अदम गोंडवी को याद करने का पहलू थोड़ा भावनात्मक है। काफी हद तक अपराधबोध का मसला भी। अदम से परिचय था, उनकी कविता ब्लॉग की टैग लाइन बना रखी थी। अदम का जिक्र चाहे मैं करूं या कोई और मैं यह बताना नहीं भूलता था कि मेरे जिले (बहराइच) के पड़ोसी जिले गोंडा से हैं। मिलने का मन बनाया, फोन नंबर भी मिल गया, बस मुलाकात करने के लिए जाने की योजना नहीं बन सकी। इस दौरान स्थानीय अखबारों में उनके बीमार होने की खबर आई। फोन मिलाया और कहा कि अदम जी से बात करनी है। सामने से बिना किसी औपचारिकता के अपने अदम होने का परिचय आया। अपने स्वस्थ होने की जानकारी दी। बताया कि अब गांव आ गए हैं। मुलाकात करने के बारे में पूछा तो छूट मिली कि कभी भी आ जाओ। दोबारा बीमार होने की खबर सुनी लेकिन लखनऊ जाने की स्थिति नहीं बन पाई। बड़ी आंटी के असमय निधन ने कंपा दिया था कि खबर आई कि अदम नहीं रहे। देखते-ही-देखते अदम से मुलाकात की योजना को टालने का अफसोस अपराधबोध में बदल गया। अदम से मिलने जाने की योजना साले साहब भी शामिल थे, मेरी लापरवाही से उन्हें भी निराशा हुई।
जहां तक अदम को पढ़ा या जाना, पाया कि अदम ने कविता को विचारों की शक्ल देकर चेतना को समृद्ध करने का औजार बनाया था। इसलिए वे लिखते हैं-
याद रखिए यूं नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आंच पर एहसास का।
और अदम यह जानते थे कि जिस जातीय पृष्ठभूमि से आते हैं, वह धीमीं आंच पर एहसास को पकाने में मददगार नहीं होगी, इसलिए उन्होंने रामनाथ सिंह की जगह अदम गोंड़वी होना जरूरी स्वीकार किया और हो गए। जनता की पीड़ा से सरोकार जोड़ा तो पाया कि पीपल की छांवों में शीतलता नहीं, बल्कि शोलों जैसी आंच है। जिन्दगी के ताप को महसूस करने के लिए अपने को समाज के धरातल तक उतार ले गए । वे आजादी के बाद बदस्तूर जारी स्याह पक्ष से परेशान हुए और उसे उजागर करने के लिए लोगों को चमारों की गली तक खींच लाए हैं और उन लोगों को हकीकत से दो-चार कराया, जिनका दावा था कि “का लोटा लइके गोहूं टोटियाई रामराज्य।” लोकरंजन हो जहां शम्बूक वध की आंड़ में, कहते हुए रामराज्य के खोखलेपन को उजागर किया।
वे अपने लेखन में शोषण और मक्कारी की केवल रिपोर्टिंग ही नहीं करते हैं, बल्कि सत्ता को चेतावनी भी देते हैं। कहते हैं- बम उगाएंगे अदम दहकान गंदुम के एवज, आप पहुंचा दें हुकूमत तक हमारा ये पयाम है।
अदम को जानने के क्रम में उनके मित्र टीकमदत्त जी से मेरी मुलाकात कोई लगभग साल भर पहले हुई । उन्होंने बताया कि अदम शुरूआती दिनों में मंच पर जाने में संकोच करते थे। वास्तव में, वे (अदम) मंचीय कवि नहीं थे, बल्कि जनांदोलनों के कवि थे। इसीलिए वे (अदम) कहते हैं-
जनता को हक है हाथ में हथियार उठाने का
जब भुखमरी की धूप में जलते किसान हों
मुंह में जुबान रखते हुए बेजुबान हों
नफरत के ॠतु में दंगों के शोले जवान हों
जम्हूरियत के तन पर जिना के निशां हो
जनता को हक है हाथ में हथियार उठाने का
जब खुदसरी की राह पर चलते हों रहनुमां
कुर्सी के लिए गिरते-संभहलते हों रहनुमां
गिरगिट की तरह रंग बदलते हों रहनुमां
टुकडों पे जमाखोर के पलते हों रहनुमां
जनता को हक है हाथ में हथियार उठाने का
जब खुद को कोई मुल्क की तकदीर समझ ले
हर शय को अपने ख्वाब की ताबीर समझ ले
अपना बयान वेद की तहरीर समझ ले
जन-गण को खानदान की जागीर समझ ले
जनता को हक है हाथ में हथियार उठाने का
अदम से सन् 74 के आसपास अपनी पहली मुलाकात को टीकमदत्त जी याद कर कहते हैं कि अदम कविता सुनाने में संकोच कर रहे थे, बड़ी मनुहार करने के बाद एक कविता सुनाई-
शोलों जैसी आंच आ रही है पीपल की छांव में,
सिवा भूख और बेकारी के क्या रखा है गांव में।
खिन्नमना यक्षणी यहीं है कविवर कालीदास की,
बंधुवा हो गया आज कनैहिया प्रजातंत्र की छांव में।
अदम का जीवन आर्थिक संकट में बीता। मौत के वक्त कर्जदारी थी, लेकिन अदम की इन तमाम मुश्किलों को जनता की समस्याओं से अलग करके नहीं समझा जा सकता है और न ही समझा जाना चाहिए। वे आम जनमानस की मुसीबतों को जी रहे थे और उन्हीं के बीच रहकर उनकी बेजुबान हकीकत को शब्द दे रहे थे। वास्तव में, अदम अपने या अपने परिवार के लिए किसी विशेषाधिकार (चर्चित कवि होने के नाते) या विशेष आर्थिक सुरक्षा के लिए चिंतित होते तो शायद यह न लिखते-
मेरी खुदूदारी ने अपना सिर झुकाया दो जगह,
वो कोई मजलूम हो या साहिबे-किरदार हो।
या ये कैसे लिखते-
आप कभी आयें गांव की चौपालों में
मैं रहूं या न रहूं भूख मैजबां होगी।
शोषण, अन्याय, गैर-बराबरी के विरुद्ध विगुल फूंकने वाले अदम आमजुबान में आमजन के कवि के रूप में हमारी चेतना को ताकत देते रहेंगे।
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