उन्होंने कहा-
“अब मैं कुछ ऐसे उदाहरण पेश करता हूँ,
जिनसे यह स्पष्ट हो जायेगा कि ऐतिहासिक तथ्यों को कैसे विकृत किया जाता है”।
जब मैं इलाहाबाद में 1928 ई. में टीपू
सुल्तान के सम्बन्ध में रिसर्च कर रहा था,तो ऐंग्लो-बंगाली कॉलेज के छात्र-संगठन
के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने हिस्ट्री एसोसिएशन का उद्घाटन करने के लिए
मुझको आमंत्रित किया। ये लोग कॉलेज से सीधे मेरे पास आये थे। उनके हाथों में कोर्स
की किताबें भी थीं। संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पड़ी। मैंने टीपू
सुल्तान से सम्बन्धित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत आश्चर्य में डाल
दिया, वह यह थाः
“तीन हजार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर
ली,क्योंकि टीपू उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था”।
इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय
डॉ.हरप्रसाद शास्त्री थे, जो कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष
थे। मैंने तुरंत डॉ. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में
उपरोक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा है। कई पत्र लिखने के बाद उनका
जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना मैसूर गजेटियर(Mysore Gazetteer)से उद्धृत की है। मैसूर गजेटियर न तो इलाहाबाद में और न तो इम्पीरियल
लाइब्रेरी, कलकत्ता में प्राप्त हो सका। तब मैंने मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन
कुलपति सर बृजेंद्र नाथ सील को लिखा कि डॉ.शास्त्री ने जो बात कही है,उसके बारे
में जानकारी दें। उन्होंने मेरा पत्र प्रोफेसर श्री कन्टइया के पास भेज दिया जो उस
समय मैसूर गजेटियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे।
प्रोफेसर कन्टइया ने मुझे लिखा कि तीन
हजार ब्राह्मणों की आत्महत्या की घटना मैसूर गजेटियर में कहीं भी नहीं है और मैसूर
के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरा यकीन है कि इस
प्रकार की कोई घटना घटी ही नहीं है। उन्होंने मुझे सूचित किया कि टीपू सुल्तान के
प्रधानमंत्री पुनैया नामक एक ब्राह्मण थे और उनके सेनापति भी एक ब्राह्मण
कृष्णाराव थे। उन्होंने मुझको ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टीपू
सुल्तान वार्षिक अनुदान दिया करते थे। उन्होंने टीपू सुल्तान की तीस पत्रों की
फोटो कॉपियां भी भेजीं जो उन्होंने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरू शंकराचार्य को लिखे थे
और जिनके साथ सुल्तान के अति घनिष्ठ मैत्री संबंध थे। मैसूर के राजाओं की परम्परा
के अनुसार टीपू सुल्तान प्रतिदिन नाश्ता करने के पहले रंगनाथ जी के मंदिर में जाते
थे,जो श्रीरंगापटनम के किले में था। प्रोफेसर श्री कंटइया के विचार में
डॉ.शास्त्री ने यह घटना कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ मैसूर’
(मैसूर का इतिहास) से ली होगी। इसके लेखक का दावा है कि उसने अपनी किताब ‘टीपू सुल्तान का इतिहास’ एक प्राचीन फारसी पांडुलिपि से अनूदित
किया है,जो महारानी विक्टोरिया की निजी लाइब्रेरी में थी। खोजबीन से मालूम हुआ है
कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोई पाण्डुलिपि थी ही नहीं और कर्नल माइल्स की
किताब की बहुत सी बातें बिल्कुल गलत एवं मनगढ़ंत हैं।
डॉ.शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम,
बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान के पाठ्यक्रम में स्वीकृत
थी। मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति पर आशुतोष चौधरी को पत्र लिखा
और इस सिलसिले में अपने सारे पत्र व्यवहारों की नकलें भेजी और उनसे निवेदन किया कि
इतिहास की इस पाठ्य-पुस्तक में टीपू सुल्तान से संबंधित जो गलत और भ्रामक वाक्य आए
हैं,उनके विरूद्ध समुचित कार्रवाई की जाए। सर आशुतोष चौधरी का शीघ्र ही जवाब आया
कि डॉ.शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है। परन्तु मुझे यह
देखकर आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 ई. में भी उत्तर प्रदेश में
जूनियर हाईस्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठ्यक्रम किताबों में उसी प्रकार मौजूद
थी। इस सिलसिले में महात्मा गांधी की वह टिप्पणी भी पठनीय है जो उन्होंने अपने
अखबार ‘यंग इंडिया’ में 23 जनवरी 1930 के अंक में पृष्ठ 31 पर की थी। उन्होंने लिखा था
कि-
“मैसूर के फतह अली (टीपू सुल्तान) को
विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानो वह धर्मांधता का शिकार था।
इन इतिहासकारों ने लिखा है कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर जुल्म ढाए और उन्हें
जबरदस्ती मुसलमान बनाया,जबकि वास्तविकता इसके विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ उसके
बहुत अच्छे संबंध थे।.......मैसूर राज्य(अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग (Archaeology Department) के पास ऐसे तीन पत्र हैं,जो टीपू
सुल्तान ने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरू शंकराचार्य को 1793 ईसवी में लिखे थे। इनमें
एक पत्र में टीपू सुल्तान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए
उनसे निवेदन किया है कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलाई, कल्याण और खुशहाली के लिए
तपस्या और प्रार्थना करें। अंत में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे
मैसूर लौट आएं, क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से वर्षा होती है, फसल
अच्छी होती है और खुशहाली आती है।”
यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णित
अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है। ‘यंग
इंडिया’ में कहा गया है-
“टीपू सुल्तान ने हिन्दू मंदिरों विशेष रूप
से श्री वेंकटरमण, श्रीनिवास और श्रीरंगनाथ मंदिरों को जमीनें एवं अन्य वस्तुओं के
रूप में बहुमूल्य उपहार दिए। कुछ मंदिर उसके महलों के अहाते में थे यह उनके खुले
जेहन, उदारता एवं सहिष्णुता का जीता जागता प्रमाण है।” इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपू
एक महान शहीद था। जो किसी भी दृष्टि से आजादी की राह का हकीकी शहीद माना जाएगा।
उसे अपनी इबादत में हिन्दू मंदिरों की घंटियों की आवाज से कोई परेशानी महसूस नहीं
होती थी। टीपू ने आजादी के लिए लड़ते हुए जान दे दी और दुश्मन के सामने हथियार
डालने के प्रस्ताव को सिरे से ठुकरा दिया। जब टीपू की लाश उन अज्ञात फौजियों की
लाशों में पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी-वह तलवार जो
आजादी हासिल करने का जरिया थी। उसके ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने योग्य हैः ‘शेर की एक दिन की जिंदगी लोमड़ी की सौ
सालों की जिंदगी से बेहतर है।’
उसकी शान में कही गई एक कविता की वे पंक्तियां भी याद रखे जाने योग्य हैं,जिनमें
कहा गया है कि ‘खुदाया जंग के खून बरसाते बादलों के नीचे
मर जाना,लज्जा और बदनामी की जिंदगी जीने से बेहतर है।’
इसी प्रकार जब मैं इलाहाबाद नगरपालिका का
चैयरमैन था (1948 ई. से 1953 ई.तक) तो मेरे सामने दाखिल-खारिज का एक मामला लाया
गया। यह मामला सोमेश्वर नाथ महादेव मंदिर से संबंधित जायदाद के बारे में था। मंदिर
के महंत की मृत्यु के बाद उस जायदाद के दो दावेदार खड़े हो गये थे। एक दावेदार ने
कुछ दस्तावेज दाखिल किये जो उसके खानदान में बहुत दिनों से चले आ रहे थे। इन
दस्तावेजों में शहंशाह औरंगजेब के फरमान भी थे। औरंगजेब ने इस मंदिर को जागीर और
नगद अनुदान भी दिया था। मैंने सोचा कि ये फरमान जाली होंगे। मुझे आश्चर्य हुआ कि
यह कैसे हो सकता है कि औरंगजेब जो मंदिरों को तोड़ने के लिए प्रसिद्ध है,वह एक
मंदिर को यह कह कर जागीर दे सकता है कि यह जागीर पूजा और भोग के लिए दी जा रही है।
आखिर औरंगजेब कैसे बुतपरस्ती के साथ अपने को शरीक कर सकता था। मुझे यकीन था कि ये
दस्तावेज जाली हैं,परन्तु कोई निर्णय लेने से पहले मैंने डॉ.सर तेज बहादुर सप्रू
से राय लेना उचित समझा। वे अरबी और फारसी के अच्छे जानकार थे। मैंने दस्तावेज उनके
सामने पेश करके उनकी राय मालूम की तो उन्होंने दस्तावेजों का अध्ययन करने के बाद
कहा कि औरंगजेब के ये फरमान असली और वास्तविक हैं। इसके बाद उन्होंने अपने मुंशी
से बनारस के जंगमबाड़ी शिव मंदिर की फाइल लाने को कहा। यह मुकदमा इलाहाबाद
हाईकोर्ट में 15 साल से विचाराधीन था। जंगमबाड़ी मंदिर के महंत के पास भी औरंगजेब
के कई फरमान थे,जिनमें मंदिर को जागीर दी गई थी।
इन दस्तावेजों ने औरंगजेब की एक नई तस्वीर
मेरे सामने पेश की,उससे मैं आश्चर्य में पड़ गया। डॉक्टर सप्रू की सलाह पर मैंने
भारत के विभिन्न प्रमुख मंदिरो के महंतों के पास पत्र भेजकर उनसे निवेदन किया कि
यदि उनके पास औरंगजेब के कुछ फरमान हों जिनमें उन मंदिरों को जागीरें दी गई तो वे
कृपा करके उनकी फोटो स्टेट कॉपियां मेरे पास भेज दें। अब मेरे सामने एक और आश्चर्य
की बात आई। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर, चित्रकूट के बालाजी मंदिर, गौहाटी के
उमानंद मंदिर, शत्रुन्जाई के जैन मंदिर और उत्तर भारत के फैले हुए अन्य प्रमुख
मंदिरों एंव गुरूद्वारों से संबन्धित जागीरों के लिए औरंगजेब के फरमानों की नकलें
मुझे प्राप्त हुईं। ये फरमान 1065 हिजरी से 1091 हिजरी अर्थात् 1659 से 1685 ई. के
बीच जारी किए गए थे।
हालांकि हिन्दुओं और उनके मंदिरों के
प्रति औरंगजेब के उदार रवैये की ये कुछ मिसालें हैं,फिर भी इनसे यह प्रमाणित हो
जाता है कि इतिहासकारों ने उसके संबन्ध में जो कुछ लिखा है,वह पक्षपात पर आधारित
है और इससे उसकी तस्वीर का एक ही रूख सामने लाया गया है। भारत एक विशाल देश
है,जिसमें हजारों मन्दिर चारों ओर फैले हुए हैं। यदि सही ढंग से खोजबीन की जाये तो
मुझे विश्वास है कि और बहुत से ऐसे उदाहरण मिल जाऐंगे जिनसे औरंगजेब का
गैर-मुस्लिमों के प्रति उदार व्यवहार पता चलेगा।
औरंगजेब के फरमानों की जांच पड़ताल के
सिलसिले में मेरा संपर्क श्री ज्ञानचंद्र और पटना म्यूजियम के भूतपूर्व क्यूरेटर
डॉ.पी.एल.गुप्ता से हुआ। ये महानुभाव भी औरंगजेब के विषय में ऐतिहासिक दृष्टि से
अति महत्वपूर्ण रिसर्च कर रहे थे। मुझे खुशी हुई कि अन्य अनुसंधानकर्ता भी सच्चाई
को तलाशने में व्यस्त हैं और काफी बदनाम औरंगजेब की तस्वीर साफ करने में अपना
योगदान दे रहे हैं। औरंगजेब,जिसे पक्षपाती इतिहासकारों ने भारत में मुस्लिम हुकूमत
का प्रतीक मान रखा है। उसके बारे में क्या विचार रखते हैं इसके विषय में यहां तक
कि शिबली जैसे इतिहास गवेषी कवि को कहना पड़ाः
तुम्हें ले-दे के सारी दास्तां में याद है
इतना।
कि औरंगजेब हिन्दू-कुश था,जालिम था,सितमगर
था।।
औरंगजेब पर हिन्दू-दुश्मनी के आरोप के
सम्बन्ध में जिस फरमान को बहुत उछाला गया है, वह ‘फरमाने बनारस’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह फरमान बनारस
के मुहल्ला गौरी के एक ब्राह्मण परिवार से संबंधित है। 1905 ई. में इसे गोपी
उपाध्याय के नवासे मंगल पाण्डेय ने सिटी मजिस्ट्रेट के समझ पेश किया था। इसे पहली
बार ‘एशियाटिक-सोसाइटी’ बंगाल के जर्नल(पत्रिका) ने 1911 ई. में
प्रकाशित किया था। फलस्वरूप रिसर्च करने वालों का ध्यान इधर गया। तब से इतिहासकार
प्रायः इसका हवाला देते आ रहे हैं और वे इसके आधार पर औरंगजेब पर आरोप लगाते हैं
कि उसने हिन्दू मन्दिरों के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था,जबकि इस फरमान का
वास्तविक महत्व उसकी निगाहों से ओझल रह जाता है।
यह लिखित फरमान औरंगजेब ने 15
जुमादुल-अव्वल 1065 हि.(10 मार्च 1659 ई.) को बनारस के स्थानीय अधिकारियों के नाम
भेजा था जो एक ब्राह्मण की शिकायत के सिलसिले में जारी किया गया था। वह ब्राह्मण
एक मंदिर का महंत था और कुछ लोग उसे परेशान कर रहे थे। फरमान में कहा गया हैः
“अबुल हसन को हमारी शाही उदारता का कायल
रहते हुए यह जानना चाहिए हमारी स्वाभाविक दयालुता और प्राकृतिक न्याय के अनुसार
हमारा सारा अनथक संघर्ष और न्यायप्रिय इरादों का उद्देश्य जन कल्याण को बढ़ावा
देना है और प्रत्येक उच्च एवं निम्न वर्गों के हालात को बेहतर बनाना है। अपने
पवित्र कानून के अनुसार हमने फैसला किया है कि प्राचीन मंदिरों को तबाह और बर्बाद
नहीं किया जाय,अलबत्ता नए मंदिर न बनाए जाएँ।
हमारे इस न्याय पर आधारित काल में हमारे
प्रतिष्ठित एवं पवित्र दरबार में यह सूचना पहुंची है कि कुछ लोग बनारस शहर और उसके
आसपास के हिन्दू नागरिकों और मंदिरों के ब्राह्ममणों-पुरोहितों को परेशान कर रहे
हैं तथा उनके मामलों में दखल दे रहे हैं,जबकि यह प्राचीन मंदिर उन्हीं की देख-रेख
में हैं। इसके अतिरिक्त वे चाहते हैं कि इन ब्राह्मणों को इनके पुराने पदों से हटा
दें। यह दखलंदाजी इस समुदाय के लिए परेशानी का कारण है।
इसलिए हमारा यह फरमान है कि हमारा शाही
हुक्म पहुंचते ही तुम हिदायत जारी कर दो कि कोई व्यक्ति गैर कानूनी रूप से
दखलंदाजी न करे और न उन स्थानों के ब्राह्मणों एवं अन्य हिन्दू नागरिकों को परेशान
करे। ताकि पहले की तरह उनका कब्जा बरकरार रहे और पूरे मनोयोग से वे हमारी
ईश-प्रदत्त सल्तनत के लिए प्रार्थना करते रहें। इस हुक्म को तुरंत लागू किया जाये।”
इस फरमान से बिल्कुल स्पष्ट है कि औरंगजेब
ने नए मन्दिरों के निर्माण के विरूद्ध कोई नया हुक्म नहीं जारी किया,बल्कि उसने
केवल पहले से चली आ रही परम्परा का हवाला दिया और उस परम्परा की पाबंदी पर जोर
दिया। पहले से मौजूद मंदिरों को ध्वस्त करने का उसने कठोरता से विरोध किया। इस
फरमान से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह हिन्दू प्रजा को सुख-शान्ति से जीवन
व्यतीत करने का अवसर देने का इच्छुक था।
यह अपने जैसा केवल एक ही फरमान नहीं है।
बनारस में ही एक और फरमान मिलता है,जिससे स्पष्ट होता है कि औरंगजेब वास्तव में
चाहता था कि हिन्दू सुख-शान्ति के साथ जीवन व्यतीत कर सकें। यह फरमान इस प्रकार
हैः
“ रामनगर(बनारस) के महाराजाधिकार राजा
रामसिंह ने हमारे दरबार में अर्जी पेश की है कि उनके पिता ने गंगा नदी के किनारे
अपने धार्मिक गुरू भगवत गोसाईं के निवास के लिए एक मकान बनवाया था। अब कुछ लोग
गोसाईं को परेशान कर रहे हैं। अतः यह शाही फरमान जारी किया जाता है कि इस फरमान के
पहुंचते ही सभी वर्तमान और आने वाले अधिकारी इस बात का पूरा ख्याल रखें कि कोई भी
व्यक्ति गोसाईं को परेशान एवं डरा-धमका न सके, और न उनके मामले में हस्तक्षेप
करें, ताकि वे पूरे मनोयोग के साथ हमारी ईश प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए
प्रार्थना करते रहें। इस फरमान पर तुरंत अमल किया जाए।”(तारीख-17रबी उस्मानी 1091 हिजरी)
जंगमबाड़ी मठ के महंत के पास मौजूद कुछ
फरमानों से पता चलता है कि औरंगजेब कभी यह सहन नहीं करता था कि उसकी प्रजा में
अधिकार किसी प्रकार से छीनें जाएँ,चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान। वह अपराधियों के
साथ सख्ती पेश आता था। इन फरमानों में एक जंगम लोगों(शैव सम्प्रदाय के एक मत के
लोग) की ओर से एक मुसलमान नागरिक नजीर बेग के
विरूद्ध शिकायत के सिलसिले में है। यह मामला औरंगजेब के दरबार में लाया गया,जिस पर
शाही हुक्म दिया गया कि बनारस सूबा इलाहाबाद के अफसरों को सूचित किया जाता है कि
परगना बनारस के नागरिकों अर्जुनमल और जंगमियों ने की शिकायत की है कि बनारस के एक
नागरिक नजीर बेग के कस्बा बनारस में उनकी पांच हवेलियों पर कब्जा कर लिया है।
उन्हें हुक्म दिया जाता है कि यदि शिकायत सच्ची पाई जाए और जायदाद की मिल्कियत का
अधिकार प्रमाणित हो जाये तो नजीर बेग को उन हवेलियों में दाखिल न होने दिया
जाए,ताकि जंगमियों को भविष्य में अपनी शिकायत दूर करवाने के लिए हमारे दरबार में न
आना पड़े। इस फरमान पर 11 शाबान, 13जुलूस (1672ई.) की तारीख दर्ज है। इसी मठ के
पास मौजूद एक दूसरे फरमान में जिस पर पहली रबीउल-अव्वल 1078 हिजरी की तारीख दर्ज
है,यह उल्लेख है कि जमीन का कब्जा जंगमियों को दिया गया। फरमान में है-
“परगना हवेली बनारस के सभी वर्तमान और भावी
जागीरदारों एवं करोड़ियों को सूचित किया जाता है कि शहंशाह के हुक्म से 178 बीघा
जमीन जंगमियों को दी गई। पुराने अफसरों ने इसकी पुष्टि की थी और उस समय के परगना
के मालिक की मुहर के साथ यह सबूत पेश किया गया कि जमीन पर उन्हीं का हक है। अतः
शहंशाह की जान के सदके के रूप में यह जमीन उन्हें दे दी गई। खरीफ की फसल के
प्रारम्भ में जमीन पर कब्जा बहाल किया जाय और फिर किसी प्रकार की दखलंदाजी न होने
दी जाए,ताकि जंगमी लोग उसकी आमदनी से अपनी देख-रेख कर सकें।”
इस फरमान से केवल यह पता नहीं चलता है कि
औरंगजेब स्वभाव से न्यायप्रिय था,बल्कि यह भी साफ नजर आता है कि वह इस तरह की
जायदादों के बंटवारे में हिन्दू धार्मिक सेवकों के साथ कोई भेदभाव नहीं बरतता था।
जंगमियों को 178 बीघा जमीन संभतः स्वयं औरंगजेब ने प्रदान की थी,क्योंकि एक दूसरे
फरमान(तिथि 5 रमजान,1071 हि.)में इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि यह जमीन
मालगुजारी मुक्त है।
औरंगजेब ने एक दूसरे फरमान(1098 हि.) के
द्वारा एक दूसरी हिन्दू धार्मिक संस्था को भी जागीर प्रदान की। फरमान में कहा गया
हैः
“बनारस में गंगा नदी के किनारे बेनी-माधो
घाट पर दो प्लाट खाली हैं एक मर्कजी मस्जिद के किनारे रामजीवन गोसाईं के घर के
सामने और दूसरा उससे पहले। ये प्लाट बैतुल-माल की मिल्कियत है। हमने यह प्लाट
रामजीवन गोसाईं और उनके लड़कों को ‘इनाम’ के रूप में प्रदान किया,ताकि उक्त
प्लाटों पर ब्राह्मणों और फकीरों के लिए रिहायशी मकान बनाने के बाद वे खुदा की
इबादत और हमारी ईश प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए दुआ और प्रार्थना करने में
लग जाएं। हमारे बेटों, जागीरों, अमीरों, उच्च पदाधिकारियों, दरोगा और वर्तमान एवं
भावी कोतवालों के लिए अनिवार्य है कि वे इस आदेश के पालन का ध्यान रखें और उक्त
प्लाट, उपर्युक्त व्यक्ति और उसके वारिसों के कब्जे ही में रहने दें और उससे न कोई
मालगुजारी या टैक्स लिया जाए और न उनसे हर साल नई सनद मांगी जाए।”
लगता है कि औरंगजेब को अपनी प्रजा की
धार्मिक भावनाओं के सम्मान का बहुत अधिक ध्यान था। हमारे पास औरंगजेब का एक फरमान
(2 सफर,9 जुलूस) है जो असम के शहर गोहाटी के उमानंद मंदिर के पुजारी सुदामन
ब्राह्मण के नाम है। असम के हिन्दू राजाओं की ओर से इस मंदिर और उसके पुजारी को
जमीन का टुकड़ा और कुछ जंगलों की आमदनी जागीर के रूप में दी गई थी,ताकि भोग का
खर्च पूरा किया जा सके और पुजारी की आजीविका चल सके। जब यह प्रांत औरंगजेब के
शासन-क्षेत्र में आया, तो उसने तुरंत ही एक फरमान के द्वारा इस जागीर को यथावत
रखने का आदेश दिया।
हिन्दुओं और उनके धर्म के साथ औरंगजेब की
सहिष्णुता और उदारता का एक और सबूत उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर के पुजारियों से
मिलता है। यह शिवजी के प्रमुख मंदिरों में से एक है, जहां दिन-रात दीप प्रज्वलित
रहता है। इसके लिए काफी दिनों से प्रतिदिन चार सेर घी वहां की सरकार की ओर से
उपलब्ध कराया जाता था और पुजारी कहते हैं कि यह सिलसिला मुगल काल में भी जारी रहा।
औरंगजेब ने भी इस परम्परा का सम्मान किया। इस सिलसिले में पुजारियों के पास
दुर्भाग्य से कोई फरमान तो नहीं उपलब्ध है,परन्तु एक आदेश की नकल जरूर है जो
औरंगजेब के काल में शहजादा मुराद बख्श की तरफ से जारी किया गया था।(5 शव्वाल 1061
हि.) को यह आदेश शहंशाह की ओर से शहजादा ने मंदिर के पुजारी देव नारायण के एक
आवेदन पर जारी किया था। वास्तविकता की पुष्टि के बाद इस आदेश में कहा गया है कि
मंदिर में दीप के लिए चबूतरा कोतवाल के तहसीलदार चार सेर(अकबरी) घी प्रतिदिन के
हिसाब से उपलब्ध कराएं। इसकी नकल मूल आदेश के जारी होने के 93 साल बाद (1153
हिजरी) में मुहम्मद सअदुल्लाह ने पुनः जारी की।
साधारणतया इतिहासकार इसका बहुत उल्लेख
करते हैं कि अहमदाबाद में नागर सेठ के बनवाए हुए चिंतामणि मंदिर को ध्वस्त कर दिया
गया,परंतु इस वास्तविकता पर पर्दा डाल देते हैं कि उसी औरंगजेब ने उसी नागर सेठ के
बनवाए हुए शत्रुन्जया और आबू मंदिरों को काफी बड़ी जागीरें प्रदान कीं।
निःसंदेह इतिहास से यह प्रमाणित होता है
कि औरंगजेब ने बनारस के विश्वनाथ मंदिर और गोलकुंडा की जामा-मस्जिद को ढा देने का
आदेश दिया था,परन्तु इसका कारण कुछ और ही था। विश्वनाथ मंदिर के सिलसिले में
घटनाक्रम यह बयान किया जाता है कि जब औरंगजेब बंगाल जाते हुए बनारस के पास से गुजर
रहा था,तो उसके काफिले में शामिल हिन्दू राजाओं ने बादशाह से निवेदन किया कि वहां
काफिला एक दिन ठहर जाए तो उनकी रानियां बनारस जाकर गंगा नदी में स्नान कर लेंगी और
विश्वनाथ जी के मंदिर में श्रद्धा सुमन भी अर्पित कर आयेंगी। औरंगजेब ने तुरंत ही
यह निवेदन स्वीकार कर लिया और काफिले के पड़ाव से बनारस तक पांच मील के रास्ते पर
फौजी पहरा बैठा दिया। रानियां पालकियों में सवार होकर गईं और स्नान एवं पूजा के
बाद वापस आ गईं,परन्तु एक रानी (कच्छ की महारानी) वापस नहीं आई, तो उनकी बड़ी तलाश
हुई, लेकिन पता नहीं चल सका। जब औरंगजेब को मालूम हुआ तो उसे बहुत गुस्सा आया और
उसने अपने फौज के बड़े-बड़े अफसरों को तलाश के लिए भेजा। आखिर में उन अफसरों ने
देखा कि गणेश की मूर्ति जो दीवार से जड़ी हुई है,हिलती है। उन्होंने मूर्ति हटवाकर
देखा तो तहखाने की सीढ़ी मिली और गुमशुदा रानी उसी में पड़ी रो रही थी। उसकी इज्जत
भी लूटी गई थी और उसके आभूषण भी छीन लिए गए थे। यह तहखाना विश्वनाथ जी की मूर्ति
के ठीक नीचे था। राजाओं ने इस हरकत पर अपनी नाराजगी जताई और विरोध प्रकट किया।
चूंकि यह बहुत घिनौना अपराध था,इसलिए उन्होंने कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने की मांग
की। उनकी मांग पर औरंगजेब ने आदेश दिया कि चूंकि पवित्र स्थल को अपवित्र किया जा
चुका है। अतः विश्वनाथ जी की मूर्ति को कहीं और ले जाकर स्थापित किया जाये और
मन्दिर को गिराकर जमीन के बराबर कर दिया जाये और महंत को गिरफ्तार कर लिया जाए।
डॉक्टर पट्टाभि सीता रमैया ने अपनी
प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फेदर्स एंड द स्टोन्स’ में इस घटना को दस्तावेजों के आधार पर
प्रमाणित किया है। पटना म्यूजियम के पूर्व क्यूरेटर डॉ.पी.एल.गुप्ता ने भी इस घटना
की पुष्टि की है।
गोलकुंडा के जामा मस्जिद की घटना यह है कि
वहां के राजा जो तानाशाह के नाम से प्रसिद्ध थे,रियासत की मालगुजारी वसूल करने के
बाद दिल्ली का हिस्सा नहीं भेजते थे। कुछ ही वर्षों में यह रकम करोड़ों की हो गई।
तानाशाह ने यह खजाना एक जगह जमीन में गाड़कर उस पर मस्जिद बनवा दी। जब औरंगजेब को
पता चला तो उसने आदेश दिया कि यह मस्जिद गिरा दी जाए। अतः गड़ा हुआ खजाना निकाल कर
उसे जनकल्याण के कामों में खर्च किया गया।
ये दोनों मिसालें यह साबित करने के लिए
काफी हैं कि औरंगजेब न्याय के मामले में मंदिर और मस्जिद में कोई फर्क नहीं समझता
था।
“दुर्भाग्य से मध्यकाल और आधुनिक काल के
भारतीय इतिहास की घटनाओं एवं चरित्रों को इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर मनगढ़ंत अंदाज
में पेश किया जाता रहा है कि झूठ ही ईश्वरीय आदेश की सच्चाई की तरह स्वीकार किया
जाने लगा, और उन लोगों की दोषी ठहराया जाने लगा जो तथ्य और मनगढ़ंत बातों में अंतर
करते हैं। आज भी साम्प्रदायिक एवं स्वार्थी तत्व इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और उसे
गलत रंग देने में लगे हुए हैं। ”
प्रो.बी.एन.पाण्डेय
(भूतपूर्व
राज्यपाल एवं इतिहासकार)