साभार-चार्वाक शेष
"किसी को आत्मा के अमरत्व में विश्वास करने के लिए लगा दो और उसका सब कुछ लूट लो। वह हंसते हुए इस लूट में तुम्हारी मदद भी करेगा"- अप्टन सिनक्लेयर।
तंत्र-मंत्र और रूहानी इल्म के माहिर/ खुला चैलेंज/ लाभ 100 प्रतिशत/ 20 मिनट में गारंटी कार्ड के साथ/ जैसा चाहोगे, वैसा होगा/ माई प्रॉमिस/
नोट- अगर आपका विश्वास किसी ज्योतिष, पंडित-बाबा, मियां-मुल्ला, तांत्रिक से उठ गया हो तो एक बार अवश्य मिलें
मनचाहा वशीकरण स्पेशलिस्ट
कारोबार में रुकावट, बंदिश, गृह-क्लेश, मियां-बीवी के झगड़े, तलाक, दुश्मन और सौतन से छुटकारा, कर्ज मुक्ति, संतानहीनता, कोख बंधन, मुठकरनी, विदेश यात्रा, लव-मैरिज, फिल्मी और मॉडलिंग कैरियर में रुकावट जैसी जीवन की जटिल समस्याओं का समाधान।
चेतावनीः मेरे किए को काटने वाले को 1,51,000 रुपए ईनाम।
सभी इल्मों की काट हमारे पास है।
-प्यार में चोट खाए स्त्री एवं पुरुष एक बार अवश्य मिलें।
-एक अगरबत्ती का पैकेट दो नींबू साथ लाएं।
रुहानी और सातों इल्मों के बेताज बादशाह। वर्ल्ड फेमस
- सिद्ध गुरू अकबर भारती या समीरजी (बंगाली)
नगर सेवा की बसों, सड़क के किनारे या पेशाबखानों की दीवारों जैसी जगहों पर चिपकाए गए 'गुप्त रोगों का शर्तिया इलाज' की तरह के ऐसे विज्ञापनों पर एक 'पढ़े-लिखे' और 'सभ्य' व्यक्ति होने के नाते हमारी क्या प्रतिक्रिया होती है? हम मुंह बिचकाते हैं, ऐसा विज्ञापन करने वालों को ठग और मक्कार कहते हैं और उनके पास जाने वाले लोगों को मूर्ख मानते हैं। अगर हम ऐसा विज्ञापन करने वाले ठगों और मक्कारों को अपराधी की तरह देखते हैं या उनके खिलाफ हमारे भीतर नफरत के भाव पैदा होते हैं तो शायद यह गलत नहीं है।
ऐसी राय रखने वाले हम सब आमतौर पर बहुत अच्छी शिक्षा प्राप्त, बहुत अच्छी और साफ-सुथरी जीवनशैली वाले, सूटेड-बूटेड टाईयुक्त कपड़े पहनने वाले और अपनी पहुंच के लगभग सभी आधुनिक उपकरणों-संसाधनों का इस्तेमाल करने वाले होते हैं। वैसे विज्ञापनों पर ऐसे 'सभ्य, शिक्षित और विकसित' समाज का हिस्सा होने के नाते हमारी इस तरह की प्रतिक्रिया के बाद हम अपनी 'सभ्यता' और 'सामाजिक ऊंचाई' में थोड़ा और इजाफा होता हुआ महसूस करते हैं।
और जब समूचे समाज और उसकी सभ्यता को 'दिशा' देने वाले मीडिया को भी हम कुछ इसी तरह का या इससे भी ज्यादा असरदार तरीके से ऐसा ही काम करते हुए देखते हैं, तब हमारी क्या प्रतिक्रिया होती है? जब हम टीवी पर सूटेड-बूटेड टाईयुक्त और 'सभ्यता की पराकाष्ठा' पर पहुंचे हुए लोगों को लगभग चिल्ला कर यह कहते हुए देखते-सुनते हैं कि 'प्रलय... अब धरती बस खत्म होने वाली है' तो हमारे भीतर कौन-से भाव पैदा होते हैं? उस वक्त क्या हमें सड़क के किनारे या पेशाबखानों की दीवारों पर चिपकाए हुए वे विज्ञापन याद आते हैं? क्या ऐसे विज्ञापन करने वालों की मक्कारी और 'समस्याओं से मुक्ति' के लिए उन जगहों पर जाने वाले लोगों की मूर्खता याद आती है?
शायद नहीं। गहरे सम्मोहन के उस दौर की गुलामी की बात ही निराली है। उदयपुर के राकेश और राजग़ढ़ की छाया ने जो किया, उसी सम्मोहन के उन्माद का चरम है, जिसमें झूमते हुए तो बहुत सारे लोगों को देखा जा सकता है, लेकिन 'अंत' से पहले खुद को खत्म कर लेना सबके लिए मुमकिन नहीं होता। हां, 'जिंदा' रहते हुए मौत की चाहे जितनी पीड़ा वे झेल लें।
एक टीवी चैनल पर ज्योतिष संबंधी कार्यक्रम देखने के बाद राकेश ने एक कागज पर लिखा- 'कार्यक्रम को देख कर मुझे लगा कि मैं गलत ग्रह-नक्षत्र में पैदा हुआ हूं और इस वजह से मैं काफी परेशान हूं।' इसके बाद उदयपुर के बीएन कॉलेज में स्नातक प्रथम वर्ष के उस छात्र ने गले में फंदा लगा कर जान दे दी। इसी तरह एक ओर 'बिग बैंग' की सच्चाई की खोज में विज्ञान अब तक के सबसे बड़े प्रयोग की तैयार कर रहा था और टीवी चैनल इस प्रयोग के साथ ही 'धरती के अंत' की मुनादी कर रहे थे। पर्दे पर चीखते-चिल्लाते कुछ सूटे़ड-बूटेड टाईयुक्त पत्रकारनुमा लोग डरावने जंगल के वीराने या मौत के खौफ से आच्छादित श्मशान कब्रिस्तान के अघोड़ियों या तांत्रिकों से कम नहीं लग रहे थे। उससे पैदा होने वाली उत्तेजना में छाया ने तो कीटनाशक की दवा खाकर जान दे दी (मरने से पहले उसने पुलिस को बयान भी दिया), लेकिन हजारो-लाखों जानते हैं कि उस पूरे दौर में वे किस तरह तिल-तिल कर मरने के अहसास से गुजरते रहे।
कुछ समय पहले विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार के लिए काम करने वाली संस्था 'स्पेस' ने इस बात पर गहरा क्षोभ जताया था कि विज्ञान के जिन आविष्कारों का इस्तेमाल अंधविश्वासों के जाले साफ करने में किया जाना चाहिए, उसी का सहारा लेकर आदमी को और अंधा बनाया जा रहा है। सवाल है कि विज्ञान के कंधों पर सवार ये आधुनिक और विकसित-से दिखने वाले 'प्राणी' ऐसा क्यों कर रहे हैं?
दरअसल, जब अक्ल को केवल तिजारत का हथियार बना लिया जाता है तो सारी नैतिकताएं पीछे छूट जाती हैं। अगर बात केवल टीवी चैनलों की करें तो जैसा कि कभी-कभी अंदाजा लगाया जाता है, खेल क्या केवल टीआरपी बढ़ाने का है? एक मकसद यह जरूर है। मगर यह सिर्फ दिखाई देने वाला व्यापार है। इसके पीछे जो महीन और शातिर मिजाज काम कर रहा होता है, एकबारगी उस पर यकीन होना मुश्किल है। लेकिन किसी भी गतिविधि को उसके असर की गहराई की बुनियाद पर आंका जाना चाहिए।
कई बार लगता है कि जादू-टोना और झाड़-फूंक के चमत्कार से मन की साध पूरी कराने का दावा करने वाले ओझाओं और टीवी चैनलों या अखबार में इस तरह की खुराक परोसने वाले संचालक एक ही पायदान पर खड़े हैं और उन्हें समाज के मनोविज्ञान की गहरी समझ होती है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति या समाज का मनोविज्ञान उसका सांस्कृतिक परिवेश तैयार करता है। अनंत ब्रह्मांड में सैर करती हमारी कल्पनाएं और जीवन की सीमाओं के बीच झूलती उम्मीदें और मायूसियां। जिन चीजों तक हमारी पहुंच होती हैं और जो किसी भी तरह से हमारे सामने मुहैया हो जाती हैं या जो कम-से-कम साक्षात हैं, उससे इतर कुछ भी पाने के लिए तो चमत्कार का ही आसरा है न! पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही चमत्कार या अदृश्य शक्तियों की धारणाएं हमारी चेतना में इस कदर गहरे पैठी होती हैं कि तुरत-फुरत कुछ हासिल कर लेने की हसरत या एक छोटी नाकामी भी हमें बेबस या लाचार बना देती है। फिर शुरू होता है दिमागी काहिली का दौर, जो जिंदगी को आखिरकार चमत्कार के रहमोकरम पर ले जाकर छोड़ देता है।
और चमत्कारों या अदृश्य दुनिया के खयाल का तिजारत करने वाले लोग हमारी उसी बेबसी का शोषण करते हैं। हम बिल्कुल भरे-पूरे, हर तरह से खुद को सेहतमंद महसूस करेंगे, लेकिन ज्यों ही हमें बताया जाएगा कि 'स्वर्ग जाने वाली सीढ़ियां खोज ली गई हैं', हम तुरंत ही अपनी उस ख्वाबों की दुनिया में पहुंच जाते हैं जो हमारे दिमाग में सोच का एक हिस्सा बना बैठा होता है। 'मर्दखोर परियां' एकबारगी हमें जन्नत की हूरों के साथ फूलों की सेज पर ला पटकती हैं। सीता से जुड़ी जगहों को श्रीलंका में खोज लेने की खबर आती है और तत्काल हम खुद को 'तथास्तु' कहते हुए 'श्रीराम' के सामने पाते हैं। भूतों की लड़ाई की 'लाइव कवरेज', रावण की वायुसेना और हवाईअड्डों पर 'ब्रेकिंग न्यूज' हमारी कल्पनाओं की पुष्टि करते लगते हैं। कुछ समय पहले एलियंस 'धरती पर हमला' करने आ रहे थे। ये सारी बातें 'शोधकर्ताओं' के हवाले से कही जाती हैं, ताकि इन्हें ज्यादा से ज्यादा विश्वसनीय बनाया जा सके। शकुन-अपशकुन पर आधारित कर्मफल का ब्योरा देता ज्योतिषि केवल कमाई नहीं कर रहा होता है। वह खूब जान रहा होता है कि इन सबसे कैसे उसका वर्गहित कायम रहता है और सामाजिक शासन और शोषण-परंपरा की बुनियाद और मजबूत होती है।
हमारी त्रासदी केवल पंडे-तांत्रिक या मीडिया तक ही सीमित नहीं है। तल्ख हकीकतों से लबरेज 'सत्या' जैसी फिल्म बनाने वाले रामगोपाल वर्मा 'फूंक' बना कर यह खुली चुनौती पेश करते हैं कि अगर कोई थियेटर में अकेले इस फिल्म को देख लेगा तो उसे पांच लाख रुपए ईनाम के तौर पर दिए जाएंगे। 'फूंक' में भूत-प्रेत या भगवान में यकीन नहीं रखने वाले नायक के साथ-साथ विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान और एक प्रगतिशील सोच को हारते और 'काला जादू' को जीतते दिखाया गया है। यह हजारों सालों से 'काला जादू' की गिरफ्त में जीते समाज के भावनात्मक शोषण के अलावा और क्या है?
लेकिन बात अगर यहीं खत्म हो जाती तो बात और थी। विज्ञान की बुनियाद पर अपनी पहचान कायम करने वाले एक पूर्व राष्ट्रपति से लेकर इस देश के कई शीर्ष नेताओं तक को 'चमत्कारी बाबाओं' के पांव पखारने में शर्म के बजाय गर्व ही महसूस होता रहा है। मानव संसाधन विभाग (यह मंत्रालय देश में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार है) के एक पूर्व राज्यमंत्री ने तो बाकायदा ओझाओं-तांत्रिकों का सम्मेलन ही करा डाला था। हाल ही में एक विधायक ने एक बड़े आयोजन में 265 भेड़ों की बलि दी, क्योंकि परमाणु करार के मुद्दे में खतरे में पड़ी यूपीए सरकार 'किसी तरह' विश्वासमत में जीत सकी। कुछ विधायकों की उनके कार्यकाल में अलग-अलग कारणों से हुई मौत के चलते विधानसभा भवन को भूत-प्रेत से ग्रस्त मान लिया जाता है। यह महज संयोग नहीं है कि ज्योतिष शास्त्र को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाए जाने की वकालत सिर्फ इसलिए की जाती है क्योंकि यह भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। देश को नेतृत्व देने का दावा करने वाले ऐसे राजनेताओं को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इससे देश-समाज कितना पीछे जाता है या आधुनिक दुनिया में देश की कैसी छवि बनती है।
सवाल है कि अगर कोई तांत्रिक या व्यक्ति किसी बच्चे की बलि देता है तो उसके लिए कौन-सी स्थितियां जिम्मेदार हैं? सुना है कि कानून अपराध के लिए प्रेरित करने वाले को भी अपराधी ही मानता है। तांत्रिकों-ज्योतिषियों सहित ताजा फिल्में- 'फूंक' या '1920' जैसी फिल्में बनाने वाले ऐसे लोगों को क्या अंधविश्वासों और सामाजिक जड़ता को बनाए रखने का अपराधी नहीं माना जा सकता? इनके लिए कौन-सा कानून लागू होता है?
यह सब जवाहरलाल नेहरू के उस देश में हो रहा है, जो समाज को एक वैज्ञानिक सोच की जमीन पर खड़े होकर देखना चाहते थे।
हाल ही में एक अति पिछड़े माने जाने वाले समाज की एक सांस्कृतिक गतिविधि के साक्षात के दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि किस तरह करीब हजार लोगों की भीड़ के बीच भयानक उन्माद पैदा करते ओझाओं ने भेड़ों की बलि दी और उसके खून से खुद को नहाया। यह सुदूर देहात के एक पिछड़े इलाके की घटना है। लोग भूले नहीं होंगे कि सारी आधुनिकताओं से लैस देश की राजधानी के एक उपनगर गाजियाबाद में, जो संयोग से 'हाईटेक' भी घोषित हो चुका है, तीन बेटों ने अपनी मां की पीट-पीट कर इसलिए बलि दी क्योंकि एक तांत्रिक ने उन्हें ऐसा करने की सलाह दी थी। लेकिन विज्ञान की डिग्रियों की मार्फत इंजीनियर या डॉक्टर बने उन बेटों की मूढ़ता और त्रासदी पर हमक्या अफसोस जताएं। हमारे देश के अंतरिक्ष शोध संस्थान, यानी 'इसरो' का मुखिया जब पीएसएलवी जैसे अंतरिक्ष यानों के सफल प्रक्षेपण के लिए मंदिरों में पूजा आयोजित करता है और भगवान से खुद को कामयाब करने की याजना करता है तो एक पिछड़े समाज के सामने ओझाओं के उस उन्माद प्रदर्शन पर कौन-सा सवाल उठाया जाए?
दूरदराज के इलाकों में बहुत सारे मां-बाप अपने बच्चों की ओर आज भी यह जुमला उछालते हुए मिल जाएंगे कि 'देह बढ़ गया और दिमाग वहीं रह गया।' तो क्या हमारा समाज आधुनिकता की तमाम ऊंचाइयों को छूने की कोशिश के बावजूद अब भी किसी एक जगह पर ठहरा हुआ है? या उसे जड़ बनाए रखने की साजिश चल रही है? क्यों हम अब तक ऐसा कोई कारगर कानून बना सकने में नाकाम रहे हैं जो ओझाओं-तांत्रिकों, ग्रह-नक्षत्रों का पाठ पढ़ाने वाले ज्योतिषियों, चमत्कारों और अमूर्त दुनिया के किस्से परोसने वाले मीडिया आदि के ठगी के धंधे से समाज को बचा सकें?
इन सवालों के जवाब शायद विश्व हिंदू परिषद के 'अंतरराष्ट्रीय मुख्यमंत्री' रहे प्रवीण तोगड़िया के उस बयान में मिल जाते हैं, जो उन्होंने कुछ साल पहले गोलवलकर गुरु के सौंवे जन्म दिवस के मौके पर आयोजित 'विराट हिंदू सम्मेलन' में दिया था। महाराष्ट्र सरकार द्वारा लाए गए अंधविश्वास विरोधी कानून के मसले पर उनका कहना था कि हिंदुओं को इस कानून का विरोध करना चाहिए क्योंकि यह हिंदुत्व को खत्म करने की साजिश है। साफ है कि एक तरह से वे यह भी कर रहे थे कि हिंदुत्व की बुनियाद इन अंधविश्वासों पर ही टिकी है और अंधविश्वासों का खत्म होना, हिंदुत्व के खत्म होने जैसा ही होगा। और विहिप का 'हिंदुत्व' कया है, क्या यह किसी को बताना होगा?
यह केवल हिंदुओं के धर्म-ध्वजियों का खयाल नहीं है। सभी धर्म और मत के 'उन्नायक' यही कहते हैं कि सवाल नहीं उठाओ, जो धर्म कहता है, उसका अनुसरण करो। और हमारे भीतर का भय बाहर आने के लिए छटपटाते सारे सवालों की हत्या कर देता है। हमारी विडंबना यह है कि जिनसे हम सवाल उठाने की उम्मीद कर रहे होते हैं, वे खुद एक ऐसा मायावी लोक तैयार करने में लगे होते हैं, जहां कोई सवाल नहीं होता।
इसमें कोई शक नहीं कि देश-दुनिया से रूबरू कराने में टीवी चैनलों ने हर मुमकिन कोशिश की है। लेकिन असली मुश्किल यह है कि लगभग सारी प्रस्तुतियों में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो हमें घटनाओं के विश्लेषण की ताकत देता हो। हम देश-दुनिया को देखें, मगर उसी निगाह से, जिससे हमें दिखाया जाता है। तो क्या यह मीडिया की सीमा है कि वह कुछ 'नया' देने के नाम पर हमें और 'पुराना' बना रहा है? क्या मीडिया इस बात से अनजान है कि भूत-प्रेत, जादू-टोना, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष, प्रलय-चमत्कार से जुड़े किसी भी कार्यक्रम का एकमात्र असर सामाजिक यथास्थिति और जड़ता को कायम रखना है?
मकसद सिर्फ यह है कि समाज सोचने और सवाल उठाने के दौर में न पहुंचे। ऐसे कार्यक्रम परोसने वाले और ऐसी गतिविधियां चलाने वाले धर्मध्वजी यह खूब जानते हैं कि जिस समाज ने सवाल उठाना शुरू कर दिया, उनमें चमत्कारों और तकदीर बताने की दुकान बंद हो जाएगी। इसलिए दिमाग पर पड़े जाले बनाए रखने और नए-नए डिजाइन में नए जाले पेश करने का खेल जारी है। साधना या संस्कार जैसे चैनलों की तो बात छोड़ दें, प्रगतिशील कहे जाने वाले समाचार चैनलों के साथ-साथ इस खेल में हर वह तबका शामिल है, जो दुनिया को दिशा देने का दावा करता है।
कुछ ही समय पहले एक टीवी चैनल के मुखिया ने इस तरह के पाखंडों वाले कार्यक्रम दिखाने के मसले पर साफ जवाब दिया कि मुझे इस बात के लिए कतई शर्मिंदगी नहीं है। शायद वे सही कह रहे थे। इससे इतना तो जाहिर होता ही है कि जो कुछ हो रहा है, वह अनायास बिल्कुल नहीं है। एक सजग और सचेत समाज केवल यह नहीं देखेगा कि 'क्या' है, बल्कि वह उस 'क्या' के 'क्यों' की भी मांग या खोज करेगा। लेकिन सिर्फ 'क्या' परोस कर 'क्यों' का सवाल सिरे से गायब कर देने की कोशिश लगातार और सायास तरीके से चल रही है।
तंत्र-मंत्र और रूहानी इल्म के माहिर/ खुला चैलेंज/ लाभ 100 प्रतिशत/ 20 मिनट में गारंटी कार्ड के साथ/ जैसा चाहोगे, वैसा होगा/ माई प्रॉमिस/
नोट- अगर आपका विश्वास किसी ज्योतिष, पंडित-बाबा, मियां-मुल्ला, तांत्रिक से उठ गया हो तो एक बार अवश्य मिलें
मनचाहा वशीकरण स्पेशलिस्ट
कारोबार में रुकावट, बंदिश, गृह-क्लेश, मियां-बीवी के झगड़े, तलाक, दुश्मन और सौतन से छुटकारा, कर्ज मुक्ति, संतानहीनता, कोख बंधन, मुठकरनी, विदेश यात्रा, लव-मैरिज, फिल्मी और मॉडलिंग कैरियर में रुकावट जैसी जीवन की जटिल समस्याओं का समाधान।
चेतावनीः मेरे किए को काटने वाले को 1,51,000 रुपए ईनाम।
सभी इल्मों की काट हमारे पास है।
-प्यार में चोट खाए स्त्री एवं पुरुष एक बार अवश्य मिलें।
-एक अगरबत्ती का पैकेट दो नींबू साथ लाएं।
रुहानी और सातों इल्मों के बेताज बादशाह। वर्ल्ड फेमस
- सिद्ध गुरू अकबर भारती या समीरजी (बंगाली)
नगर सेवा की बसों, सड़क के किनारे या पेशाबखानों की दीवारों जैसी जगहों पर चिपकाए गए 'गुप्त रोगों का शर्तिया इलाज' की तरह के ऐसे विज्ञापनों पर एक 'पढ़े-लिखे' और 'सभ्य' व्यक्ति होने के नाते हमारी क्या प्रतिक्रिया होती है? हम मुंह बिचकाते हैं, ऐसा विज्ञापन करने वालों को ठग और मक्कार कहते हैं और उनके पास जाने वाले लोगों को मूर्ख मानते हैं। अगर हम ऐसा विज्ञापन करने वाले ठगों और मक्कारों को अपराधी की तरह देखते हैं या उनके खिलाफ हमारे भीतर नफरत के भाव पैदा होते हैं तो शायद यह गलत नहीं है।
ऐसी राय रखने वाले हम सब आमतौर पर बहुत अच्छी शिक्षा प्राप्त, बहुत अच्छी और साफ-सुथरी जीवनशैली वाले, सूटेड-बूटेड टाईयुक्त कपड़े पहनने वाले और अपनी पहुंच के लगभग सभी आधुनिक उपकरणों-संसाधनों का इस्तेमाल करने वाले होते हैं। वैसे विज्ञापनों पर ऐसे 'सभ्य, शिक्षित और विकसित' समाज का हिस्सा होने के नाते हमारी इस तरह की प्रतिक्रिया के बाद हम अपनी 'सभ्यता' और 'सामाजिक ऊंचाई' में थोड़ा और इजाफा होता हुआ महसूस करते हैं।
और जब समूचे समाज और उसकी सभ्यता को 'दिशा' देने वाले मीडिया को भी हम कुछ इसी तरह का या इससे भी ज्यादा असरदार तरीके से ऐसा ही काम करते हुए देखते हैं, तब हमारी क्या प्रतिक्रिया होती है? जब हम टीवी पर सूटेड-बूटेड टाईयुक्त और 'सभ्यता की पराकाष्ठा' पर पहुंचे हुए लोगों को लगभग चिल्ला कर यह कहते हुए देखते-सुनते हैं कि 'प्रलय... अब धरती बस खत्म होने वाली है' तो हमारे भीतर कौन-से भाव पैदा होते हैं? उस वक्त क्या हमें सड़क के किनारे या पेशाबखानों की दीवारों पर चिपकाए हुए वे विज्ञापन याद आते हैं? क्या ऐसे विज्ञापन करने वालों की मक्कारी और 'समस्याओं से मुक्ति' के लिए उन जगहों पर जाने वाले लोगों की मूर्खता याद आती है?
शायद नहीं। गहरे सम्मोहन के उस दौर की गुलामी की बात ही निराली है। उदयपुर के राकेश और राजग़ढ़ की छाया ने जो किया, उसी सम्मोहन के उन्माद का चरम है, जिसमें झूमते हुए तो बहुत सारे लोगों को देखा जा सकता है, लेकिन 'अंत' से पहले खुद को खत्म कर लेना सबके लिए मुमकिन नहीं होता। हां, 'जिंदा' रहते हुए मौत की चाहे जितनी पीड़ा वे झेल लें।
एक टीवी चैनल पर ज्योतिष संबंधी कार्यक्रम देखने के बाद राकेश ने एक कागज पर लिखा- 'कार्यक्रम को देख कर मुझे लगा कि मैं गलत ग्रह-नक्षत्र में पैदा हुआ हूं और इस वजह से मैं काफी परेशान हूं।' इसके बाद उदयपुर के बीएन कॉलेज में स्नातक प्रथम वर्ष के उस छात्र ने गले में फंदा लगा कर जान दे दी। इसी तरह एक ओर 'बिग बैंग' की सच्चाई की खोज में विज्ञान अब तक के सबसे बड़े प्रयोग की तैयार कर रहा था और टीवी चैनल इस प्रयोग के साथ ही 'धरती के अंत' की मुनादी कर रहे थे। पर्दे पर चीखते-चिल्लाते कुछ सूटे़ड-बूटेड टाईयुक्त पत्रकारनुमा लोग डरावने जंगल के वीराने या मौत के खौफ से आच्छादित श्मशान कब्रिस्तान के अघोड़ियों या तांत्रिकों से कम नहीं लग रहे थे। उससे पैदा होने वाली उत्तेजना में छाया ने तो कीटनाशक की दवा खाकर जान दे दी (मरने से पहले उसने पुलिस को बयान भी दिया), लेकिन हजारो-लाखों जानते हैं कि उस पूरे दौर में वे किस तरह तिल-तिल कर मरने के अहसास से गुजरते रहे।
कुछ समय पहले विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार के लिए काम करने वाली संस्था 'स्पेस' ने इस बात पर गहरा क्षोभ जताया था कि विज्ञान के जिन आविष्कारों का इस्तेमाल अंधविश्वासों के जाले साफ करने में किया जाना चाहिए, उसी का सहारा लेकर आदमी को और अंधा बनाया जा रहा है। सवाल है कि विज्ञान के कंधों पर सवार ये आधुनिक और विकसित-से दिखने वाले 'प्राणी' ऐसा क्यों कर रहे हैं?
दरअसल, जब अक्ल को केवल तिजारत का हथियार बना लिया जाता है तो सारी नैतिकताएं पीछे छूट जाती हैं। अगर बात केवल टीवी चैनलों की करें तो जैसा कि कभी-कभी अंदाजा लगाया जाता है, खेल क्या केवल टीआरपी बढ़ाने का है? एक मकसद यह जरूर है। मगर यह सिर्फ दिखाई देने वाला व्यापार है। इसके पीछे जो महीन और शातिर मिजाज काम कर रहा होता है, एकबारगी उस पर यकीन होना मुश्किल है। लेकिन किसी भी गतिविधि को उसके असर की गहराई की बुनियाद पर आंका जाना चाहिए।
कई बार लगता है कि जादू-टोना और झाड़-फूंक के चमत्कार से मन की साध पूरी कराने का दावा करने वाले ओझाओं और टीवी चैनलों या अखबार में इस तरह की खुराक परोसने वाले संचालक एक ही पायदान पर खड़े हैं और उन्हें समाज के मनोविज्ञान की गहरी समझ होती है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति या समाज का मनोविज्ञान उसका सांस्कृतिक परिवेश तैयार करता है। अनंत ब्रह्मांड में सैर करती हमारी कल्पनाएं और जीवन की सीमाओं के बीच झूलती उम्मीदें और मायूसियां। जिन चीजों तक हमारी पहुंच होती हैं और जो किसी भी तरह से हमारे सामने मुहैया हो जाती हैं या जो कम-से-कम साक्षात हैं, उससे इतर कुछ भी पाने के लिए तो चमत्कार का ही आसरा है न! पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही चमत्कार या अदृश्य शक्तियों की धारणाएं हमारी चेतना में इस कदर गहरे पैठी होती हैं कि तुरत-फुरत कुछ हासिल कर लेने की हसरत या एक छोटी नाकामी भी हमें बेबस या लाचार बना देती है। फिर शुरू होता है दिमागी काहिली का दौर, जो जिंदगी को आखिरकार चमत्कार के रहमोकरम पर ले जाकर छोड़ देता है।
और चमत्कारों या अदृश्य दुनिया के खयाल का तिजारत करने वाले लोग हमारी उसी बेबसी का शोषण करते हैं। हम बिल्कुल भरे-पूरे, हर तरह से खुद को सेहतमंद महसूस करेंगे, लेकिन ज्यों ही हमें बताया जाएगा कि 'स्वर्ग जाने वाली सीढ़ियां खोज ली गई हैं', हम तुरंत ही अपनी उस ख्वाबों की दुनिया में पहुंच जाते हैं जो हमारे दिमाग में सोच का एक हिस्सा बना बैठा होता है। 'मर्दखोर परियां' एकबारगी हमें जन्नत की हूरों के साथ फूलों की सेज पर ला पटकती हैं। सीता से जुड़ी जगहों को श्रीलंका में खोज लेने की खबर आती है और तत्काल हम खुद को 'तथास्तु' कहते हुए 'श्रीराम' के सामने पाते हैं। भूतों की लड़ाई की 'लाइव कवरेज', रावण की वायुसेना और हवाईअड्डों पर 'ब्रेकिंग न्यूज' हमारी कल्पनाओं की पुष्टि करते लगते हैं। कुछ समय पहले एलियंस 'धरती पर हमला' करने आ रहे थे। ये सारी बातें 'शोधकर्ताओं' के हवाले से कही जाती हैं, ताकि इन्हें ज्यादा से ज्यादा विश्वसनीय बनाया जा सके। शकुन-अपशकुन पर आधारित कर्मफल का ब्योरा देता ज्योतिषि केवल कमाई नहीं कर रहा होता है। वह खूब जान रहा होता है कि इन सबसे कैसे उसका वर्गहित कायम रहता है और सामाजिक शासन और शोषण-परंपरा की बुनियाद और मजबूत होती है।
हमारी त्रासदी केवल पंडे-तांत्रिक या मीडिया तक ही सीमित नहीं है। तल्ख हकीकतों से लबरेज 'सत्या' जैसी फिल्म बनाने वाले रामगोपाल वर्मा 'फूंक' बना कर यह खुली चुनौती पेश करते हैं कि अगर कोई थियेटर में अकेले इस फिल्म को देख लेगा तो उसे पांच लाख रुपए ईनाम के तौर पर दिए जाएंगे। 'फूंक' में भूत-प्रेत या भगवान में यकीन नहीं रखने वाले नायक के साथ-साथ विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान और एक प्रगतिशील सोच को हारते और 'काला जादू' को जीतते दिखाया गया है। यह हजारों सालों से 'काला जादू' की गिरफ्त में जीते समाज के भावनात्मक शोषण के अलावा और क्या है?
लेकिन बात अगर यहीं खत्म हो जाती तो बात और थी। विज्ञान की बुनियाद पर अपनी पहचान कायम करने वाले एक पूर्व राष्ट्रपति से लेकर इस देश के कई शीर्ष नेताओं तक को 'चमत्कारी बाबाओं' के पांव पखारने में शर्म के बजाय गर्व ही महसूस होता रहा है। मानव संसाधन विभाग (यह मंत्रालय देश में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार है) के एक पूर्व राज्यमंत्री ने तो बाकायदा ओझाओं-तांत्रिकों का सम्मेलन ही करा डाला था। हाल ही में एक विधायक ने एक बड़े आयोजन में 265 भेड़ों की बलि दी, क्योंकि परमाणु करार के मुद्दे में खतरे में पड़ी यूपीए सरकार 'किसी तरह' विश्वासमत में जीत सकी। कुछ विधायकों की उनके कार्यकाल में अलग-अलग कारणों से हुई मौत के चलते विधानसभा भवन को भूत-प्रेत से ग्रस्त मान लिया जाता है। यह महज संयोग नहीं है कि ज्योतिष शास्त्र को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाए जाने की वकालत सिर्फ इसलिए की जाती है क्योंकि यह भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। देश को नेतृत्व देने का दावा करने वाले ऐसे राजनेताओं को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इससे देश-समाज कितना पीछे जाता है या आधुनिक दुनिया में देश की कैसी छवि बनती है।
सवाल है कि अगर कोई तांत्रिक या व्यक्ति किसी बच्चे की बलि देता है तो उसके लिए कौन-सी स्थितियां जिम्मेदार हैं? सुना है कि कानून अपराध के लिए प्रेरित करने वाले को भी अपराधी ही मानता है। तांत्रिकों-ज्योतिषियों सहित ताजा फिल्में- 'फूंक' या '1920' जैसी फिल्में बनाने वाले ऐसे लोगों को क्या अंधविश्वासों और सामाजिक जड़ता को बनाए रखने का अपराधी नहीं माना जा सकता? इनके लिए कौन-सा कानून लागू होता है?
यह सब जवाहरलाल नेहरू के उस देश में हो रहा है, जो समाज को एक वैज्ञानिक सोच की जमीन पर खड़े होकर देखना चाहते थे।
हाल ही में एक अति पिछड़े माने जाने वाले समाज की एक सांस्कृतिक गतिविधि के साक्षात के दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि किस तरह करीब हजार लोगों की भीड़ के बीच भयानक उन्माद पैदा करते ओझाओं ने भेड़ों की बलि दी और उसके खून से खुद को नहाया। यह सुदूर देहात के एक पिछड़े इलाके की घटना है। लोग भूले नहीं होंगे कि सारी आधुनिकताओं से लैस देश की राजधानी के एक उपनगर गाजियाबाद में, जो संयोग से 'हाईटेक' भी घोषित हो चुका है, तीन बेटों ने अपनी मां की पीट-पीट कर इसलिए बलि दी क्योंकि एक तांत्रिक ने उन्हें ऐसा करने की सलाह दी थी। लेकिन विज्ञान की डिग्रियों की मार्फत इंजीनियर या डॉक्टर बने उन बेटों की मूढ़ता और त्रासदी पर हमक्या अफसोस जताएं। हमारे देश के अंतरिक्ष शोध संस्थान, यानी 'इसरो' का मुखिया जब पीएसएलवी जैसे अंतरिक्ष यानों के सफल प्रक्षेपण के लिए मंदिरों में पूजा आयोजित करता है और भगवान से खुद को कामयाब करने की याजना करता है तो एक पिछड़े समाज के सामने ओझाओं के उस उन्माद प्रदर्शन पर कौन-सा सवाल उठाया जाए?
दूरदराज के इलाकों में बहुत सारे मां-बाप अपने बच्चों की ओर आज भी यह जुमला उछालते हुए मिल जाएंगे कि 'देह बढ़ गया और दिमाग वहीं रह गया।' तो क्या हमारा समाज आधुनिकता की तमाम ऊंचाइयों को छूने की कोशिश के बावजूद अब भी किसी एक जगह पर ठहरा हुआ है? या उसे जड़ बनाए रखने की साजिश चल रही है? क्यों हम अब तक ऐसा कोई कारगर कानून बना सकने में नाकाम रहे हैं जो ओझाओं-तांत्रिकों, ग्रह-नक्षत्रों का पाठ पढ़ाने वाले ज्योतिषियों, चमत्कारों और अमूर्त दुनिया के किस्से परोसने वाले मीडिया आदि के ठगी के धंधे से समाज को बचा सकें?
इन सवालों के जवाब शायद विश्व हिंदू परिषद के 'अंतरराष्ट्रीय मुख्यमंत्री' रहे प्रवीण तोगड़िया के उस बयान में मिल जाते हैं, जो उन्होंने कुछ साल पहले गोलवलकर गुरु के सौंवे जन्म दिवस के मौके पर आयोजित 'विराट हिंदू सम्मेलन' में दिया था। महाराष्ट्र सरकार द्वारा लाए गए अंधविश्वास विरोधी कानून के मसले पर उनका कहना था कि हिंदुओं को इस कानून का विरोध करना चाहिए क्योंकि यह हिंदुत्व को खत्म करने की साजिश है। साफ है कि एक तरह से वे यह भी कर रहे थे कि हिंदुत्व की बुनियाद इन अंधविश्वासों पर ही टिकी है और अंधविश्वासों का खत्म होना, हिंदुत्व के खत्म होने जैसा ही होगा। और विहिप का 'हिंदुत्व' कया है, क्या यह किसी को बताना होगा?
यह केवल हिंदुओं के धर्म-ध्वजियों का खयाल नहीं है। सभी धर्म और मत के 'उन्नायक' यही कहते हैं कि सवाल नहीं उठाओ, जो धर्म कहता है, उसका अनुसरण करो। और हमारे भीतर का भय बाहर आने के लिए छटपटाते सारे सवालों की हत्या कर देता है। हमारी विडंबना यह है कि जिनसे हम सवाल उठाने की उम्मीद कर रहे होते हैं, वे खुद एक ऐसा मायावी लोक तैयार करने में लगे होते हैं, जहां कोई सवाल नहीं होता।
इसमें कोई शक नहीं कि देश-दुनिया से रूबरू कराने में टीवी चैनलों ने हर मुमकिन कोशिश की है। लेकिन असली मुश्किल यह है कि लगभग सारी प्रस्तुतियों में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो हमें घटनाओं के विश्लेषण की ताकत देता हो। हम देश-दुनिया को देखें, मगर उसी निगाह से, जिससे हमें दिखाया जाता है। तो क्या यह मीडिया की सीमा है कि वह कुछ 'नया' देने के नाम पर हमें और 'पुराना' बना रहा है? क्या मीडिया इस बात से अनजान है कि भूत-प्रेत, जादू-टोना, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष, प्रलय-चमत्कार से जुड़े किसी भी कार्यक्रम का एकमात्र असर सामाजिक यथास्थिति और जड़ता को कायम रखना है?
मकसद सिर्फ यह है कि समाज सोचने और सवाल उठाने के दौर में न पहुंचे। ऐसे कार्यक्रम परोसने वाले और ऐसी गतिविधियां चलाने वाले धर्मध्वजी यह खूब जानते हैं कि जिस समाज ने सवाल उठाना शुरू कर दिया, उनमें चमत्कारों और तकदीर बताने की दुकान बंद हो जाएगी। इसलिए दिमाग पर पड़े जाले बनाए रखने और नए-नए डिजाइन में नए जाले पेश करने का खेल जारी है। साधना या संस्कार जैसे चैनलों की तो बात छोड़ दें, प्रगतिशील कहे जाने वाले समाचार चैनलों के साथ-साथ इस खेल में हर वह तबका शामिल है, जो दुनिया को दिशा देने का दावा करता है।
कुछ ही समय पहले एक टीवी चैनल के मुखिया ने इस तरह के पाखंडों वाले कार्यक्रम दिखाने के मसले पर साफ जवाब दिया कि मुझे इस बात के लिए कतई शर्मिंदगी नहीं है। शायद वे सही कह रहे थे। इससे इतना तो जाहिर होता ही है कि जो कुछ हो रहा है, वह अनायास बिल्कुल नहीं है। एक सजग और सचेत समाज केवल यह नहीं देखेगा कि 'क्या' है, बल्कि वह उस 'क्या' के 'क्यों' की भी मांग या खोज करेगा। लेकिन सिर्फ 'क्या' परोस कर 'क्यों' का सवाल सिरे से गायब कर देने की कोशिश लगातार और सायास तरीके से चल रही है।
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