डेली न्यूज एक्टिविस्ट में प्रकाशित, ०९ अप्रैल 2011
राजनीति जनजीवन में सकारात्मक बदलावों का पर्याय है। जनमानस राजनीति में अपनी भलाई पाता है और उसके साथ खड़ा होता है। लेकिन वर्तमान राजनीतिक का बड़ा दायरा जनविश्वास और जनहित के मोर्चे पर नकारात्मक साबित हो रहा है। जबकि विज्ञापनों के जरिये चीजों को जबरिया सकारात्मक साबित किया जा रहा है। विज्ञापित बेहतरी और जमीनी सच्चाई में बढ़ते अंतर ने पूरी राजव्यवस्था को संदिग्ध बनाया है। मतदान के जरिए सत्ता-परिवर्तन नहीं बल्कि सत्ता-हस्तांतरण हो रहा है। जनता भी इस बात को बखूबी समझती है,यही वजह है कि चुनावों में मतदान बहिष्कार घटनाओं में इजाफा हो रहा है। देश की राजनीति भले ही दावा करे कि वह मूल उद्देश्य से नहीं भटकी है,लेकिन जब संस्थानिक या सामूहिक रूप में राजनीति के प्रकटीकरण का आकलन करते हैं,तो स्थितियां निराश करती हैं। वादों और आकांक्षाओं पर खरे उतरने की राजनीति का असर गायब है। सरकार किसी की भी हो, पुलिसवाला उसी लहजे और बदतमीजी से पेश आता है,जैसे पहले आता था। थानेदार
या दारोगा वैसे ही गालियों से स्वागत करता है,जैसा पहले करता था। किसी ऑफिस का क्लर्क अपने पान के खाने और काम को टरकाने का काम वैसे ही करता है,जैस पहले करता था। कह सकते हैं कि व्यवस्था या तंत्र राजनीतिक शीर्ष के बदलावों से अपने को अलग मानकर व्यवहार करता है। राजनीति में सादगी, व्यक्तिगत ईमानदारी और जनपक्षधरता का दावा करने वाले नेता मौजूद हैं। बावजूद ऐसे हालात पैदा हो रहे हैं,जिनकी कल तक कल्पना नहीं की जा सकती थी। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार का दूसरा कार्यकाल है। बहुप्रचारित तथ्य है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार छवि वाले नेता हैं। अब सवाल यही उठता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ईमानदारी का उनके मंत्रिमंडल पर कितना असर है केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पी.जे.थॉमस की नियुक्ति को गलत करार दिये जाने के बाद प्रधानमंत्री ने अपनी गलती स्वीकार की है। इससे पहले टूजी
स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में वे कह चुके हैं कि मैं उतना दोषी नहीं हूं,जितना मुझे ठहराया जा रहा है। यानी वे खुद को दोषी मानते हैं। विकीलीक्स बेवसाइट के जरिए आरोप लगा है कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पहली सरकार को बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त की गई थी। ऐसा हुआ या नहीं,यह जांच का विषय है। लेकिन प्रधानमंत्री की तरफ से यह तर्क कि यह चौदहवीं लोकसभा का मामला है,तर्क से ज्यादा कुतर्क लगता है। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले के बावत प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि सीजर की पत्नी संदेह से परे होनी चाहिए। मामले का महत्वपूर्ण पहलू है कि आखिर वे कौन से दबाव हैं,जो एक प्रधानमंत्री को अपनी ईमानादारी से समझौता करने और पद पर बने रहने की विवशता पैदा कर रहे हैं प्रधानमंत्री की विवशता ने कई समस्याएं पैदा की हैं। सबसे पहली समस्या ईमानदारी को संस्था के व्यवहार में बदलने की देखी जा सकती है। सार्वजनिक मामलों में आदर्शवादी बातें और उसको लेकर दिखाया गया जज्बा सबसे बड़ा प्रेरक होता है। ऐसे अगर प्रधानमंत्री अपनी गलती मानने के बाद पद से नहीं हट रहे हैं,इससे नई परंपरा का विकास हो रहा है।
जिसमें गलती स्वीकार करते हुए पद पर बने रहने का आदर्श है। इससे दूसरे राजनेता क्या सबक लेंगे, प्रधानमंत्री को इस बात पर गंभीर होना चाहिए। गठबंधन की मजूबूरियों के चलते प्रधानमंत्री,मंत्रिमंडल और सरकार जैसी संस्था की छवि का
नुकसान नहीं होना चाहिए। टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादकों से कह चुके हैं कि वे नहीं चाहते कि हर छह महीने में चुनाव हों। प्रधानमंत्री के बयान से साफ है कि वे इस बात से कतई चिंतित नहीं है कि जनता में सरकार या मंत्रिमंडल को लेकर क्या छवि बन रही है,जनता विश्वास कर रही है या नहीं। जबकि ऐसे माहौल से सबसे बड़ा खतरा है कि जनता अपनी ही सरकारों पर भरोसा करना छोड़ दे या फिर सरकारों को बंदरबांट करने वाली संस्था मानकर खुद को अराजक भीड़ का हिस्सा बनाने के लिए तैयार कर ले। मंत्रिमंडल स्तरीय गड़बड़ियों के सिलसिले में कह सकते हैं कि एक ईमानदार व्यक्ति की मौजूदगी कम से कम केंद्रीय मंत्रिमंडल के कामकाज को ईमानदारी नहीं सिखा सकी है,पूरा सरकारी तंत्र एक बड़ी चीज है। राजनीति की यह दिक्कत प्रधानमंत्री तक ही सीमित नहीं है। केंद्रीय रेलमंत्री ममता बनर्जी जनपक्षधर राजनीतिज्ञ मानी जाती हैं। उनकी राजनीति देखिए,केंद्र सरकार का हिस्सा होते हुए वे पेट्रोल दाम बढ़ोत्तरी के खिलाफ पश्चिम बंगाल में रैली निकालती हैं। जबकि पेट्रोलियमपदार्थों के दाम निर्धारण की व्यवस्था को बाजार भरोसे छोड़ने का फैसला केंद्रीय मंत्रिमंडल ने लिया था। जिसका उन्होंने मंत्रिमंडल के स्तर पर विरोध नहीं किया। ध्यान रखना होगा कि मंत्रिमंडल के इस फैसले के बाद जनता को महंगाई का संकट झेलना पड़ा है। इस लिहाज से उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री मायावती की राजनीति का आकलन
जरूरी है। एक दलित नेता के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह उम्मीद की गई थी कि व्यवस्था में आमूलचूल तो नहीं लेकिन कम से कम वंचितों को लेकर संवेदनशीलता का विकास होगा। क्योंकि इस काम को दूसरे गैर दलित नेता नहीं कर सके थे। लेकिन
मुख्यमंत्री मायावती का अब तक का कार्यकाल वर्गीय चेतना को भुनाता हुआ नजर आया है। गुणवत्ता के आधार पर उनके पिछले कार्यकालों से तुलना की जाये तो मामला गंभीर हो जाता है। पार्टी विधायकों और मंत्रियों पर ही जनता के उत्पीड़न के गंभीर आरोप हैं। मानवाधिकार हनन के मामलों में तेजी आयी है। पुलिसिया व्यवस्था बिना किसी परिवर्तन के दलित विरोधी और साम्प्रदायिक बनी हुई है। मुख्यमंत्री मायावती के दौरों में लोग अफसरशाही के अत्याचार से पीड़ित होकर उनकी गाड़ियों के आगे लोट रहे हैं। कहने को शीर्ष में दलित नेता की मौजूदगी है,दलित संबल के नाम पर कई योजनाएं हैं,लेकिन शायद
ही कोई दलित बिना सिफारिश के थाने में जाकर अपनी शिकायत दर्ज कराने की हिम्मत कर पा रहा हो। जबकि यही शिकायतें दूसरे नेताओं की शासन में भी रही हैं। तब बदलाव क्या हुए,यह बड़ा सवाल है।
क्या हुआ उस पूर्ण बहुमत का,जिसकी कमी का बहाना लेकर मुख्यमंत्री मायावती अपने पिछले कार्यकाल की कमियों को छिपाती थीं। शीर्ष राजनीति का संस्थानिक व्यवहार से अलगाव ने इस आकलन जरूरत पैदा की है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन, मुख्यमंत्री मायावती या रेलमंत्री ममता बनर्जी जैसे नेता राजनीति सुधारों के लिए सक्षम नहीं हैं या फिर संसदीय व्यवस्था में हावी होती जा रही अवसरवाद प्रेरित राजनीति से खुद को नहीं बचा पाये हैं। जिसका मकसद जनहित के मामलों
को हकीकत की ठोस जमीन से उठाकर स्वांग बना देना भर है। अवसरवादी राजनीति ही है कि राजनेता खुले तौर पर एक-दूसरे को राजनीति न करने की हिदायत देते हैं। किसी मामले पर यह बयान अक्सर ही आता है कि विपक्ष या फलां गुट या दल इस मसले पर राजनीति रोटियां सेंकना बंद करे या फिर राजनीति न करे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह महंगाई कम करने का
वादा करते हैं,लेकिन उनकी सरकार पेट्रोल का दाम डि-कंट्रोल करने, डीजल का दाम बढ़ाने और घरेलू गैस सिलिंडर की सब्सिडी कम करने का फैसला करती है। विपक्ष विरोध करता है तो उसे तेल कीमतों पर राजनीति न करने की हिदायत दी जाती है। संसदीय व्यवस्था में विपक्ष लोकप्रिय राजनीति के तहत जनता का पक्ष सुनिश्चित करने के साथ-साथ शक्ति-संतुलन पैदा करने का माध्यम है। इसलिए उसे सभी मुद्दों पर राजनीति करने का पूरा अधिकार है। यानी पूरा मामला राजनीति के मकसद के भटकाव का है। चूंकि राजनीतिक चेतना पर अवसरवाद हावी है। इसलिए ईमानदारी, आदर्श और प्रतिबद्धताओं का दावा
करने वाले भी संस्था के स्तर पर खास बदलाव लाने में नाकाम साबित हो रहे हैं। देश में ऐसी कोई योजना नहीं है,जिसमें घोटाला न हो रहा हो। ऐसा कोई कानून नहीं है,जिसका उल्लंघन न हो रहा है। ऐसा कोई अधिकार नहीं है,जिनका हनन न हो रहा हो। शीर्ष राजनीति इसे विकास की कीमत(मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का बयान)करार देती है। जनता से कथित विकास की कीमत वसूली जा रही है। हालांकि ये स्थितियां अचानक नहीं पैदा हुई हैं,बल्कि इनके लिए योजनागत तरीके से काम किया गया है। जिसमें जनकल्याण की समझ और पैमानों से छेड़छाड़ की गई है। राजनीति का संवदेनशील और जिम्मेदार माहौल खत्म
किया गया है। राजनीतिक आदर्शों को कमजोर करने के लिए कुतर्क गढ़े गये हैं। आरोप लगने पर पद अभी दोष सिद्ध नहीं हुआ
है,केवल आरोप लगे हैं का आदर्श स्थापित किया जा चुका है। हालांकि इस आदर्श को स्थापित करने की जगह धीमी न्यायिक
प्रक्रिया जिम्मेदार है। आरोप साबित होने तर्क भी इसी प्रक्रिया को देखते हुए रखा गया है। पुराने घोटालों की सूची है तो नये घोटाले उजागर होना जारी है। लेकिन ऐसे कितने राजनेता हैं,जिनका दोष सिद्ध हुआ है। ऐसे में यदि राजनीति आदर्शों को ही बदल दिया जाये तो बचने के रास्ते आसान हो सकते हैं। दिल्ली के एक मंत्री राजकुमार चौहान को हटाने को लेकर विपक्ष लगातार मांग कर रह रहा है। मंत्री पर टैक्स बचाने के लिए अपने पद का आरोप सिद्ध हो चुका है। लेकिन मंत्री हैं कि पद छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। कॉमनवेल्थ खेलों की जांच कर रही शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट दिल्ली सरकार की लापरवाहियां उजागर कर रही है,लेकिन मुख्यंमंत्री शीला दीक्षित पद छोड़ने को तैयार ही नहीं है। सवाल उठता है कि अगर दोष सिद्ध होने का आदर्श नहीं विकसित कर लिया गया होता तो ये सभी लोक पदाधिकारियों को अपनी सत्ता गंवानी पड़ती। जब शीर्ष राजनीति आरोपों में घिरी है,तो यह कैसे संभव है कि उसके साथ काम करने वाला तंत्र अपनी जिम्मेदारी को पूरा करे। यही वजह है कि नौकरशाहों की मिलीभगत भी सामने आ रही है। क्योंकि टूल्स के बतौर वही इस्तेमाल किये जाते हैं। जनता रोज-ब-रोज जिससे मुखातिब होती है,वह नौकरशाही ही है,जिसपर औपनिवेशिक प्रशिक्षण पूरी तरह से हावी है। जो जनपक्षधर राजनीतिक प्रभाव के अभाव में जनता के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करती है। खतरा है कि कहीं जनता के बीच लोकतंत्र ही संदिग्ध न हो जाये। अगर राजनीति में बढ़ता अविश्वास पूरी व्यवस्था से जुड़ गया तो स्थिति भारत जैसे देश के लिए मुनासिब नहीं होगी। लिहाजा राजनीतिक शीर्ष अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी को संजोते हुए सार्वजनिक आदर्शों को तहस-नहस करने से बचना जरूरी है। साथ ही यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि उनकी सकारात्मक छवि का असर हर हाल में संस्थाओं के व्यवहार के जरिए लोगों तक पहुंचे। ताकि जनमानस से आजादी का खोखलापन दूर हो और सत्ता-प्रतिष्ठानों और तंत्र को अपना सहयोगी मान
सकें।
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
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