पूर्वी दिल्ली के एक एटीएम से पैसे निकालने के बाद मैं भी एक फटे नोट और उससे पैदा हुए 'नैतिकता के संकट' की चपेट में आ गया। लेन-देन में अगर मशीन की जगह कोई इंसान होता,तो नोट को बदला जा सकता था। लेकिन एटीएम जैसी सुविधा से ऐसा कोई व्यवहार संभव नहीं था। नोट इतना फटा था कि उसकी और मरम्मत करने का कोई फायदा नहीं समझ में आया । बैंक से नोट बदलने की कोशिश मजबूरी थी,क्योंकि नोट को चलाने की कुछ कोशिशें बेकार हो चुकी थीं। सब्जी वाले को नोट देना चाहा तो उसने टेप से चिपकाने की सलाह के साथ लौटा दिया । हालांकि आलस्य के चलते ऐसा नहीं कर पाया। हां, रास्ते में पड़ने वाले बैंकों में जाकर फटे नोट को बदलने की गुजारिश जरूर की। वहीं से जानकारी मिली कि जो बैंक रिजर्व बैंक से पैसा लाते हैं,वही फटे नोट वापस ले सकते हैं। रिजर्व बैंक से पैसा लाने वाले बैंक कौन-कौन से हैं,यह पता करना आसान नहीं था। लोगों ने संसद मार्ग स्टेट बैंक जाने की सलाह दी। जिस जगह पर मैं खड़ा था,वहां से अगर मैं नोट बदलने के लिए संसद मार्ग जाता,तो तय था कि नोट का कम से कम एक चौथाई हिस्सा किराये में खर्च हो जाता। जबकि नोट को जेब में रखना मेरी सहनशीलता का इम्तहान था।
गौरतलब है कि देश में रिजर्व बैंक नोटों को जारी और उन्हें वापस लेने के लिए जिम्मेदार है। फटे-पुराने नोटों को वापस लेकर उन्हें नष्ट करने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की ही है। चूंकि रिजर्व बैंक जनता से सीधे मुखातिब नहीं होता है,इसलिए नगदी के लेन-देन में दूसरे बैंकों की भागीदारी आती है। सुविधा के लिहाज से पूछा जाये तो फटे नोटों की वापसी की व्यवस्था इन्हीं बैंकों के स्तर पर होनी चाहिए। लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था मौजूदा समय में प्रभावी नहीं है। कारण साफ है। भारत में संस्थानिक जिम्मेदारियों की जनहितैषी व्याख्या लगभग-लगभग रोक दी गई है। तमाम कार्यकारी नियमों और कानूनों की मौजूदगी बेअसर हो रही है। जबकि सार्वजनिक संस्थाओं से पैदा हुई कमियां एक प्रक्रिया के रूप में समाज के भीतर पहुंच जाती हैं। कमियों की इसी प्रक्रिया के तहत एक फटा नोट एटीएम के भीतर पहुंचता है और वहां से होते हुए मेरी जेब में आ गिरता है। फटे नोटों की समस्या का आकलन इसी बात से लगा सकते हैं कि फटे-पुराने नोटों को बदलने की एक पूरी गैर-वैधानिक व्यवस्था विकसित हो गई है। कमीशन लेकर फटे-पुराने नोटों को बदलने दुकानें के बोर्ड हर शहर में देखे जा सकते हैं। जबकि परिचालन के दौरान खराब होने वाले नोटों को उसी मूल्य पर वापस लेने की कारगर व्यवस्था करना रिजर्व बैंक का कर्तव्य है।
लोक संस्थाओं के कारगर न होने का खतरनाक असर देखने को मिलता है। फटे नोटों को चलाने में होने वाली माथापच्ची वास्तव में जनता प्रशिक्षण का काम करती है। जिसके सहारे फटे नोट से पीड़ित व्यक्ति न केवल चालबाजियां सीखता है,बल्कि वह इस प्रशिक्षण को जीवन के दूसरे मामलों में इस्तेमाल करने में परहेज नहीं करता है। वास्तव में फटे नोट किसी लाभ के भीतर छिपी हुई 'हानि या जोखिम' के तौर पर सामने आते हैं। लिहाजा हर व्यक्ति अपने हिस्से के नुकसान को दूसरे के पाले में फेंककर जोखिम मुक्त होना चाहता है। कुटिलता और सफलता को साधते हुए फटे नोटों के साथ पैदा हुआ यह प्रशिक्षण सालों से समाज को प्रशिक्षित कर रहा है। भ्रष्टाचार पर बात करते हुए एक बेबुनियाद दलील बड़ी ही आसानी से दे दी जाती है कि 'समाज ने भ्रष्टाचार स्वीकार कर लिया है'। सच तो यह है कि जिम्मेदारियों के भागने के क्रम में भ्रष्टाचार को सबसे पहले व्यवस्था ने स्वीकार किया है,समाज ने उसके बाद कुछ हद तक प्रशिक्षण लिया है। अगर मौजूदा बैंकिंग सिस्टम में फटे नोट वापसी की सहज व्यवस्था कर दी जाये,तो मरम्मत के सहारे चलने वाले नोटों और उससे पैदा होने वाले 'नैतिकता के संकट' को रोका जा सकता है। इससे जनता के बीच ईमानदार होने के अवसरों को बढ़ाने में मदद मिल सकती है। यह स्वीकार करना जरूरी है कि एटीएम से मिला फटा नोट बैंक से बदलना संभव नहीं हो पाया था और वह अब मेरी जेब में भी नहीं है।
1 टिप्पणी:
लेख को पढ़ कर बड़ा मज़ा आया, ऐसा लगा जैसे मेरी ही कहानी किसी ने लिख दी हो | आपने हास्य व्यंग की ओट में बड़ा ही अच्छा सवाल भी उठाया है |
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