ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

मंगलवार, अप्रैल 26, 2011

सीमा आजाद की रिहाई के लिए तेज हुआ अभियान

 अंबरीश कुमार
लखनऊ, 25 अप्रैल। माओवादियों का समर्थक होने के आरोप में उम्रकैद की सजा पाए विनायक सेन को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बाद उत्तर प्रदेश में पत्रकार व मानवाधिकार संगठनों ने पत्रकार सीमा आजाद की रिहाई के लिए भी अभियान तेज कर दिया है। पीयूसीएल ,जन संघर्ष मोर्चा के साथ संघर्ष वाहिनी मंच ने भी सीमा आजाद की रिहाई की मांग की है । कल सुप्रीम कोर्ट में सीमा आजाद के मामले की सुनवाई है । जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) ने सुप्रीम कोर्ट के हाल ही में दिए गए फैसले के आधार पर सीमा आजाद को तुरंत रिहा करने की मांग की है। संगठन ने सीमा आजाद की रिहाई के लिए अभियान शुरू करने का निर्णय लिया है। उधर विनायक सेन ने भी सीमा आजाद की रिहाई के लिए संघर्ष की अपील की है। जन संगठन विनायक सेन की सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बाद सीमा आजाद की गिरफ्तारी को अवैध बता रहे है । हालाँकि क़ानूनी जानकार इसस सहमत नही है । इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के वरिष्ठ वकील सतीश शुक्ल ने कहा -सीमा के मामले में जब तक सक्षम अदालत का कोई सक्षम आदेश नहीं आ जाता तब तक गिरफ्तारी अवैध नही कही जा सकती भले ऐसे ही मामले म सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चूका हो ।
इस बीच जेयूसीएस की तरफ से सीमा आजाद की रिहाई के लिए जारी अपील में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट से विनायक सेन को जमानत मिलने के बाद माओवादी होने के आरोप में बंद तमाम राजनैतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच एक उम्मीद जगी है। विनायक सेन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो वजह बताई है, वह नई नही है । पर हैरत की बात तो ये है कि विनायक सेन को एक तरफ सुप्रीम कोर्ट जमानत दे देती है, पर वहीं माओवादी साहित्य रखने के आरोप में बंद सीमा आजाद को जमानत नहीं मिल पाती। विनायक के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने निचली और उच्च अदालतों के फैसलों के निराशा को आशा में बदल दिया था, पर सीमा आजाद के मामले में ऐसा नहीं हो सका।
दरअसल सीमा आजाद भी उसी मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की उत्तर प्रदेश संगठन सचिव हैं, जिसके विनायक सेन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। इलाहाबाद से 'दस्तक' नाम की पत्रिका निकालने वाली पत्रकार सीमा आजाद को पिछले साल पांच फरवरी को इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। उनके साथ उनके पति व राजनैतिक कार्यकर्ता विश्वविजय भी थे। दो दिनों तक अवैध रूप से हिरासत में रखने के बाद सात फरवरी को उनकी गिरफ्तारी दिखाई गई। पुलिस ने जो उन पर आरोप लगाए, वह हास्यास्पद हैं। उनके पास से बड़ी मात्रा में माओवादी साहित्य और पर्चे बरामद होना बताया गया, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाल के फैसले में कहा कि 'जैसे कोई गांधी की किताब रखने से ही गांधीवादी नहीं हो जाता, उसी तरह नक्सली साहित्य रखने से कोई नक्सली नहीं हो जाता।' कोर्ट ने तो एक कदम आगे बढ़कर यह भी साफ कर दिया कि नक्सलियों से सहानुभूति रखना कोई देशद्रोह नहीं है।
भारत की विभिन्न जेलों में कई सारे लोग ऐसे ही आरोपों में बंद हैं, जिसमें उन्हें या तो प्रतिबंधित संगठनों का सिंपेथाइजर बताया गया है या उसका सदस्य। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने अवनी भुइंया के मामले में कहा था कि किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना तब तक काई अपराध नहीं जब तक वह व्यक्ति किसी तोड़-फोड़ जैसी गतिविधि में प्रत्यक्ष रूप से शामिल न हो।' अदालतों के ये फैसले सीमा आजाद और उन जैसे अन्य बंदियों को न्याय दिलाने के लिए काफी हैं। हालांकि न्यायपालिकाएं भी राजनैतिक दबावों से मुक्त नहीं हैं इसलिए उनके फैसले एक मामले में अलग, तो दूसरे में अलग भी हो सकते हैं।
संगठन ने कहा है कि लोकतांत्रिक देश और मुक्त मीडिया के बारे यह कहा जाना कि वह सच बोलने के लिए आजाद है , वह सीमा आजाद और अन्य पत्रकारों की गिरफ्तारियों से बेनकाब हो चुका है। मुक्त मीडिया वाले इस देश में सच बोलने के आरोप में कई पत्रकार सलाखों के पीछे हैं। वह चाहे उत्तराखंड में स्टेट्समैन के संवाददाता प्रशांत राही हों या महाराष्ट्र से विद्रोही नाम की पत्रिका निकालने वाले सुधीर धवले हों, सरकार के खिलाफ बोलने की सजा के रूप में उन्हें माओवादी बताकर बंद कर दिया गया। यह हास्यास्पद ही है कि एक तरफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जुमला रटा जाता है, राडिया-मीडिया गठजोड़ और पेडन्यूज पर आंसू बहाए जाते हैं, तो दूसरी तरफ साफ और खरी-खरी बोलने वाले पत्रकारों को जेलों में ठूंस दिया जा रहा है।
जेयूसीएस का मानना है कि इन सब के खिलाफ एक बेहतर समाज और उसमें स्वतंत्र मीडिया की लड़ाई सीमा आजाद जैसे पत्रकारों के बिना नहीं लड़ी जा सकती। संगठन ने दुख व्यक्त करते हुए कहा कि विनायक सेन पर मुखर होकर बोलने वाली मीडिया में अपने ही पत्रकार साथियों के लिए कोई हलचल नहीं है। दरअसल, कथित मुख्यधारा की मीडिया विनायक सेन पर भी इसलिए बोलती है, क्योंकि वह पहले से ही उनको एक सेलिब्रिटि के रूप में स्थापित कर चुकी है। विनायक सेन और सीमा आजाद के एक ही संगठनों से जुड़े होने के बाद मीडिया में दोनों के साथ दोहरा बरताव किया जाता है तो हमें जिसके खिलाफ भी लड़ने की जरुरत है। इस बीच पीयूसीएल के सचिव चितरंजन सिंह ने कहा - विनायक सेन और सीमा के मामले में राष्ट्रीय बहस की जरुरत है और हम इसे शुरू कर रहे है ।
(साभार-जनसत्ता)

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