ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

मंगलवार, अप्रैल 05, 2011

बेअसर होते शब्द


ऋषि कुमार सिंह
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित
सबसे पहले और सबसे ज्यादा असरदार होने की कोशिश में जनसंचार माध्यमों में सटीकता का संकट पैदा हो रहा है। भाषायी आक्रामकता से लेकर अयोग्य शब्द-चयन की कमियां साफ तौर पर देखी जा सकती है। गौरतलब है कि संचार एक यांत्रिक प्रक्रिया है। जिसके जरिए मानवीय संवेदनाओं और विचारों को संदेश के रूप में पूरी तरह समेट पाना असंभव है। इसलिए कुशल शब्द-चयन के जरिए ही संदेश को अधिकतम स्तर तक सटीक बनाया जाता है। चूंकि हरेक शब्द की अपनी ध्वनि और प्रभाव क्षमता होती है। लिहाजा कोई सूचना,संदेश के रूप में तभी सटीक हो सकती है,जब शब्द की ध्वनि और संदेश के उद्देश्य में अंतर कम से कम रहे। लेकिन आज जनसंचार माध्यमों में सूचना की स्पष्टता पर अलंकारिता और आक्रामकता हावी है। अनावश्यक विशेषण या एक ही शब्द के बार-बार प्रयोग की गलती आम है।
उदाहरण के तौर पर ‘कहर’ शब्द का कुछ इसी तरह हो रहा है। सुनामी का कहर, सूर्य का कहर,आंधी का कहर, शनि का कहर, बाढ़ का कहर, कोहरे का कहर, बाईकर्स गैंग का कहर, बीमारी का कहर, धोनी का कहर, मेंडिस का कहर, ब्लू लाइन का कहर,ससुराल का कहर, आतंकियों का कहर, डेंगु का कहर, कार का कहर, बारिश का कहर, तूफान का कहर, गुस्ताव(अमेरिका में आया तूफान) का कहर,कोसी का कहर,शिव सैनिकों का कहर जैसे शब्द-संयोजन खबरिया टीवी चैनल और अखबारों में कभी भी देखे जा सकते हैं। भूकंप और उसके बाद की सुनामी को ‘कहर’ के स्तर की आपदा मानने में कोई दिक्कत नहीं है,लेकिन जाड़े के मौसम में कोहरे से हवाई,रेल या सड़क यातायात पर पड़े नकारात्मक प्रभाव को ‘कहर’ कहने में अर्थ की सटीकता का संकट छिपा है। सुनामी या तूफान से लाखों लोग प्रभावित होते हैं,तब ‘कहर’ शब्द घटना की व्यापकता को बताने के लिहाज से उचित है,लेकिन जब ब्लूलाइन बस से होने वाले हादसे को ‘कहर’ कहा जाता है,तो मकसद महज डराने तक सिमटता हुआ नजर आता है। वैसे तो खबरिया चैनलों ने दुर्घटनाओं को ‘कहर’ घोषित करने की प्रथा सी बना ली गई है। हालांकि विजुअल मीडियम तस्वीरों के सहारे इस संकट से निपटने में सक्षम है, जबकि प्रिंट मीडियम में यह लापरवाही पाठकों के लिए मुसीबत बनती है। ‘धूम’ शब्द के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। जहां भी हर्षोल्लास या खुशी जतानी होती है,वहां इसका जिक्र कर लिया जाता है। मान लिया जाता है कि हर बार पाठक या दर्शक इसका अर्थ लगा लेगा। लेकिन खुशियों के कई ऐसे मौके होते हैं,जो क्षेत्रीय या सीमित प्रभाव के होते हैं। अब जो दर्शक या पाठक इस परिधि से बाहर होंगे वे ‘धूम’ शब्द के जरिए पैदा हुए उत्साह के चरम को शायद ही महसूस कर सकें। आक्रामक शब्दों और दृश्यों के इस्तेमाल ने सामान्य और असामान्य घटना के फर्क को सीमित किया है। जैसे लगातार शोर-गुल से शोर को सहने की आदत बन जाती है,कभी शोर बढ़ने पर यह जिज्ञासा ही जन्म नहीं लेती है कि कहीं कुछ असामान्य हुआ है। पूरे मसले को एक और उदाहरण से समझ सकते हैं। धारावाहिक में सास-बहूओं के झगड़ने, मारने पीटने और चीखने-रोने की घटनाओं दृश्यों की भरमार होती है। ऐसे में अगर पड़ोसी के घर वाकई इस तरह की घटनाएं हो रही है और चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही हैं,तो यह समझने में देर लगती है कि सचमुच ऐसा कुछ हो रहा है। टीवी सीरियल की आवाज का हिस्सा मानकर लोगबाग ऐसी घटनाओं से उदासीनता दिखाते हैं। परिणाम है कि दिनदहाड़े हत्याएं हो जाती हैं,बहू-बेटियां जला दी जाती हैं,लेकिन उनकी चीखों से पड़ोसी तक अंजान रहते हैं।
किसी घटना के ब्यौरे के आधार पर पाठक या दर्शक अपने दिमाग में छवि पैदा करता है। लेकिन जब अतिश्योक्ति की जाती है,तो दर्शक या पाठक को अपनी छवि बनाने की क्षमता का बेजा इस्तेमाल करना पड़ता है। ऐसा बार-बार होने की दशा में दो तरीके का असर सामने आता है। पहला, व्यक्ति डर सकता है। दूसरा,न डरने की स्थिति में व्यक्ति ऐसे ब्यौरों से उदासीन हो सकता है। मानवीय संबंधों के मद्देनजर डर और उदासीनता की स्थितियों को जायज नहीं माना जा सकता है,क्योंकि ऐसे माहौल में सामाजिक सुरक्षा की सफल तरकीबें भी असफल होने लगती है। अपराध होता देखकर लोगों का मदद के लिए सामने न आना इन्हीं दोनों स्थितियों के बीच की कहानी है। आज छोटे-मोटे अपराधों में बढोत्तरी देखी जा रही है।
डर और उदासीनता के संकट के बावजूद जनसंचार माध्यमों की आक्रामक प्रस्तुतियां जारी हैं। जिसने जनमानस की सामाजिक संवेदनाओं और कोमलताओं पर नकारात्मक चोट की है। इससे समाज के क्रूर होने का खतरा पैदा हुआ है। हालांकि पूरा मामला जनसंचार माध्यमों के पीछे काम कर रही पूंजी के आक्रामक होने का है। जिसके व्यापार का सूत्र-वाक्य केवल और केवल मुनाफा उगाही है। ऐसे में जनसंचार माध्यमों पर जिम्मेदारी है कि वे खुद को संवेदनाओं और कोमलताओं के सहारे पैदा हुए व्यापार से अलग करते हुए सामाजिक जिम्मेदारी के तहत काम करें। ताकि मानवता बोध के दायरे में समाज को संगठित बनाने का प्रयास सफल हो सके।

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