गलती सबसे होती है, लेकिन गलती करके शर्मिंदा
न होने वाले लोग यदि आपको बड़ी संख्या में मिलने लगें, तो समझिए
समाजवादी पार्टी शासन में है। यह कैसे होता है और क्यों होता है, इसका जवाब विचारधारा
के अवसरवादी प्रयोग से उपजी स्थितियों को समझने वाले बेहतर दे सकते हैं। विधानसभा
चुनावों के बाद मिले स्पष्ट जनादेश का मतलब समाजवादी पार्टी की सरकार ने अकंटक राज
से लगाया है। इसलिए जो कांटे (विरोधी-विपक्षी) थे, एक-एक हटाये जाने लगे। अविश्वास
प्रस्तावों का दौर आया और स्थानीय निकायों पर सपा समर्थित लोग काबिज हो गये। यह शासन
की गुंडई थी। जिसका लोकप्रिय असर युवाओं पर आया । बेरोजगारी की मार और बेरोजगारी
की आस में वे जाने-अनजाने 2014 के मुलायम-लक्ष्य के स्वघोषित कार्यकर्ता बन गये
हैं। अब वे बाइक व गाड़ियों पर सवार होकर 2014 के मुलायम-लक्ष्य का बड़े ही क्रूर तरीके
से प्रचार कर रहे हैं।
सड़क पर रफ्तार इतनी तेज है कि व्यवस्था
अनियंत्रित दिखाई देती है। भीमकाय गाड़ियां सबको रौंदते हुए आगे निकल जाना चाहती
हैं। मुन्डी जीप और हूटर वाली गाड़ियां मंत्रियों के प्रोटोकॉल को पीछे छोड़ चुकी
हैं। कुल मिलाकर नियम-कायदों को जेब में रखने वाले ताकतवर अपनी मांद से बाहर आ गये
हैं। डिमास्टेशन इफेक्ट के असर से ऐसे लोगों की संख्या में बेतहासा बढ़ोत्तरी देखी
गई है। सचेतन जनता के बीच विकल्प के फेल होने का पछतावा है। यह शहर बहराइच है।
जहां से दो सपा विधायकों में से एक प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं। लिहाजा परिस्थितियों
के आकलन के लिए उपयुक्त नमूना है।
‘पीली छतरी वाली लड़की’ कहानी
में लेखक ने अराजकता की जो तस्वीर क्रिटर्स के माध्यम से खींची थी, वह बहराइच के
लिए हकीकत लगती है। वे क्रिटर्स धरती पर मौजूद सभ्यताओं को खा जाना चाहते थे,
लेकिन ये मानव के सभ्य होने की पहचान को सफाचट कर जाना चाहते हैं। इस ने हाशिए पर
खड़े लोगों में महिला वर्ग के लिए सबसे ज्यादा मुश्किलें पैदा की हैं। लड़कियां झुंड
में एक-दूसरे को पकड़कर चलती हैं। जो अकेली पड़ जाती हैं, वे सड़क के किनारों पर
ऐसे साधकर चलतीं हैं, जैसे कोई करतब दिखाने वाला कलाकार रस्सी पर चलता हो। यही
नहीं, लड़कों द्वारा परेशान किये जाने या पीछा किये जाने के बचने के लिए व्यस्ततम
रास्तों को चुनती है, भले ही दूरी कई गुना बढ़ जाती हो। मुंह ढक कर चलना जरूरत और मजबूरी
दोनों है, तो हर सुनी जा सकने वाली आवाज को अनसुना कर जाना इन क्रिटर्स से न उलझने
की मर्यादा है। जेंडर जस्टिस के तहत शासन में महिलाओं की भागीदारी और इससे बदलाव
की उम्मीद रखने वाले नारीवादी चिंतकों को यह जानकर अफसोस होगा कि यह उस शहर की
हकीकत है, जहां से निर्वाचित सात विधायकों में दो महिलाएं हैं। जिलाधिकारी पद पर
महिला तैनात है। विधायक ज्योतिबा फुले व माधुरी वर्मा और जिलाधिकारी किंजल सिंह की
मौजूदगी में यदि सड़क पर शोहदों की संख्या बढ़ रही है, तो इस चूक की तलाश में
नारीवादी चिंतकों को नए सिरे से बहस करनी चाहिए।
स्थानीय स्तर पर प्रशासन कैसा है,
जानने के लिए जिलाधिकारी कार्यालय को टटोलना जरूरी हो जाता है। तमाम राजनीतिक और
प्रशासनिक गतिविधियों का केन्द्र होने के बावजूद जिलाधिकारी कार्यालय अपने आप में
अव्यवस्था का शिकार है। सूचना अधिकार कानून महत्वहीन है। सूचनाएं समय पर नहीं मिलती
हैं। देरी पर कोई पत्राचार नहीं किया जाता है। हाथोंहाथ सूचना आवेदन जमा कराने पर
रिसीविंग नहीं मिलती है। सूचना आवेदनों को देखने वाली विविध क्लर्क रीता मिश्रा व
राम अजोरे सूचना अधिकार अधिनियम के उपबंधों से अनजान हैं। कामकाज के सामान्य वक्त
में भी जिलाधिकारी किंजल सिंह से उनके सीयूजी मोबाइल पर संपर्क नहीं किया जा सकता
है। फोन नहीं रिसीव होता है। नेता इस कदर सस्ते हुए हैं कि सांसद के लेटरहेड पर की
गई सिफारिशों पर पीड़ित पक्ष को राहत नहीं मिल पाती है। बहराइच के ग्राम सभा
रामगढ़ी थाना बौंडी की विधवा माया देवी दबंगों के डर से अपना घर-बार छोड़कर
रिश्तेदारों के यहां भटक रही हैं। माया देवी की शिकायत है कि दबंगों ने उनके सहन
पर लगे पेड़ काट दिये हैं और वहां पर सड़क कायम करना चाहते हैं। जबकि सरकारी
दस्तावेजों में सड़क दूसरी जगह है। विधवा मायादेवी राष्ट्रपति से राज्यपाल,
प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, महिला आयोग से लेकर मानवाधिकार आयोग तक, डीएम
से लेकर थानेदार तक सभी को पत्र भेज चुकी हैं, लेकिन राहत से दूर हैं।
इसे लंपटई की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि
अस्पताल के ठीक बगल में साप्ताहिक गणेशोत्व पूरे शोर के साथ मनाया जाता है। जबकि
यहां से डीएम कार्यालय व आवास की दूरी महज दो सौ मीटर पड़ती है। आठ-दस बड़े साउंड
सिस्टम और लाउड-स्पीकर पर फिल्मी धुनों वाले भक्ति गीतों से मरीजों के सेहत का
क्या होता होगा, सोचने-समझने वाला कोई नहीं है। ऐसी स्थिति से क्या परेशानी होती
है, जब अस्पताल के कर्ता-धर्ता से पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि कोई दिक्कत
नहीं होती है। जब कहा गया कि 50 डेसीबल से ज्यादा की ध्वनि शोर मानी जाती है, तो
उसने दांत निपोरकर जो चुप्पी साधी, वह विवशता और भय की गवाही थी। कानून-व्यवस्था की
बिगड़ी हालत छात्र संघ चुनावों में देखने को मिल रहा है। लिंगदोह कमेटी सिफारिशों
के साथ मजाक चल रहा है। छात्र संघ के उम्मीदवार गाजे-बाजे, बाइक व कार रैली के साथ
नामांकन करा रहे हैं। जिला प्रशासन दर्शक है, तो कॉलेज प्रशासन कैंपस के भीतर
रैलियों के प्रवेश को रोक कर खुश है।
वास्तव में, सफल और सक्षम प्रशासन या
कानून-व्यवस्था दृष्टि (विजन) का मामला है। इसलिए कानून-व्यवस्था सुधारने की मांग में
प्रत्यक्ष सुरक्षा देने का मुद्दा नहीं जोड़ा जा सकता है, बल्कि प्रशासन से
अपेक्षा की जाती है कि वह कानून-व्यवस्था पर संपूर्ण राजनीतिक दृष्टि से फैसले
करेगा, ताकि सुरक्षा व न्याय के बारे में संदेश स्पष्ट हो । समाजवादी पार्टी के
शासन में कानून-व्यवस्था कैसी रहेगी, इसका विजन मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह की
अव्यवस्था से आता है, जाहिर है कि छह महीना बीतते-बीतते लोग दुहाई देने लगे हैं।
मौजूदा सरकार के प्रशासन से लगता है
कि वह शायद भूल गई है कि जनता ने उसे बसपा सरकार में अधिकारियों की गुंडागर्दी से
आजिज आकर उन्हें विकल्प माना था। इसलिए बढ़ती गुंडागर्दी 2014 का सपना देखने का हक
छीन सकती है। जैसा कि मुथरा में मांट विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव साबित हो
चुका है। समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार तीसरे नंबर पर आया है। सत्ता के गलियारों तक
यह फुसफुसाहट भले न पहुंच रही है, लेकिन बैठकी की तमाम अड्डों पर बसपा सरकार में
सुशासन की पड़ताल जनता करने लगी है। लोगों का मुखर होकर मानना है कि सड़क पर उतर
आये इन क्रिटर्स के मुकाबले नौकरशाही की बसपाकालीन गुंडई सहनशीलता के दायरे में
थी।
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