ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

शनिवार, अक्तूबर 23, 2010

गोपनीयता के दलदल में सूचना का अधिकार





गोपनीयता के दलदल में सूचना अधिकार
-ऋषि कुमार सिंह
आजाद भारत में औपनिवेशिक कानून और उससे उपजी मानसिकता का असर कायम है। तमाम लोकतांत्रिक सुधारों के बावजूद पांच दशक से ज्यादा समय तक गोपनीयता कानून का मौजूद रहना तो अपने आप में सवाल है ही, सूचना अधिकार कानून के रास्ते में आ रही दिक्कतें औपनिवेशिक असर की गहराई बताने के लिए काफी है। महज 6 अध्याय,31 अनुच्छेदों और दो अनुसूचियों वाले इस छोटे व सरल कानून के साथ पिछले पांच साल में हुए बर्ताव ने साबित कर दिया कि राजनीतिक मंशां न तो इस कानून को सक्षम बनाना चाहती है और न ही नौकरशाही ने देश की लोकतांत्रिक भावनाओं का सम्मान करने का चरित्र ही विकसित किया है। संस्थाओं में लोक सूचना अधिकारी और आयोगों में सूचना आयुक्ति की नियुक्ति को लेकर व्यापक लापरवाही दिखाई गई है। अलग से लोक सूचना अधिकारी नियुक्त करने की जगह विभागों के शीर्षस्थ नौकरशाहों को इसकी अतिरिक्त जिम्मेदारी दे दी गई है। नौकरशाही पर गोपनीयता का प्रशिक्षण इतना मजबूत है कि ग्राम पंचायत अधिकारी से लेकर प्रमुख सचिव के कार्यालय तक सूचनाओं का जवाब देने में लोक सूचना अधिकारी एक जैसी गलतियां कर रहे हैं।
सूचनाओं को आधा-अधूरा देना,तय समय में सूचना न देना,सूचना देते समय जानकारी को शब्दों के जाल में उलझा देने या ‘कार्यालय से संबद्ध नहीं है’ कहते हुए सूचना को वापस कर देने जैसे उदाहरणों की संख्या बेहिसाब है। नवम्बर 2007 में बहराइच के ‘जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी’ कार्यालय से जून 2006 के बाद रिटायर्ड हुए अध्यापकों की पेंशन की जानकारी के लिए आरटीआई का प्रयोग किया गया। सबसे पहले जन सूचना अधिकारी ने तय समय सीमा(30 दिन)में कोई जवाब नहीं दिया। पहली अपील के बाद लगभग 60 दिन से ज्यादा समय बीत जाने पर आधी-अधूरी दी गई। मामला आयोग तक पहुंचा। तो जन-सूचना अधिकारी ने तो सूचना का बंटाधार किया ही,यूपी राज्य सूचना आयोग भी इसमें पीछे नहीं रहा। आयोग में 12 मार्च 2008 को दूसरी अपील करने के बाद करीब आठ महीने से ज्यादा समय बीतने के बाद सुनवाई की तिथि तय की गई। जो साधारण डाक से सुनवाई की तारीख बीतने के बाद मिला था।
दूसरा उदाहरण, उत्तर प्रदेश परिवहन निगम ने ए.सी.बसों बेड़ा खरीदा और कई सड़कों पर दौड़ाना शुरू कर दिया। आरटीआई के जरिए बसों टेण्डर से लेकर रखरखाव के साथ किराया बढ़ाने की नीति और नागरिक घोषणा-पत्र जैसी जानकारी मांगी गई। लोक सूचना अधिकारी की तरफ से मिला जवाब दिलचस्प और हैरत में डालने वाला था। दो अलग-अलग अधिकारियों से बसों की अलग-अलग संख्या मिली,जिसमें 43 बसों का अंतर था। मुख्य प्रधान प्रबन्धक ए.के.श्रीवास्तव के कार्यालय से मिले पत्र में बसों की संख्या 218 बताई गयी, तो प्रधान प्रबंधक(संचालन-2) पी.पी.पाण्डेय के कार्यालय से मिले पत्र में बसों की संख्या 261 बतायी गई। जानकारी दी गई कि बसों की खरीद खुली निविदा प्रक्रिया के तहत की गई है। टेण्डर की छायाप्रति पाने के लिए शुल्क जमा करने की बात कही गई,लेकिन नहीं बताया गया कि कितना शुल्क जमा करना होगा ? चिंताजनक है कि जन-सूचना अधिकारी को यह तक नहीं मालूम है कि अगर कोई सूचना 30 दिन के अन्दर सूचना नहीं दी जाती है, तो सूचना अधिकार अधिनियम 2005 की धारा-7(6) के मुताबिक ऐसी सूचनाओं को बिना किसी शुल्क के देना पड़ता है। बस खरीदने के लिए आबंटित धनराशि का ब्यौरा, ‘संचालन के लिए ठीक’ जैसा प्रमाणपत्र और साफ-सफाई,रखरखाव के खर्चे सम्बन्धित जानकारी व ए.सी बसों की आय-व्यय का ब्यौरा नहीं दिया गया। तर्क दिया गया कि सूचना उपलब्ध नहीं है। जबकि आरटीआई कानून की धारा 6(3) में स्पष्ट है कि अगर मांगी गई सूचना किसी अधिकारी विशेष से संबंधित नहीं है, यह आवेदन पाने वाले अधिकारी की जिम्मेदारी है कि उसे उपयुक्त विभाग व अधिकारी के पास पांच दिन के भीतर भेज दे। बस खरीद से फैसलों की फाइल नोटिंग्स को बिना कारण बताए नहीं दिया गया। जबकि प्रधान प्रबन्धक(जन सूचना) अजय सिंह ने सूचना अधिकार अधिनियम की धारा-2(च) को आधार बनाते हुए निगम को घाटे से बचाने के उपायों, जन सुविधाओं की देखभाल करने वाले अधिकारी की नियुक्ति और किसी उच्च पदस्थ प्रशासनिक अधिकारी के कार्यालय के एक साल के खर्चे का ब्यौरे को सूचना की श्रेणी में मानने से इन्कार कर दिया। बस किराया बढ़ोत्तरी के मुद्दे पर पी.पी.पाण्डेय (प्रधान प्रबन्धक,संचा-2) ने जवाब दिया कि “एयर लाइन्स तो दिन-रात के किराए में ही अन्तर कर देती हैं”। जवाब से सूचना आवेदन को लेकर बरती जा संजीदगी जाहिर होती है। उत्तर प्रदेश पुलिस मुख्यालय का रवैय्या भी ऐसा ही दिखा। पिछले कई सालों में हुई मुठभेड़ों के बारे में मांगी गई कई अहम जानकारियों,जिसमें मुठभेड़ों की संख्या,मृतक की उम्र,जाति,मुठभेड़ का समय, इलाके की जानकारी जैसी बातें थीं,नहीं दिया गया। कारण वही कि सूचना उपलब्ध नहीं है। फर्जी मुठभेड़ों के मामले में उत्तरप्रदेश सबसे आगे है। ऐसे में मानवाधिकारों के हनन को रोकने के लिहाज से ऐसी सभी जानकारियों का दस्तावेजीकरण जरूरी है। लेकिन अफसोस कि राज्य सूचना आयोग ने आदेश को नकारते हुए उत्तर प्रदेश पुलिस मुख्यालय ने कोई सूचना उपलब्ध नहीं कराई।
कुल मिलाकर बात जनता के सूचित होने और व्यवस्था के स्तर पर सरलता की है। लेकिन एक जानकारी के लिए सूचना-आवेदन, जवाब का इंतजार, फिर पहली अपील व उसके जवाब का इंतजार, आयोग में दूसरी अपील, आयोग की सुनवाई व आदेश का इंतजार, आदेश पर अमल का इंतजार, अमल न होने पर शिकायत, शिकायत पर सुनवाई का इंतजार और फिर आयोग का आदेश, संतुष्ट न होने की हालत में हाईकोर्ट में याचिका डालने जैसी मैराथन प्रक्रिया पैदा कर दी गई है। जबकि किसी पीड़ित को इस प्रक्रिया से न्याय पाना कितना आसान होगा,महज अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे में एक आवेदन के पीछे यदि किसी आवेदन कर्ता को दो-दो सालों तक इंतजार करना पड़ता है,तो इसे सिर्फ मजाक ही कहना सही होगा।

1 टिप्पणी:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

अब इसके पर कतरने की तैयारी चल रही है...