ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

पुलिस वाला गाली देता है...




पुलिस वाला गाली देता है, लाठियां बरसाता है, बूढ़ा, जवान, बच्चा या महिला होने में कोई अंतर नहीं करता है। हालांकि किसी पुलिसवाले के परिचय में ये सारी बातें भारतीय जनमानस के लिए कहीं से चौकाने वाली या नई बात नहीं है। क्योंकि पुलिस के इसी चरित्र से जनता हर एक रोज रूबरू होती है । ऐसा करने वाले पुराने पुलिसकर्मी ही नहीं हैं, बल्कि नई भर्तियों के जरिए आए नौजवान पुलिसकर्मियों पर तो इसका रंग काफी गहरा है। घटना उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के तजवापुर ब्लॉक का प्रांगण की है। जहां पर पंचायतीराज व्यवस्था में जननेतृत्व की इच्छा लेकर हजारों संभावित प्रत्याशी जुटे थे। दरअसल प्रांगण का पूरा जमावड़ा लोकतंत्र के बुनियादी स्वरूप और उसकी मजबूती की गवाही देने के लिए काफी था। बावजूद इसके घटनाक्रम कुछ कदर बदला कि लोकतंत्र की तमाम खूबसूरती सवाल के घेरे में आ गई।

तारीख 24 सितंबर 2010..पंचायत चुनाव के लिए नामांकन कराने का दूसरा दिन...ब्लॉक कार्यालय के अंदर और बाहर भीड़ ने मेले जैसा माहौल बना दिया था। पर्चा जमा करने के लिए संभावित प्रत्याशी लाइन में लगे थे, तो कई लोग जरूरी कागजातों के लिए खिड़की दर खिड़की आवाज लगाकर जानकारी मांग रहे थे। शोरगुल और पूछताछ के तथ्यों से साफ था कि अनपढ़ होना कितना बड़ा संकट है,ऐसे में अगर जनसहूलियतों का इंतजाम करने वाली व्यवस्था अपना झुकाव जनता की सहूलियतों से हटा ले तो संकट का विस्तार क्या हो सकता है ? कुल मिलाकर कामकाज मेले में किसी अपने को खोजने के अंदाज में होता है। चुनावी अवसर है तो पर्चा भरने के साथ साथ अपने या अपने प्रत्याशी के पक्ष में प्रचार का काम भी चलेगा। कुछ लोग जमीन में घेरे में बैठकर बातें कर रहे थे,तभी अचानक प्रांगण में एक अजीब सी हलचल दूसरे शब्दों में कहें तो एक तरफ से मैदान खाली होता दिखा। एक सब इंस्पेक्टर दो सिपाहियों के साथ मैदान में आ गया था। आते ही उसने जमीन पर लगभग घेरा बनाकर बैठे हुए तीन लोगों को तुरंत भाग जाने के लिए कहा। वे लोग उठकर जा रहे थे,फिर भी वह उन्हें धकियाने लगा। शरीर पर खाकी वर्दी, कंधे पर तीन सितारा,कमर पर ऑटोमेटिक पिस्तौल है,किसी व्यक्ति को रौब गांठने के लिए और क्या चाहिए,कहें तो सब इंपेक्टर अपने रौब में था। इसलिए जा रहे तीन लोगों में से एक की कनपटी पर तमाचा भी जड़ दिया। तीनों ग्रामीण ‘जाईत तव हैय् साहेब’ कहते हुए तेजी से आगे बढ़ गये। लेकिन वर्दीधारी का मन नहीं भरता है और वह कुछ ऐसा कहता है कि जिससे इस देश की हरेक नागरिक की नागरिकता अपमानित हो जाती है। नागरिक आत्मसम्मान की रक्षा का दावा करने वाली तमाम संस्थाएं प्रभाव शून्य सी लगने लगती हैं।


“देख रहे हो डंडा....इतना पड़ेगा कि पि_____ लाल हो जायेगा, घर पर जाकर तीन दिन सिकवाओगे....!” ध्यान रहे कि यह गाली भी है और एक प्रक्रिया भी है। उत्तर प्रदेश या और कोई दूसरा प्रदेश,पुलिस जनता से इसी प्रक्रिया से मुखातिब होती है। हां,इसे अनौपचारिक जरूर करार दिया जा सकता है,अवैधानिक तो कतई नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इस देश में थर्ड डिग्री का इस्तेमाल भी किया जाता है। सबइंस्पेक्टर अपने कर्तव्य पालन के कल्याणकारी राज्य के बाशिंदों की हिफाजत का काम कर रहा था। अब ये अलग बात है कि खाकी वर्दीधारियों ने कल्याणकारी राज्य की मनमाफिक व्याख्या कर ली है।

लेकिन यह तय है कि जब कहीं पर नागरिक अपमानित होता है, तब ‘कल्याणकारी राज्य’ और ‘कानून का शासन’ ये सारी बातें किताबी प्रपंच लगने लगती हैं। तेजवापुर ब्लॉक की घटना महज स्थानीय प्रभाव नहीं है। आज देश की जनता वर्दीधारियों इसी प्रक्रिया से सुरक्षा पा रही है। जहां किसी को भी मारने या जान से मार देने पर कोई पाबंदी नहीं है। अगर मारने की ही घटना का जिक्र करें तो तमाम प्रदर्शनों के दौरान पुलिस की लाठियों और गोलियों के घायल मरने वालों के आंकड़े आसानी से इकट्ठा किया जा सकता है,लेकिन रोज ब रोज चौराहों-सड़कों पर पुलिस के हाथों अपमानित होने वाली एक बड़ी आबादी है। जिसकी पृष्ठभूमि न तो आर्थिक रूप से ताकववर है और न ही राजनीति रसूख ही रखती है,संवैधानिक और चुनावी प्रक्रिया में शक्ति का केंद्र जरूर है। तेजवापुर ब्लाक प्रांगण में सबइंस्पेक्टर ऐसे ही व्यक्तियों का सरेआम अपमान करने पर आमादा था। खैर दुखद है कि हमारा जनमानस ऐसे अपमानों को लेकर अभी तक अपना स्वाभिमान नहीं पैदा हो पाया है। लेकिन कमियां निगाह डालते हैं तो जनमानस को दोष देने की जगह ही नहीं बनती है। जनमानस को स्वतंत्र होने के सही मायने पता लगने से पहले ही स्वतंत्रता से जुड़े तमाम प्रभावों का अपहरण कर लिया गया है। संकट यही है कि इससे जनता के हित में काम करने का दावा करने वाली व्यवस्था की भागीदारी देखी जा रही है।

तभी तो व्यवस्था का अंग होने के बावजूद वर्दीवाले इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते हैं कि वे जिस व्यक्ति से मुखातिब हो रहे हैं, वह इस देश का नागरिक है और अंतिम रूप से इस व्यवस्था की वैधानिकता का प्रायोजक है। वही इस देश की सरकार बनाता-बिगाड़ता है। देश का संविधान भी हम भारत के लोगों को शक्ति संपन्न बनाने का अर्थ देता है। ऐसे में कोई वर्दीवाला इन सामान्य जानकारियों का इस्तेमाल करता हुआ नहीं पाया जाता है। जाहिर है कि अपने ही देश की जनता को अपमानित करने वाले आजाद भारत के वर्दीधारी नहीं है, बल्कि उनपर आज तक औपनिवेशिक प्रशिक्षण का असर कायम है,जो अंग्रेजों ने गुलामी के दौर में अपने औपनिवेशिक हितों को पूरा करने के लिए दिया था। छह दशक से ज्यादा की राजनीति उस असर को कहीं से भी कम नहीं कर पायी है,यहां तक की नये दौर की राजनीति में नागरिक अस्मिताओं पर चोट की गई है। देश में फर्जी मुठभेड़ों की संख्या और नागरिक-सुरक्षा बलों के बीच टकराव की घटनाओं में तेजी आयी है। गौर करें तो औपनिवेशिक दौर की प्रताडनाओं और आज की पुलिसिया कार्रवाईयों कोई खास अंतर नहीं पाते हैं। सिवाय इसके तब हम विदेशी शासन को दोषी ठहराते हुए स्वराज की सुखद स्थितियों का सपना संजो सकते थे, लेकिन अब स्वराज की धोखाधड़ी से अवसाद और उदासीनता के दौर में जा रहे हैं। यही वजह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद पंचायतों को छोड़कर बाकी चुनावों में जनता की भागीदारी कम होती जा रही है। कुल मिलाकर सवाल राजनीति करने वालों से ही है कि अगर वे राजनीति कर रहे हैं, तो देश के नागरिक के रूप में लोकप्रिय संप्रभुता का इस कदर अपमान क्यों किया जा रहा है ? क्यों अपने ही शासन से जनता का परायापन बढ़ रहा है ?

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