए यह जानना चाहिए हमारी स्वाभाविक दयालुता और प्राकृतिक न्याय के अनुसार हमारा सारा अनथक संघर्ष और न्यायप्रिय इरादों का उद्देश्य जन कल्याण को बढ़ावा देना है और प्रत्येक उच्च एवं निम्न वर्गों के हालात को बेहतर बनाना है। अपने पवित्र कानून के अनुसार हमने फैसला किया है कि प्राचीन मंदिरों को तबाह और बर्बाद नहीं किया जाय,अलबत्ता नए मंदिर न बनाए जाएँ।
हमारे इस न्याय पर आधारित काल में हमारे प्रतिष्ठित एवं पवित्र दरबार में यह सूचना पहुंची है कि कुछ लोग बनारस शहर और उसके आसपास के हिन्दू नागरिकों और मंदिरों के ब्राह्ममणों-पुरोहितों को परेशान कर रहे हैं तथा उनके मामलों में दखल दे रहे हैं,जबकि यह प्राचीन मंदिर उन्हीं की देख-रेख में हैं। इसके अतिरिक्त वे चाहते हैं कि इन ब्राह्मणों को इनके पुराने पदों से हटा दें। यह दखलंदाजी इस समुदाय के लिए परेशानी का कारण है।
इसलिए हमारा यह फरमान है कि हमारा शाही हुक्म पहुंचते ही तुम हिदायत जारी कर दो कि कोई व्यक्ति गैर कानूनी रूप से दखलंदाजी न करे और न उन स्थानों के ब्राह्मणों एवं अन्य हिन्दू नागरिकों को परेशान करे। ताकि पहले की तरह उनका कब्जा बरकरार रहे और पूरे मनोयोग से वे हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के लिए प्रार्थना करते रहें। इस हुक्म को तुरंत लागू किया जाये।
इस फरमान से बिल्कुल स्पष्ट है कि औरंगजेब ने नए मन्दिरों के निर्माण के विरूद्ध कोई नया हुक्म नहीं जारी किया,बल्कि उसने केवल पहले से चली आ रही परम्परा का हवाला दिया और उस परम्परा की पाबंदी पर जोर दिया। पहले से मौजूद मंदिरों को ध्वस्त करने का उसने कठोरता से विरोध किया। इस फरमान से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह हिन्दू प्रजा को सुख-शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर देने का इच्छुक था।
यह अपने जैसा केवल एक ही फरमान नहीं है। बनारस में ही एक और फरमान मिलता है,जिससे स्पष्ट होता है कि औरंगजेब वास्तव में चाहता था कि हिन्दू सुख-शान्ति के साथ जीवन व्यतीत कर सकें। यह फरमान इस प्रकार हैः
रामनगर(बनारस) के महाराजाधिकार राजा रामसिंह ने हमारे दरबार में अर्जी पेश की है कि उनके पिता ने गंगा नदी के किनारे अपने धार्मिक गुरू भगवत गोसाईं के निवास के लिए एक मकान बनवाया था। अब कुछ लोग गोसाईं को परेशान कर रहे हैं। अतः यह शाही फरमान जारी किया जाता है कि इस फरमान के पहुंचते ही सभी वर्तमान और आने वाले अधिकारी इस बात का पूरा ख्याल रखें कि कोई भी व्यक्ति गोसाईं को परेशान एवं डरा-धमका न सके, और न उनके मामले में हस्तक्षेप करें, ताकि वे पूरे मनोयोग के साथ हमारी ईश प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए प्रार्थना करते रहें। इस फरमान पर तुरंत अमल किया जाए।(तारीख-17रबी उस्मानी 1091 हिजरी)
जंगमबाड़ी मठ के महंत के पास मौजूद कुछ फरमानों से पता चलता है कि औरंगजेब कभी यह सहन नहीं करता था कि उसकी प्रजा में अधिकार किसी प्रकार से छीनें जाएँ,चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान। वह अपराधियों के साथ सख्ती पेश आता था। इन फरमानों में एक जंगम लोगों(शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) की ओर से एक मुसलमान नागरिक नजीर बेग के विरूद्ध शिकायत के सिलसिले में है। यह मामला औरंगजेब के दरबार में लाया गया,जिस पर शाही हुक्म दिया गया कि बनारस सूबा इलाहाबाद के अफसरों को सूचित किया जाता है कि परगना बनारस के नागरिकों अर्जुनमल और जंगमियों ने की शिकायत की है कि बनारस के एक नागरिक नजीर बेग के कस्बा बनारस में उनकी पांच हवेलियों पर कब्जा कर लिया है। उन्हें हुक्म दिया जाता है कि यदि शिकायत सच्ची पाई जाए और जायदाद की मिल्कियत का अधिकार प्रमाणित हो जाये तो नजीर बेग को उन हवेलियों में दाखिल न होने दिया जाए,ताकि जंगमियों को भविष्य में अपनी शिकायत दूर करवाने के लिए हमारे दरबार में न आना पड़े। इस फरमान पर 11 शाबान, 13जुलूस (1672ई.) की तारीख दर्ज है। इसी मठ के पास मौजूद एक दूसरे फरमान में जिस पर पहली रबीउल-अव्वल 1078 हिजरी की तारीख दर्ज है,यह उल्लेख है कि जमीन का कब्जा जंगमियों को दिया गया। फरमान में है-
परगना हवेली बनारस के सभी वर्तमान और भावी जागीरदारों एवं करोड़ियों को सूचित किया जाता है कि शहंशाह के हुक्म से 178 बीघा जमीन जंगमियों को दी गई। पुराने अफसरों ने इसकी पुष्टि की थी और उस समय के परगना के मालिक की मुहर के साथ यह सबूत पेश किया गया कि जमीन पर उन्हीं का हक है। अतः शहंशाह की जान के सदके के रूप में यह जमीन उन्हें दे दी गई। खरीफ की फसल के प्रारम्भ में जमीन पर कब्जा बहाल किया जाय और फिर किसी प्रकार की दखलंदाजी न होने दी जाए,ताकि जंगमी लोग उसकी आमदनी से अपनी देख-रेख कर सकें।
इस फरमान से केवल यह पता नहीं चलता है कि औरंगजेब स्वभाव से न्यायप्रिय था,बल्कि यह भी साफ नजर आता है कि वह इस तरह की जायदादों के बंटवारे में हिन्दू धार्मिक सेवकों के साथ कोई भेदभाव नहीं बरतता था। जंगमियों को 178 बीघा जमीन संभतः स्वयं औरंगजेब ने प्रदान की थी,क्योंकि एक दूसरे फरमान(तिथि 5 रमजान,1071 हि.)में इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि यह जमीन मालगुजारी मुक्त है।
औरंगजेब ने एक दूसरे फरमान(1098 हि.) के द्वारा एक दूसरी हिन्दू धार्मिक संस्था को भी जागीर प्रदान की। फरमान में कहा गया हैः
बनारस में गंगा नदी के किनारे बेनी-माधो घाट पर दो प्लाट खाली हैं एक मर्कजी मस्जिद के किनारे रामजीवन गोसाईं के घर के सामने और दूसरा उससे पहले। ये प्लाट बैतुल-माल की मिल्कियत है। हमने यह प्लाट रामजीवन गोसाईं और उनके लड़कों को इनाम के रूप में प्रदान किया,ताकि उक्त प्लाटों पर ब्राह्मणों और फकीरों के लिए रिहायशी मकान बनाने के बाद वे खुदा की इबादत और हमारी ईश प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए दुआ और प्रार्थना करने में लग जाएं। हमारे बेटों, जागीरों, अमीरों, उच्च पदाधिकारियों, दरोगा और वर्तमान एवं भावी कोतवालों के लिए अनिवार्य है कि वे इस आदेश के पालन का ध्यान रखें और उक्त प्लाट, उपर्युक्त व्यक्ति और उसके वारिसों के कब्जे ही में रहने दें और उससे न कोई मालगुजारी या टैक्स लिया जाए और न उनसे हर साल नई सनद मांगी जाए।
लगता है कि औरंगजेब को अपनी प्रजा की धार्मिक भावनाओं के सम्मान का बहुत अधिक ध्यान था। हमारे पास औरंगजेब का एक फरमान (2 सफर,9 जुलूस) है जो असम के शहर गोहाटी के उमानंद मंदिर के पुजारी सुदामन ब्राह्मण के नाम है। असम के हिन्दू राजाओं की ओर से इस मंदिर और उसके पुजारी को जमीन का टुकड़ा और कुछ जंगलों की आमदनी जागीर के रूप में दी गई थी,ताकि भोग का खर्च पूरा किया जा सके और पुजारी की आजीविका चल सके। जब यह प्रांत औरंगजेब के शासन-क्षेत्र में आया, तो उसने तुरंत ही एक फरमान के द्वारा इस जागीर को यथावत रखने का आदेश दिया।
हिन्दुओं और उनके धर्म के साथ औरंगजेब की सहिष्णुता और उदारता का एक और सबूत उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर के पुजारियों से मिलता है। यह शिवजी के प्रमुख मंदिरों में से एक है, जहां दिन-रात दीप प्रज्वलित रहता है। इसके लिए काफी दिनों से प्रतिदिन चार सेर घी वहां की सरकार की ओर से उपलब्ध कराया जाता था और पुजारी कहते हैं कि यह सिलसिला मुगल काल में भी जारी रहा। औरंगजेब ने भी इस परम्परा का सम्मान किया। इस सिलसिले में पुजारियों के पास दुर्भाग्य से कोई फरमान तो नहीं उपलब्ध है,परन्तु एक आदेश की नकल जरूर है जो औरंगजेब के काल में शहजादा मुराद बख्श की तरफ से जारी किया गया था।(5 शव्वाल 1061 हि.) को यह आदेश शहंशाह की ओर से शहजादा ने मंदिर के पुजारी देव नारायण के एक आवेदन पर जारी किया था। वास्तविकता की पुष्टि के बाद इस आदेश में कहा गया है कि मंदिर में दीप के लिए चबूतरा कोतवाल के तहसीलदार चार सेर(अकबरी) घी प्रतिदिन के हिसाब से उपलब्ध कराएं। इसकी नकल मूल आदेश के जारी होने के 93 साल बाद (1153 हिजरी) में मुहम्मद सअदुल्लाह ने पुनः जारी की।
साधारणतया इतिहासकार इसका बहुत उल्लेख करते हैं कि अहमदाबाद में नागर सेठ के बनवाए हुए चिंतामणि मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया,परंतु इस वास्तविकता पर पर्दा डाल देते हैं कि उसी औरंगजेब ने उसी नागर सेठ के बनवाए हुए शत्रुन्जया और आबू मंदिरों को काफी बड़ी जागीरें प्रदान कीं।
निःसंदेह इतिहास से यह प्रमाणित होता है कि औरंगजेब ने बनारस के विश्वनाथ मंदिर और गोलकुंडा की जामा-मस्जिद को ढा देने का आदेश दिया था,परन्तु इसका कारण कुछ और ही था। विश्वनाथ मंदिर के सिलसिले में घटनाक्रम यह बयान किया जाता है कि जब औरंगजेब बंगाल जाते हुए बनारस के पास से गुजर रहा था,तो उसके काफिले में शामिल हिन्दू राजाओं ने बादशाह से निवेदन किया कि वहां काफिला एक दिन ठहर जाए तो उनकी रानियां बनारस जाकर गंगा नदी में स्नान कर लेंगी और विश्वनाथ जी के मंदिर में श्रद्धा सुमन भी अर्पित कर आयेंगी। औरंगजेब ने तुरंत ही यह निवेदन स्वीकार कर लिया और काफिले के पड़ाव से बनारस तक पांच मील के रास्ते पर फौजी पहरा बैठा दिया। रानियां पालकियों में सवार होकर गईं और स्नान एवं पूजा के बाद वापस आ गईं,परन्तु एक रानी (कच्छ की महारानी) वापस नहीं आई, तो उनकी बड़ी तलाश हुई, लेकिन पता नहीं चल सका। जब औरंगजेब को मालूम हुआ तो उसे बहुत गुस्सा आया और उसने अपने फौज के बड़े-बड़े अफसरों को तलाश के लिए भेजा। आखिर में उन अफसरों ने देखा कि गणेश की मूर्ति जो दीवार से जड़ी हुई है,हिलती है। उन्होंने मूर्ति हटवाकर देखा तो तहखाने की सीढ़ी मिली और गुमशुदा रानी उसी में पड़ी रो रही थी। उसकी इज्जत भी लूटी गई थी और उसके आभूषण भी छीन लिए गए थे। यह तहखाना विश्वनाथ जी की मूर्ति के ठीक नीचे था। राजाओं ने इस हरकत पर अपनी नाराजगी जताई और विरोध प्रकट किया। चूंकि यह बहुत घिनौना अपराध था,इसलिए उन्होंने कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने की मांग की। उनकी मांग पर औरंगजेब ने आदेश दिया कि चूंकि पवित्र स्थल को अपवित्र किया जा चुका है। अतः विश्वनाथ जी की मूर्ति को कहीं और ले जाकर स्थापित किया जाये और मन्दिर को गिराकर जमीन के बराबर कर दिया जाये और महंत को गिरफ्तार कर लिया जाए।
डॉक्टर पट्टाभि सीता रमैया ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तकद फेदर्स एंड द स्टोन्स में इस घटना को दस्तावेजों के आधार पर प्रमाणित किया है। पटना म्यूजियम के पूर्व क्यूरेटर डॉ.पी.एल.गुप्ता ने भी इस घटना की पुष्टि की है।
गोलकुंडा के जामा मस्जिद की घटना यह है कि वहां के राजा जो तानाशाह के नाम से प्रसिद्ध थे,रियासत की मालगुजारी वसूल करने के बाद दिल्ली का हिस्सा नहीं भेजते थे। कुछ ही वर्षों में यह रकम करोड़ों की हो गई। तानाशाह ने यह खजाना एक जगह जमीन में गाड़कर उस पर मस्जिद बनवा दी। जब औरंगजेब को पता चला तो उसने आदेश दिया कि यह मस्जिद गिरा दी जाए। अतः गड़ा हुआ खजाना निकाल कर उसे जनकल्याण के कामों में खर्च किया गया।
ये दोनों मिसालें यह साबित करने के लिए काफी हैं कि औरंगजेब न्याय के मामले में मंदिर और मस्जिद में कोई फर्क नहीं समझता था।
दुर्भाग्य से मध्यकाल और आधुनिक काल के भारतीय इतिहास की घटनाओं एवं चरित्रों को इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर मनगढ़ंत अंदाज में पेश किया जाता रहा है कि झूठ ही ईश्वरीय आदेश की सच्चाई की तरह स्वीकार किया जाने लगा, और उन लोगों की दोषी ठहराया जाने लगा जो तथ्य और मनगढ़ंत बातों में अंतर करते हैं। आज भी साम्प्रदायिक एवं स्वार्थी तत्व इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और उसे गलत रंग देने में लगे हुए हैं।
प्रो.बी.एन.पाण्डेय
(भूतपूर्व राज्यपाल एवं इतिहासकार)

शनिवार, जुलाई 12, 2014

डांस ऑफ डेमोक्रेसी

शीर्षक अंग्रेजी अखबार से उधार है। चेतावनी यह कि मेरिटोरियस व आस्थावादी इसे न पढ़ें, समय की बचत होगी।

डांस ऑफ डेमोक्रेसी यानि लोकतंत्र का नृत्य। लोकतंत्र के नृत्य को देखने से पहले लोकतंत्र और इसके बदलते तेवर को जान लेना मुनासिब होगा, ताकि नृत्य शैली का अंदाजा हो सके। डांस ऑफ डेमोक्रेसी के मूल में प्रचार वाला लोकतंत्र है, जिसे वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया विज्ञापित लोकतंत्र कहते हैं। वास्तव में जो लोकतंत्र हमें वोट देने के अधिकार या कर्तव्य के रूप में समझाया जाता है, उसका बड़ा हिस्सा लोकतंत्र के विज्ञापन का है। लोकतंत्र केवल प्रक्रिया भर नहीं है, बल्कि एक भावना है, एक विचार है और एक समझ है। हालांकि प्रचार वाले लोकतंत्र से इससे जुड़ी कई मूल शर्तें गायब होती हैं। वही शर्तें जो लोकतंत्र को भीड़तंत्र या स्वेच्छचारी शासनतंत्र या बहुमत की स्वेच्छाचारिता या शासन की सबसे खराब व्यवस्था बनने से रोकती हैं। इसे मोटे अर्थों में आत्मनियंत्रण और मतांतरों के साथ सामंजस्य की उदारता कह सकते हैं। इस बार के आम चुनाव में विज्ञापित लोकतंत्र काफी कामयाब रहा है। कारण कि राजनीतिक मतांतर की राजनीतिक अलगाव की स्थिति ज्यादा मुखर हुई हैं और सामान्य तर्क-वितर्क में आक्रामकता बढ़ी है। गौर करें तो इस आक्रामक शैली का इस्तेमाल बाजार अपने उत्पादों के विज्ञापन में करता रहा है।
खैर, कुछ हिन्दी वरिष्ठों का कहना है कि हिन्दी में गंभीर बातें आने पर पढ़ने वाले के दिमाग पर चोट पहुंचती है, इसलिए हिन्दी में गंभीर नहीं लालित्यपूर्ण बातें करनी चाहिए। तो बढ़ते हैं डांस ऑफ डेमोक्रेसी की तरफ।
डांस ऑफ डमोक्रेसी के लिए घुंघरू और नाचने वाले की जरूरत है। डेमोक्रेसी में सरकार सक्रिय तत्व है और उसके व्यवहार को ही डेमोक्रेसी का व्यवहार माना जाता है। सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत से उसके मुखिया को नृतक की संज्ञा दे सकते हैं। असल डेमोक्रेसी में जनता मास्टर होती होगी, लेकिन डांस ऑफ डेमोक्रेसी में जनता को घुंघरू की भूमिका में है। हम सब घुंघरू ही तो हैं, बजना है, बस बजते जाना है (शीतल पेय के विज्ञापन की पंचलाइन-हम सब बोतल ही तो हैं, बस ढक्कन ही तो हटाना है)। सत्ता परिवर्तन के लिए चुनावी खर्च देने वाले कार्पोरेट घरानों डांस ऑफ डेमोक्रेसी का लक्षित समूह है। डांस ऑफ डेमोक्रेसी की एक स्पष्ट शर्त है कि मंच पर जैसे कोई नृतक थकने लगता है, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। उदाहरण के लिए मनमोहन को देखें । उन्होंने 1991 में डांस ऑफ डेमोक्रेसी का घराना तैयार किया। कई लोग आए और उनके ही रियाज को आगे बढ़ाते गए। जब खुद मुख्य कलाकार बने तो घुंघरुओं (हम जनता को) को राहत मिलने की उम्मीद देते हुए कड़े फैसले करते रहे, लेकिन जब कमजोर पड़ने लगे तो बिगड़ी अर्थव्यवस्था और नीतिगत लकवा जैसे आरोपों के साथ मंच से उतार दिए गए। तुलनात्मक रूप से उत्तराधिकारी जोशीला और काफी आक्रामक है तो घुंघरुओं से अच्छे दिनों का वादा भी है।
डांस ऑफ डेमोक्रेसी में घुंघरू व मनोरंजनकर्ता पुराने हैं, नृतक बदल गया है। विश्लेषकों का कहना है कि मनमोहन और मोदी सरकार के वित्त मंत्रियों के बजट प्रस्तावों में कोई नीतिगत अंतर नहीं है। घुंघरू रूपी जनता के लिए सोशल सिक्योरिटी आवंटन में कटौती है तो वित्तीय घाटा कम करने की घोषणा से सब्सिडी जैसी राहत हटने का जोखिम बढ़ा है। साथ ही, बढ़ा हुआ रेल किराया (ध्यान रहे कि पूर्ववर्ती सरकार इस फैसले को लागू नहीं कर सकी थी), पेट्रोल व गैर-सब्सिडी वाले सिलिंडर की कीमत में बढ़ोतरी असरदार हो चुकी है। इसके मुकाबले कार्पोरेट को रक्षा, बीमा जैसे क्षेत्रों में एफडीआई, निवेश के साथ ऊर्जा क्षेत्र में टैक्स हॉलीडे जैसी सौगातें मिली है।
डांस ऑफ डेमोक्रेसी के इस रूपक से अच्छे दिनों की उम्मीद करने वाले निराश न हों। अच्छे डांस के लिए घुंघरू जरूरी हैं, इसलिए उचित साज-संवार मिलती रहेगी, बदले में बजते रहना होगा घुंघरू की तरह, कभी इस पैर में-कभी उस पैर में। टैक्स छूट बढ़ी है, बचत कीजिए, बाकी प्याज खाने और गाड़ी चलाने की सलाह किसी डॉक्टर ने नहीं दी है ? और रही अच्छे दिनों की बात तो किसने कहा था कि पहले ही महीने आ जाएंगे ? वैसे एफएम पर सुनी एक बात और सुनते जाइए...एक ने कहा- सोचता हूं कि बाइक बेंचकर पेट्रोल ले लूं। दूसरे ने पूछा- भाई! डालोगे कहां ?

मंगलवार, अप्रैल 22, 2014

विकासपुरुष या लकड़सुंघवा

लकड़सुंघवा उठा ले जाएगा- बचपन में घर से बाहर जाने से मना करते हुए यह धमकी मिलती थी। कहां और क्यों उठा ले जाएगा, इस सवाल पर जवाब मिलता कि जब कहीं पर पुल बनता है, तो उसकी नींव में कम से कम सात बच्चों की बलि दी जाती है। बलि के लिए बच्चों को लाने की जिम्मेदारी लकड़सुंघवा को दी गई है। वे गांव-गांव घूम रहे हैं और बाहर मिलने वाले बच्चों को उठा ले जाते हैं और जब कहीं पुल बनता है, तो उसमें बलि देते हैं।

अब से याद करूं तो यह 1990 के आसपास का समय था। जाहिर है यह कहानी झूठी और बच्चों को डराने व गर्मी में बाहर जाकर खेलने से रोकने के लिए रची गई होगी, लेकिन आज के हालात में इस कहानी को झूठा कहना मुनासिब नहीं होगा। गरीबी, भुखमरी, सामाजिक न्याय, कुशल प्रशासन और अधिकार संपन्नता जैसे मुद्दों को गायब कर विकास की जो प्रक्रिया अमल में लाई जा रही है, उसमें लकड़सुंघवा और पुल बनाने में बच्चों की बलि दिए जाने की कहानी छिपी हुई है।

भारत में विकास (पुल बनाने) में कमजोरों (बच्चों) का बलिदान लिया जा रहा है। यह काम विकास पुरुषों (लकड़सुंघवों) के नेतृत्व में चल रहा है। इसमें काफी तेजी है, यही वजह है कि देश में लकड़सुंघवों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वे गांव-गांव और शहर-शहर घूम रहे हैं और पुल (विकास) की नींव में बलि देने के लिए बच्चों (कमजोरों) को जुटा रहे हैं।
यकीन न हो तो सोचिए कि क्यों दंगों में मारे दिए गए लोगों (लकड़सुंघवों द्वारा बलि दिए गए बच्चों) के सवाल को भुलाकर विकास की घटनाओं (पुल व उसकी मजबूती) की बात सामने रखी जा रही है। लोग किस नैतिक आधार पर कह रहे हैं कि एक दंगा (कुछ बच्चों की बलि) हो गया, उसे भूल जाओ क्योंकि उसके बाद तो कोई दंगा नहीं हुआ। यानि लोग यह कह रहे हैं कि लकड़सुंघवे ने जिस गांव को निशाना बना कर पुल में कुछ बच्चों की बलि दे दी, वह लकड़सुघवा दोबारा उस गांव से दूसरा बच्चा लेने नहीं आया है, पहले के बच्चों के गायब होने के बाद दूसरे बच्चे गायब भी नहीं हुए हैं। और हां, गांव के बच्चों की बलि के बाद जो पुल बना है (विकास हुआ है), वह भी तो बहुत मजबूत (अच्छी सुविधाएं) है, उससे बलि दिए गए बच्चों के गांव वाले भी अक्सर गुजरते हैं सर्र से।
कमजोरों व वंचितों (बच्चों) से बलिदान की मांग करने वाला यह विकास (पुल) एक बड़ी परियोजना है। इसके कई चेहरे हैं, जिनमें आपस में इस परियोजना को आगे ले जाने की होड़ है। इसमें वही विकास पुरूष (लकड़सुंघवा) विकास (पुल) को लेकर अपने दावे को मजबूती से रख पा रहा है, जिसकी सरपरस्ती में ज्यादा से ज्यादा कमजोरों (बच्चों) को उजाड़ा (बलि) गया है। यही वजह है कि आम चुनाव में आदिवासियों (कमजोर बच्चों) के जल-जंगल-जमीन से बेदखल करने (बलि देने) जैसे सवालों कोई जगह नहीं मिल रही है।
तमाम विकासपुरुष (लकड़सुंघवे) टीवी चैनल्स पर अपने-अपने चहेते विकास का खाका (पुल का नक्शा) खींच रहे हैं, लेकिन न तो कोई पूछता है और न ही वे बताते कि विकास की मौजूदा प्रक्रिया (पुल निर्माण) में कमजोरों को ताकत देने (बच्चों की बलि रोकने) की नीति क्या होगी?

गुरुवार, दिसंबर 19, 2013

मेरे लिए अदम

अदम गोंडवी को याद करने का पहलू थोड़ा भावनात्मक है। काफी हद तक अपराधबोध का मसला भी। अदम से परिचय था, उनकी कविता ब्लॉग की टैग लाइन बना रखी थी। अदम का जिक्र चाहे मैं करूं या कोई और मैं यह बताना नहीं भूलता था कि मेरे जिले (बहराइच) के पड़ोसी जिले गोंडा से हैं। मिलने का मन बनाया, फोन नंबर भी मिल गया, बस मुलाकात करने के लिए जाने की योजना नहीं बन सकी। इस दौरान स्थानीय अखबारों में उनके बीमार होने की खबर आई। फोन मिलाया और कहा कि अदम जी से बात करनी है। सामने से बिना किसी औपचारिकता के अपने अदम होने का परिचय आया। अपने स्वस्थ होने की जानकारी दी। बताया कि अब गांव आ गए हैं। मुलाकात करने के बारे में पूछा तो छूट मिली कि कभी भी आ जाओ। दोबारा बीमार होने की खबर सुनी लेकिन लखनऊ जाने की स्थिति नहीं बन पाई। बड़ी आंटी के असमय निधन ने कंपा दिया था कि खबर आई कि अदम नहीं रहे। देखते-ही-देखते अदम से मुलाकात की योजना को टालने का अफसोस अपराधबोध में बदल गया। अदम से मिलने जाने की योजना साले साहब भी शामिल थे, मेरी लापरवाही से उन्हें भी निराशा हुई।


जहां तक अदम को पढ़ा या जाना, पाया कि अदम ने कविता को विचारों की शक्ल देकर चेतना को समृद्ध करने का औजार बनाया था। इसलिए वे लिखते हैं-
याद रखिए यूं नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आंच पर एहसास का। 

और अदम यह जानते थे कि जिस जातीय पृष्ठभूमि से आते हैं, वह धीमीं आंच पर एहसास को पकाने में मददगार नहीं होगी, इसलिए उन्होंने रामनाथ सिंह की जगह अदम गोंड़वी होना जरूरी स्वीकार किया और हो गए। जनता की पीड़ा से सरोकार जोड़ा तो पाया कि पीपल की छांवों में शीतलता नहीं, बल्कि शोलों जैसी आंच है। जिन्दगी के ताप को महसूस करने के लिए अपने को समाज के धरातल तक उतार ले गए । वे आजादी के बाद बदस्तूर जारी स्याह पक्ष से परेशान हुए और उसे उजागर करने के लिए लोगों को चमारों की गली तक खींच लाए हैं और उन लोगों को हकीकत से दो-चार कराया, जिनका दावा था कि “का लोटा लइके गोहूं टोटियाई रामराज्य।” लोकरंजन हो जहां शम्बूक वध की आंड़ में, कहते हुए रामराज्य के खोखलेपन को उजागर किया। 

वे अपने लेखन में शोषण और मक्कारी की केवल रिपोर्टिंग ही नहीं करते हैं, बल्कि सत्ता को चेतावनी भी देते हैं। कहते हैं- बम उगाएंगे अदम दहकान गंदुम के एवज, आप पहुंचा दें हुकूमत तक हमारा ये पयाम है।

अदम को जानने के क्रम में उनके मित्र टीकमदत्त जी से मेरी मुलाकात कोई लगभग साल भर पहले हुई । उन्होंने बताया कि अदम शुरूआती दिनों में मंच पर जाने में संकोच करते थे। वास्तव में, वे (अदम) मंचीय कवि नहीं थे, बल्कि जनांदोलनों के कवि थे। इसीलिए वे (अदम) कहते हैं-
जनता को हक है हाथ में हथियार उठाने का
जब भुखमरी की धूप में जलते किसान हों
मुंह में जुबान रखते हुए बेजुबान हों
नफरत के ॠतु में दंगों के शोले जवान हों
जम्हूरियत के तन पर जिना के निशां हो
जनता को हक है हाथ में हथियार उठाने का
जब खुदसरी की राह पर चलते हों रहनुमां
कुर्सी के लिए गिरते-संभहलते हों रहनुमां
गिरगिट की तरह रंग बदलते हों रहनुमां
टुकडों पे जमाखोर के पलते हों रहनुमां
जनता को हक है हाथ में हथियार उठाने का
जब खुद को कोई मुल्क की तकदीर समझ ले
हर शय को अपने ख्वाब की ताबीर समझ ले
अपना बयान वेद की तहरीर समझ ले
जन-गण को खानदान की जागीर समझ ले
जनता को हक है हाथ में हथियार उठाने का

अदम से सन् 74 के आसपास अपनी पहली मुलाकात को टीकमदत्त जी याद कर कहते हैं कि अदम कविता सुनाने में संकोच कर रहे थे, बड़ी मनुहार करने के बाद एक कविता सुनाई-
शोलों जैसी आंच आ रही है पीपल की छांव में,
सिवा भूख और बेकारी के क्या रखा है गांव में।
खिन्नमना यक्षणी यहीं है कविवर कालीदास की,
बंधुवा हो गया आज कनैहिया प्रजातंत्र की छांव में। 

अदम का जीवन आर्थिक संकट में बीता। मौत के वक्त कर्जदारी थी, लेकिन अदम की इन तमाम मुश्किलों को जनता की समस्याओं से अलग करके नहीं समझा जा सकता है और न ही समझा जाना चाहिए। वे आम जनमानस की मुसीबतों को जी रहे थे और उन्हीं के बीच रहकर उनकी बेजुबान हकीकत को शब्द दे रहे थे। वास्तव में, अदम अपने या अपने परिवार के लिए किसी विशेषाधिकार (चर्चित कवि होने के नाते) या विशेष आर्थिक सुरक्षा के लिए चिंतित होते तो शायद यह न लिखते- 
मेरी खुदूदारी ने अपना सिर झुकाया दो जगह, 
वो कोई मजलूम हो या साहिबे-किरदार हो।
या ये कैसे लिखते-

आप कभी आयें गांव की चौपालों में
मैं रहूं या न रहूं भूख मैजबां होगी।

शोषण, अन्याय, गैर-बराबरी के विरुद्ध विगुल फूंकने वाले अदम आमजुबान में आमजन के कवि के रूप में हमारी चेतना को ताकत देते रहेंगे।

मंगलवार, जुलाई 02, 2013

बापू के नाम पर संगीतमय झूठ

रेडियो पर समाचार प्रसारण शुरू होने में कुछ वक्त शेष था। उस खाली वक्त को पाटने के लिए सिलसिलेवार जो कुछ प्रसारित हुआ, वह एक गंभीर प्रहसन लगा। अग्रिम पंक्तियां उसी का ब्यौरा हैं-
                                                                                                                                       
समाचार कुछ ही देर में...कुछेक सेकेंड का सन्नाटा, फिर आवाज आई कि रामकृष्ण परमहंस के अनुसार...पत्थर और मिट्टी के ढेले पर पानी के पड़ने वाले असर की तुलना, कुल मिलाकर विश्वासी बनने का संदेश था। कुछ देर के लिए ऐसे लगा कि जैसे सारे महापुरुषों ने जो कुछ भी चिंतन-मनन किया है, वह सब कुछ इस अविश्वासी दौर में हाशिए की जगह या दो रेडियो कार्यक्रमों के बीच के खाली बच रहे वक्त को भरने का साधन भर है। खैर,  रामकृष्ण परमहंस का संदेश समाप्त होते ही, सिर्फ एक गोली से सिर दर्द भगाने का विज्ञापन हवा में तैर गया। इसका प्रसारण बिल्कुल तार्किक लगा, क्योंकि जिस तरह से इंसानियत और इंसान की जेहनियत कमजोर हुई है, उस तरह से अब हर बात के लिए दवा का होना बेहद लाजिमी है।
अगले क्रम में थिंक पॉजिटिव वाले खेड़ा-मार्टिन नुस्खे की अजमाइश हुई। सब्जी मसाला बेचने की शैली में भारत सरकार की प्रशंसा करता हुआ एक विज्ञापन सुनाई दिया । जिसमें कहा गया कि सरकारी प्रयास से विश्व में सबसे कम दर की फोन कॉल सेवा भारत में उपलब्ध हुई है। इसने न केवल भौगोलिक दूरियों को कम किया है,  बल्कि लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ा है। अरे भाई ! नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का ही आंकड़ा अगर सामने रख लो तो इस सफलता की सारी हकीकत खुल जाएगी। यही नहीं, जिस तरह से महिलाओं के खिलाफ अपराध हुए हैं, या मासूमों और मजलूमों को निशाना बनाया गया है, वह बताता है कि लोगों के बीच का भावनात्मक संबंध ही नहीं, बल्कि तार्किक-वैधानिक संबंध भी संकट में है। आत्मीय रिश्तों के बीच छल-कपट की कहानियों की गवाही करा लें, तो सिर दर्द शुरू हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है। हरेक अन्य विज्ञापन के बाद सिर दर्द भगाने वाली गोली की जानकारी हाजिर थी। हां, एक बात और । बहुत से लोग सिर दर्द के डर से ही वर्तमान दौर की विसंगतियों का मूल्यांकन करने वाली बहसों में शामिल नहीं होते हैं। इसलिए सिर दर्द भगाने की दवाएं बहस-मुबाहसों से भागने वालों को साथ लाने में इस्तेमाल की जा सकती है।
अब जिंगल और संगीत के बेहतर तालमेल से सजे बापू के सपने की बारी थी। बेहतर आवाज, सुरूचिपूर्ण संगीत और कर्णप्रिय शब्दों के साथ लयबद्ध होकर गाया गया- 20 साल का अपना पंचायती राज हुआ,  देखो बापू का सपना साकार हुआ। ग्राम स्वराज्य की साम्यता के आधार पर मौजूदा पंचायती राज व्यवस्था को बापू का सपना कहना गलत है। वास्तव में, बापू ने मौजूदा पंचायती प्रणाली की रूपरेखा के तहत ग्राम स्वराज का कोई सपना देखा ही नहीं था। अभी तो त्रिस्तरीय और दो स्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था लागू है, जबकि बापू ने ग्राम, ब्लॉक, जिला, प्रांत और अखिल भारतीय स्तर पर पंचायत व्यवस्था के पांच चरण चिन्हित किए थे। जिसे लागू होने के बाद ग्राम वाकई नीति-निर्माता होते और संसदीय व्यवस्था का मौजूदा स्वरूप पनप ही नहीं पाता।
खैर, बापू के बारे में कांग्रेस से ज्यादा कौन जान सकता है और अब तो कांग्रेस नीत केंद्र सरकार बापू की यादों को संजोने के लिए हेरिटेज मिशन भी मंजूर कर चुकी है। हो सकता है कि इसी क्रम में पंचायती राज से जुड़े बापू के सपने के बारे में सरकार को कुछ तथ्य हाथ लगे हों, वरना सरकार इतनी जोर-शोर से क्यों कहती ? क्या झूठ चिल्लाकर भी बोल जाता है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो कुछ भी चिल्लाकर बोला जाए उसे झूठ नहीं कहा जा सकता है।
पूरा विज्ञापन कितनी दिलचस्प बात करता है। कहता है कि ई-व्यवस्था आने से पंचायती राज पारदर्शी हो गया है। ग्रामीण अभियंत्रिकी सेवा के अधिकारी और ग्राम विकास/पंचायत अधिकारी साफ तौर घूस लेते हैं और बेधड़क कहते हैं कि क्या करें साहब ! ऊपर तक जाता है, ई-व्यवस्था की पारदर्शिता में अब और क्या चाहिए ? वैसे ई-गवर्नेंस में कमाल के फीचर हैं। रहिमन पानी राखिए असली मतलब तो ई-गवर्नेंस में ही समझा गया है। जैसे सारे काम ऑनलाइन और फटाफट (प्रचार के मुताबिक) हुए हैं, हकीकत में वैसे ही कागजों पर फटाफट तालाब खोदकर उसमें पानी भरते हुए धरती को सूखे से बचाने में सफलता पाई गई है। माफ कीजिएगा बापू ! अब तो आपके सपनों को लेकर संदेह होने लगा है। लगता है कि सार्वजनिक तौर पर कुछ अलग सपना देखा और सुनाया, कांग्रेस को चुपके से कुछ अलग ही सपना समझाया ।
मौजूदा पंचायतों की हालत आर-पार दिखाई देती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो बेहद पारदर्शी हैं। पैसे के प्रवाह में कत्लो-गारद है, निर्वाचित पत्नियां चूल्हा फूंक रही हैं, पति ब्लॉक की मीटिंगों में ग्राम सभा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इस पंचायत व्यवस्था में हर उस शख्स को मालामाल होने की छूट है, जिसका स्व-नियंत्रण खत्म हो और वह ईश्वर के न्याय जैसी किसी व्यवस्था को न मानता हो। पारदर्शिता के नाम पर नैतिकता और मर्यादाओं के नाम पर छिपाव पैदा करने वाले चोले को ही उतार फेंका गया है। भूतो न भविष्यति की शर्त पर सरकारों ने बड़ी दिलेरी से अपने हर झूठ और फरेब को स्वीकार किया है, मंत्री पहले निर्दोष बताए गए, फिर हटाए गए हैं, प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग वर्षों पुरानी हो चली है। क्या इसे पारदर्शिता नहीं कहेंगे ?
यह सच है कि अगर कुछ सेकेंड के भीतर इतनी सारी विरोधाभासी बातें जनता के दिमाग में डाल दी जाएंगी तो सिर दर्द होना स्वाभाविक है। एक संवेदनशील संचार माध्यम होने का मतलब है कि अपने श्रोताओं की हर अवस्था का अनुमान कर लिया जाए, इसलिए स्थिति को भांपते हुए दर्द की गोली खाकर सिर दर्द से राहत पाने की जानकारी प्रसारित की गई। उल्लेखनीय है कि इन विज्ञापनों के क्रम में एक बार अमिताभ बच्चन भी जनता के सिर की कूल-कूल-ठंडी-ठंडी मालिश करके चुके थे। ये तो वही एंग्री यंग मैन हैं, जिन्होंने बचपन में ही कह दिया था कि मैं फेंके हुए पैसे नहीं उठाता। ध्यान दीजिए जब कहा था, तब भारत में उदारीकरण का कहीं दूर-दूर तक अनुमान भी नहीं था। देखो, उदारीकरण के दो दशक क्या बीते, बेचारे की क्या हालत हो गई है ? सारा स्वाभिमान औकात में आ गया है। बुढ़ापे में गुजारे के लिए रात को जागकर तेल मालिश के लिए आवाज देनी पड़ रही है।

बुधवार, जून 05, 2013

Fwd: Rihai Manch- Nimesh Comm report demands action not only acceptance of its facts. Indefinite Dharna demanding Justice for khalid mujahid completes 14th day.

निमेष कमीशन सिर्फ जारी करने के लिए नहीं दोषी पुलिस अधिकारियों को जेल भेजने के लिए बना था- रिहाई मंच

विक्रम सिंह, बृजलाल, अमिताभ यश जैसे पुलिस अधिकारियों का बाहर घूमना देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा- रिहाई मंच

खालिद के हत्यारों की गिरफ्तारी तक जारी रहेगा रिहाई मंच का अनिश्चित कालीन धरना चैदहवें दिन भी जारी रहा खालिद मुजाहिद के हत्यारे पुलिस व आईबी अधिकारियों की गिरफ्तारी के लिए रिहाई मंच का अनिश्चित कालीन धरना

लखनऊ 4 जून 2013/ मौलाना खालिद मुजाहिद के हत्यारे पुलिस व आईबी अधिकारियों की गिरफ्तारी, आरडी निमेष आयोग की रिपोर्ट पर सरकार एक्शन टेकन रिपोर्ट जारी कर दोषी पुलिस व आईबी के अधिकारियों को गिरफ्तार करने और आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों को तत्काल रिहा करने की मांग को लेकर रिहाई मंच का अनिश्चित कालीन धरना चैदहवें दिन भी जारी रहा। आज क्रमिक उपवास पर सोशलिस्ट फ्रंट के मोहम्मद आफाक और स्मार्ट पार्टी के हाजी फहीम सिद्की थे। 
रिहाई मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब ने कहा कि जिस तरह से सरकार ने आज आधे-अधूरे मन से आरडी निमेष रिपोर्ट को सार्वजनिक किया वह बताता है कि सरकार इस रिपोर्ट को दबाए रखना चाहती थी। क्योंकि जिस रिपोर्ट को रिहाई मंच के लोगों ने 18 मार्च 2013 को ही जारी कर दिया था उस पर सपा सरकार को आज यह बताना चाहिए था कि वो इस पर क्या एक्शन ले रही है और किन-किन दोषी पुलिस वालों के खिलाफ कार्यवाई कर रही है, जो उसने नहीं बताया जो सरकार की मंशा पर सवाल उठाता है।
मुहम्मद शुऐब ने कहा कि आज जब निमेष कमीशन खालिद-तारिक की गिरफ्तारी को गलत बता चुका है तो ऐसे में सवाल उठता है कि जो डेढ़ किला आरडीएक्स और जिलेटिन की छड़े एसटीएफ ने उनके पास से बरामद दिखाईं थी वह एसटीएफ को कहां से मिली थीं। यह सवाल तब और गंभीर हो जाता है जब खालिद को कर इस गिरफ्तारी के दोषी अधिकारी तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह गौरवान्वित होकर बयान देते हंै कि खालिद आतंकवादी था और रहेगा। तब ऐसे में सवाल उठता 
कि खाकी के भेष में आरडीएक्स रखने वाले इन राज्यद्रोही पुलिस अधिकारियों को सरकार क्यों नहीं जेल भेज रही है। क्योंकि निमेष कमीशन ने जिन दोषी पुलिस अधिकारियों पर कार्यवाई की बात कहीं है चाहे वो विक्रम सिंह, बृजलाल, मनोज कुमार झां, अमिताभ यश, चिरंजिव नाथ सिन्हा, एस आनंद और आईबी के अधिकारी हों यह सब प्रदेश में उच्च पदों पर आज भी कैसे तैनात है, जो देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं। इन दोषी पुलिस आतंकियों को तत्काल गिरफ्तार कर देश को सुरक्षित करते हुए इनके वैश्विक आतंकी गठनों के गठजोड़ की जांच कराई जाय।

रिहाई मंच के प्रवक्ताओं शाहनवाज आलम, राजीव यादव ने कहा कि जिस तरह तारिक-खालिद के मामले में निमेष जांच आयोग ने गिरफ्तारियों पर सवाल उठाया
है उससे यह जरुरी हो जाता है कि और भी ऐसी गिरफ्तारियों समेत उन तमाम आतंकवाद के मुकदमों की फिर से जांच कराई जाए जिसमें पुलिस की बरामदगी के
आधार पर ही सजांए तक हो चुकी हैं। साथ ही आतंकवाद के आरोप में बरी हो चुके और ऐसी ही झूठी पुलिसिया कहानियों पर जो सजाएं काट रहे हैं उन मुकदमों की भी पुर्नविवेचना कराई जाय। रिहाई मंच ने कहा कि यह अनिश्चित कालीन धरना तब तक चलेगा जब तक कि खालिद के हत्यारे दोषी पुलिस व आईबी के अधिकारियों को जेल नहीं भेजा जाता।

पिछड़ा समाज महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष एहसानुल हक मलिक ने कहा कि 27 दंगे और खालिद की हत्या से साफ हो गया है सपा को मुसलमानों और वचित पिछड़े तबकों की जरुरत सिर्फ वोट बैंक के बतौर है और सरकार अब ब्राहमणों को खुश करने के लिए मनुवादी एजेंडे पर चल रही है जिसका प्रमाण प्रमोशन में
ंआरक्षण का विरोध और ब्राहमणों पर दर्ज दलीत उत्पीड़न के मुकदमें हटाने की घोषणा है।

अनिश्चित कालीन धरने को संबोधित करते हुए आजमगढ़ रिहाई मंच के नेता तारिक शफीक ने कहा कि सपा सरकार ने फरुखाबाद में 65 लोगों जो कि विश्व हिन्दू
परिषद, विधार्थी परिषद, बीजेपी के थे पर से मुकदमा हटाया है उससे साफ हो रहा हे कि यह सरकार किसकी हिमायती है।

धरने के समर्थन में मुंबई से आए लेखक आजम शहाब ने कहा कि वे मुंबई से धरने में शामिल होने इसलिए आए हैं कि खालिद का सवाल सिर्फ यूपी का सवाल
नहीं है बल्कि पूरे देश के मुसलमानों के समक्ष खुफिया एजेंसियों द्वारा खड़ा किए गए असुरक्षा का सवाल है।

धरने के समर्थन में गोण्डा से आए जुबैर खान ने कहा कि खालिद मुजाहिद की हत्या कराकर सपा हुकूमत ने अपनी उल्टी गिनती शुरु कर ली है, जिसका एहसास
उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में मुसलमान करा देगा। 
धरने को मैग्सेसे पुरस्कार से सम्माानित संदीप पांडे, सदर जामा मस्जिद कमेटी उन्नाव जमीर अहमद खान, इंडियन नेशनल लीग के प्रदेश अध्यक्ष मो.
समी, गोंडा से मुशीर खान, खतीबुल्ला, मो. सुल्तान खान, फखरुद्दीन खान, आदियोग, रामकृष्ण, मुस्लिम फोरम के डा0 आफताब अहमद खां, कारी जुबैर अहमद,
मुसन्ना, डा. कमरुद्नी कमर, कमर इरशाद, मुस्लिम संषर्ष मोर्चा के आफताब अबू जर, आरिफ नसीम, इशहाक, भारतीय एकता पार्टी अध्यक्ष सैयद मोइद, स्मार्ट पार्टी शहजादे मंसूर, महशर अहमद खां, मौलाना कमर सीतापुरी, डा. अली अहमहद कासमी, शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने संबोधित किया।

द्वारा जारी-
शाहनवाज आलम, राजीव यादव
प्रवक्ता रिहाई मंच
09415254919, 09452800752

--------------------------------------------------------------------------------
Office - 110/60, Harinath Banerjee Street, Naya Gaaon Poorv, Laatoosh
Road, Lucknow
Forum for the Release of Innocent Muslims imprisoned in the name of Terrorism
        Email- rihaimanchindia@gmail.com