ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

शनिवार, मई 14, 2011

फैसले का नफा-नुकसान

राष्ट्रीय  सहारा में प्रकाशित 
                      फैसले किसे सहूलियत दे रहे हैं, यह किसी भी निर्णयन प्रक्रिया को जांचने का सहज पैमाना होता है। इस आधार पर बात करें तो अंडर पोस्टिंग सर्टिफिकेट (यूपीसी) डाक सेवा को बंद करने का फैसला जनहित के विपरीत है। गौरतलब है कि यूपीसी सेवा को चालू रखने के लिए डाक विभाग को कोई अतिरिक्त उपाय नहीं करना होता है। यूपीसी डाक सेवा,साधारण डाक सेवा की तरह ही काम करती है। इसमें पत्र प्राप्ति की एक रसीद मिल जाती है,जो सादे कागज पर पत्राचार का पता और तीन रूपये के टिकट लगाकर तैयार होती है। जिस पर डाकघर की मुहर लगी होती है।

  डाक विभाग के इस फैसले को उस प्रक्रिया का हिस्सा माना जाना चाहिए,जहां सरकारी सेवाओं को जानबूझ कर कमजोर किया जाता है,फिर इन सेवाओं की बहाली पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए बंद कर दिया जाता है। चूंकि डाक सेवा के कारोबार में निजी क्षेत्र सक्रिय है,इसलिए इस मामले को निजी कूरियर कंपनियों को लाभ पहुंचाने की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए। क्योंकि एक बड़ी आबादी को यूपीसी सेवा पत्राचार का किफायती माध्यम के रूप में इस्तेमाल करती रही है।

  डाक विभाग के फैसले को सूचना अधिकार कानून और भ्रष्टाचार से निपटने के दावों से जोड़ा जाये तो अन्य पहलू भी सामने आ जाते हैं। यूपीसी बंद होना सूचना अधिकार कानून को भ्रष्टाचार के खिलाफ इस्तेमाल करने वालों कार्यकर्ताओं के लिए आर्थिक चुनौती बन गया है। डाक घरों में 10 रूपये के पोस्टल ऑर्डर की कमी की समस्या पहले से मौजूद थी। इस फैसले ने डाक खर्च को चार गुना तक बढ़ा दिया है। सूचना अधिकार कानून के तहत पत्र व्यवहार में रजिस्टर्ड डाक का इस्तेमाल पत्र पहुंचने की गारंटी देता है। लेकिन यूपीसी सेवा बंद होने पर अब रजिस्ट्री या स्पीड पोस्ट का विकल्प शेष रह गया है। इन दोनों सेवाओं के इस्तेमाल में न्यूनतम खर्च 12 से 25 रूपये आता है। क्योंकि 50 ग्राम तक वजन के पत्र पर स्थानीय स्पीड पोस्ट शुल्क 12 रूपये और बाहरी होने पर 25 रूपये लगता  है, जबकि 20 ग्राम वजन तक के पत्र पर रजिस्ट्री शुल्क 20 रूपये ही रहेगा भले ही वह स्थानीय क्यों न हो।

  डाकघरों में पूछताछ करने पर मौखिक रूप से पता चला कि जालसाजी की घटनाएं सामने आने के बाद यूपीसी सेवा को बंद किया गया है। दरअसल जालसाजी का पूरा शिगूफा यूपीसी डाक सेवा को बंद करने के लिए रची गई साजिश है। अगर कहीं पर जालसाजी हुई है,तो वह डाकघर की मुहर का दुरूपयोग होना तय है। जिसे रोकने की जिम्मेदारी डाक विभाग की है। यदि ऐसा नहीं है तो देश में नोट,स्टाम्प,पासपोर्ट जैसी सेवाओं को भी बंद कर देना चाहिए,क्योंकि नकली नोटों, नकली स्टॉम्प पेपर,फर्जी पासपोर्ट के कई बड़े और गंभीर मामले सामने आये हैं। सनद रहे कि दूर संचार व सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय में इससे ज्यादा गंभीर समस्याओं पर अपने फैसले लंबित किये हुए है। तुलनात्मक रूप से अवांछित फोन कॉल्स की समस्या को लिया जा सकता है। जिसका शिकार वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी तक हो चुके हैं। लेकिन मंत्रालय अवांछित कॉल्स को रोकने की समय सीमा नहीं तय कर पा रही हैं। इसके कारण साफ हैं। अवांछित फोन कॉल के कारोबार में निजी क्षेत्र के खिलाड़ी सक्रिय हैं और लेन-देने 300 करोड़ से ऊपर पहुंच रहा है। चूंकि सरकार निजी क्षेत्र को संरक्षण देने के लिए सैद्धांतिक रूप से सहमत हैं,इसलिए मंत्रालय इन पर अंकुश लगाने में ठिठक रहा है। यही नहीं ब्लैकबेरी जैसी मोबाइल सेवा देश की सुरक्षा के लिए खतरा होने के बावजूद दूरसंचार मंत्रालय  पाबंदी लगाने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठा पा रहा है। मामला दूर संचार मंत्रालय या डाक विभाग की कमजोरी का नहीं है,बल्कि जनहित को नजरंदाज करने का है।

 सरकारी फैसलों पर गौर करें तो पायेंगे कि जहां-जहां निजी क्षेत्र अपनी पहुंच कायम करना चाह रहा है,उन-उन क्षेत्रों में सरकारी मौजूदगी को सीमित करने के फैसले लिये जा रहे हैं। यूपीसी डाक सेवा को बंद करने का फैसला नीतिगत हेराफेरी का मात्र एक उदाहरण है। सरकारें, बाजार की मुनाफाखोरी के दबाव में जनता को सस्ती सेवाएं उपलब्ध करने की जिम्मेदारी से पीछे हट रही हैं। जिसे व्यवसायिक संदर्भ में निजी क्षेत्र के जरिए सरकारों के टेकओवर कहना सटीक होगा। जहां जनता की चुनी सरकार का संचालन निजी क्षेत्र की ताकतों से प्रभावित हो रहा है। वास्तव में यही वैश्वीकरण का मकसद और उदारीकरण की प्रक्रिया है।

 


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