ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

मंगलवार, मार्च 09, 2010

कैद में 'आजाद'

अमलेन्दु उपाध्याय
उत्तर प्रदेश में 'लाल सलाम' कहना और सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करना अब राष्ट्रद्रोही जुर्म है। कम से कम मानवाधिकार कार्यकर्ता और 'दस्तक' पत्रिका की संपादक और उनके पति पूर्व छात्रनेता विश्वविजय की गिरफ्तारी से तो ऐसा ही लगता है। देश भर के बुध्दिजीवी, कलाकार और साहित्यकार सीमा की गिरफ्तारी को लोकतंत्र की हत्या बता रहे हैं। उधर सरकार के जरूरत से ज्यादा काबिल पुलिस अफसर अपने बेतुके बयानों से घिरते जा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या सरकार की नीतियों का विरोध करना और लोगों को लामबंद करना अपराध है? सरकार के पास मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के इस सवाल का अभी तक कोई उत्तर नहीं है कि माओवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद की परिभाषा क्या है ?
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय को पुलिस ने नक्सली बताकर इलाहाबाद में गिरफ्तार किया। यूपी पुलिस की इस कार्रवाई का पूरे देश में जबर्दस्त विरोधा हो रहा है। तमाम मानवाधिकारवादी उत्तार प्रदेश सरकार के खिलाफ एकजुट होकर सवाल कर रहे हैं कि सरकार और पुलिस बताए कि माओवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद में क्या अन्तर है और नक्सली साहित्य की परिभाषा क्या है। यह ऐसे सवाल हैं जिन पर यूपी के जाहिल पुलिस अफसर बचाव की मुद्रा में आ गए हैं। बताते चलें कि सीमा आजाद मानवाधिकार संस्था पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (पीयूसीएल) से सम्बध्द हैं, साथ ही द्वैमासिक वैचारिक पत्रिका 'दस्तक' की सम्पादिका भी हैं। उनके पति विश्वविजय वामपंथी रुझान वाले जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता हैं। सीमा लगातार 'दस्तक' में सरकार की जनविरोधी नीतियों की मुखर आलोचना करती रही हैं। इतना ही नहीं सीमा ने इस पत्रिका के साथ-साथ सरकार की नीतियों को कठघरे में खड़ा करने वाली प्रचार पुस्तिकाएं भी प्रकाशित की हैं। इनमें गंगा एक्सप्रेस-वे, कानपुर के कपड़ा उद्योग और नौगढ़ में पुलिसिया दमन से सम्बन्धित पुस्तिकाएं बहुत चर्चित रही हैं। बताया जाता है कि हाल ही में सीमा ने केन्द्र सरकार के 'ऑपरेशन ग्रीनहण्ट' के खिलाफ लेखों का एक संग्रह भी प्रकाशित किया था। बीती छह फरवरी को पुलिस ने सीमा और विश्वविजय को उस समय इलाहाबाद में गिरफ्तार कर लिया जब वह दिल्ली से पुस्तक मेले से पुस्तकें खरीद कर वापिस लौट रहे थे। पुलिस का दावा है कि उनसे विस्फोटक साहित्य बरामद किया गया है। पर यह विस्फोटक साहित्य क्या है इसका जबाव पुलिस के पास अभी तक तो नहीं है। सीमा पर राजद्रोह का अभियोग लगाया गया है। पीयूसीएल के संगठन मंत्री राजीव यादव का कहना है कि हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी नीतियों के विरोधियों को कभी आतंकवादी और कभी नक्सलवादी या माओवादी घोषित करके जेल की सलाखों के पीछे ठूंसने का खेल खेलने में लगी है। वह कहते हैं कि इस खेल में सब कुछ जायज है - हर तरह का झूठ, हर तरह का फरेब और हर तरह का दमन। राजीव की मीडिया से भी शिकायत है। वह कहते हैं, ''इस फरेब में सरकार का सबसे बड़ा सहयोगी हमारा बिका हुआ मीडिया है। इसीलिए हैरत नहीं हुई कि सीमा की गिरफ्तारी के बाद अखबारों ने हर तरह की अतिरंजित सनसनीखेज खबरें छापीं कि ट्रक भर कर नक्सलवादी साहित्य बरामद हुआ है, कि सीमा माओवादियों की 'डेनकीपर' (आश्रयदाता) थी।''एक अन्य मानवाधिाकार कार्यकर्ता शाहनवाज आलम कहते हैं कि उत्तार प्रदेश में मानवाधिकार और लोकतंत्र आहत और लहूलुहान है। जिस समय सीमा आजाद को गिरफ्तार किया गया, ठीक उसी वक्त पूर्वी उत्तर प्रदेश के अति नक्सल प्रभावित सोनभद्र जनपद में सोन नदी के किनारे बालू के अवैधा खनन को लेकर सरकार के विधायक विनीत सिंह और उदयभान सिंह उर्फ डॉक्टर के समर्थकों के बीच गोलीबारी हो रही थी। इस गोलीबारी से डर कर तमाम आदिवासी अपने घरों से भाग खड़े हुए थे। घटनास्थल पर पुलिस पहुंची। गोली के खोखे भी बरामद किये, लेकिन किसी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं की गयी। वह आरोप लगाते हैं कि समूचे प्रदेश में खनन मंत्री बाबूसिंह कुशवाहा और उनके कारिंदों के द्वारा अवैधा खनन का जाल बिछा कर अरबों रुपये की काली कमाई की जा रही है और इसको अंजाम तक पहुंचाने के लिए प्रदेश के तमाम माफियाओं, हिस्ट्रीशीटरों को बेनामी ठेके दिये जा रहे हैं। नि:स्संदेह ऐसी स्थिति में आम मजदूर, आदिवासी और किसान का शोषण होना लाजिमी है। शाहनवाज जो आरोप लगाते हैं ऐसे आरोप बसपा से निष्कासित एक पूर्व सांसद ने भी लगाए थे कि उन्हें खनन माफियाओं के इशारे पर पार्टी से निष्कासित किया गया। शाहनवाज कहते हैं कि सीमा आजाद इन्हीं मजदूरों के हक की लड़ाई अकेले लड़ रही थी। इलाहाबाद-कौशांबी के कछारी क्षेत्र में अवैधा वसूली व बालू खनन के खिलाफ संघर्षरत मजदूरों के दमन पर उन्होंने बार-बार लिखा। जबकि किसी भी बड़े अखबार ने हिम्मत नहीं की। वह बताते हैं कि नंदा का पुरा गांव में पिछले ही माह जब पुलिस व पीएसी के जवान ग्रामीणों पर बर्बर लाठीचार्ज कर रहे थे, सीमा अकेले उनसे इन बेकसूरों को बख्श देने के लिए हाथ जोड़े खड़ी थी। उस वक्त भी किसी अखबार ने इस बर्बरता के बारे में एक लाइन की खबर नहीं छापी। सीमा की यही जंगजू प्रवृत्ति सरकार को नहीं भायी। पीयूसीएल का आरोप है कि खनन माफियाओं को खुश करने और अपनी झोली भरने के लिए सीमा को रास्ते से हटाना जरूरी था। इलाहाबाद के डीआईजी ने ऊपर रिपोर्ट दी कि सीमा माओवादियों का जत्था तैयार कर रही है और अब नतीजा हमारे सामने है।सोनभद्र के पत्रकार आवेश तिवारी का कहना है सरकार समर्थित अवैधा खनन के गोरखधांधो को अमली जामा पहनाने के लिए सीमा से पहले भी फर्जी गिरफ्तारियां की गयी हैं। यह आरोप बेवजह नहीं लगाए जा रहे हैं बल्कि इनके पीछे आधाार हैं। वह बताते हैं कि कैमूर क्षेत्र मजदूर महिला किसान संघर्ष समिति की रोमा और शांता पर भी पहले रासुका लगाया गया था क्योंकि वह भी आदिवासियों की जमीन पर माफियाओं के कब्जे और पुलिस एवं वन विभाग के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठा रही थीं। जब इस पर ज्यादा हो-हल्ला मचा तो सरकार सारे मुकदमे वापिस लेने पर मजबूर हुई। इसी तरह पुलिस ने सोनभद्र जनपद से ही गोंडवाना संघर्ष समिति की शांति किन्नर को भी आदिवासियों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया था। एक साल बाद ही शांति जैसे तैसे जमानत पर रिहा हो सकी।आवेश भी मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर गुस्सा जताते हुए कहते हैं, 'आज विभिन्न चैनलों पर चल रहे न्यूज फ्लैश, जिसमें नक्सलियों की गिरफ्तारी की बात कही जा रही थी, देखकर हमें लग गया था कि टीवी चैनलों के पास सच्चाई की एक ही सुरंग है और वो है सत्ताा का पक्ष। सत्ता का वर्जन। उनके पास अपनी कोई हूक नहीं कि वो पुलिस की दी गयी सूचना पर सवाल खड़ा कर सकें। काउंटर कर सकें। जो पुलिस बताये, वही सूचना है।' वह कहते हैं कि माफियाओं और गुंडों के आतंक से कराह रहे प्रदेश में पुलिस का एक नया और खौफनाक चेहरा सामने आया है। आउट ऑफ टर्न प्रमोशन पाने और अपनी पीठ खुद ही थपथपाने की होड़ ने हत्या और फर्जी गिरफ्तारियों की नयी पुलिसिया संस्क(ति को पैदा किया है। वह कहते हैं कि नक्सल फ्रंट पर हालात और भी चौंका देने वाले हैं। नक्सलियों की धार पकड़ में असफल उत्तर प्रदेश पुलिस या तो चोरी छिपे नक्सलियों का अपहरण कर रही है या फिर ऊंचे दामों में खरीद फरोख्त करके उनका फर्जी इनकाउन्टर कर रही है। सीमा की गिरफ्तारी के विरोध में तेरह फरवरी को लखनऊ में पत्रकारों और बुध्दिजीवियों ने विरोधा प्रदर्शन किया। उधार जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से जारी एक अपील में विजय प्रताप, राजीव यादव, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चन्द्रिका, शाहनवाज आलम, अनिल, लक्ष्मण प्रसाद, अरुण उरांव, देवाशीष प्रसून, दिलीप, शालिनी वाजपेयी, पंकज उपाधयाय, विवेक मिश्रा, तारिक शफीक, विनय जायसवाल, सौम्या झा, नवीन कुमार सिंह, प्रबुध्द गौतम, पूर्णिमा उरांव, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, अर्चना मेहतो, राकेश कुमार ने कहा है कि ''हमें मालूम है कि इस एक विशेषण की आड़ पुलिस किन मंसूबों के साथ लेती है। और आजकल इस नक्सली शब्द पर केंद्र भी सजग है। उसे मालूम है कि पहाड़ों पर और जंगलों में संघर्ष बन कर उगे हुए इन नक्सलियों को साफ किये बिना वो पहाड़ों और जंगलों पर कब्जा नहीं कर सकती।''पत्रकारों से की गई इस अपील में कहा गया है कि ''जब कभी लोकतंत्र में सत्ता के चरित्र पर से पर्दा उठता है उस वक्त शर्मिंदगी नहीं साजिशें होती हैं। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता सीमा आजाद की गिरफ्तारी इसी साजिश का हिस्सा है। ये दलितों के नाम पर चुनी गयी सरकार द्वारा उन्हीं दलित आदिवासियों और किसानों के खिलाफ चलायी जा रही मुहिम को सफल बनाने का एक शर्मनाक तरीका है।'' जेयूसीएस का कहना है कि उत्तार प्रदेश के पूर्वांचल में भी एक लालगढ़ साँसें ले रहा है। वो भी सरकार और उसके कारिंदों के जुल्मोसितम से उतना ही आहत है जितना वो लालगढ़। इन पत्रकारों का कहना है कि ''अगर अभिव्यक्ति को सलाखों में कसने के सरकार के मंसूबों को सफल होने दिया गया, तो वो दिन दूर नहीं जब न सिर्फ उत्तर प्रदेश में, बल्कि समूचे देश में सत्ता खुद ब खुद आतंक का पर्याय बन जाएगी। ऐसे में ये जरूरी है कि इस परतंत्रता के खिलाफ अभी और इसी वक्त से हल्ला बोला जाए। ये देश और देश की जनता के प्रति कर्तव्यों के निर्वहन का सही सलीका है। एक आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकार से इससे अधिाक उम्मीद की भी नहीं जा सकती थी। वो भी हम जैसी पत्रकार थी लेकिन उसने पैसों के लिए अपने जमीर को नहीं बेचा। इलाहाबाद-कौशाम्बी के कछारी क्षेत्र में अवैधा वसूली व बालू खनन के खिलाफ संघर्षरत मजदूरों के दमन पर उन्होंने बार-बार लिखा, जबकि किसी भी बड़े अखबार ने हिम्मत नहीं की।'' इन पत्रकारों का कहना है कि मायावती सरकार का जब कभी दलित आदिवासी विरोधा चेहरे पर से नकाब उठता है इस तरह की घटनाएं सामने आने लगती हैं। हो सकता है कि सीमा की गिरफ्तारी पर भी मीडिया अपने चरित्र के अनुरूप अपने होठों को सिये रखे। आज विभिन्न चैनलों पर चल रहे न्यूज फ्लैश जिनमें नक्सलियों की गिरफ्तारी की बात कही गयी थी को देखकर हमें लग गया था कि टीआरपी और नंबर की होड़ में पहलवानी कर रहे मीडिया के पास सच कहने का साहस नहीं है। अपील में कहा गया है कि सीमा, विश्व विजय और आशा की गिरफ्तारी का विरोध हम सबको व्यक्तिगत तौर पर करना ही होगा। माध्यमों की नपुंसकता का रोना अब और नहीं सहा जायेगा वर्ना आइना भी हमें पहचानने से इनकार कर देगा। जेयूसीएस ने जानना चाहा है कि पुलिस जब यह कहती है कि उसने नक्सलवादी, माओवादी, आतंकवादी साहित्य (कई बार धार्मिक साहित्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है) पकड़ा है तो उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिये कि आखिर कौन-कौन सी किताबें इसमें शामिल हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास तरह की विचारधारा से प्रेरित होकर लिखी गई किताबें रखना, पढ़ना कोई अपराधा नहीं है। पुलिस द्वारा अक्सर ऐसी बरामदगियों में कार्ल माक्र्स, लेनिन, माओत्से तुंग, स्टालिन, भगत सिंह,चेग्वेरा, फिदेल कास्त्रो, चारू मजूमदार किसी संगठन के राजनैतिक कार्यक्रम या धार्मिक पुस्तकें शामिल होती हैं। यह पत्रकार कहते हैं कि ऐसे समय में पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि कालेजों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही इन राजनैतिक विचारकों की किताबें भी नक्सली, माओवादी, आतंकी साहित्य हैं? क्या उसको पढ़ाने वाला शिक्षक, प्रोफेसर या पढ़ने वाले बच्चे भी नक्सली, माओवादी, आतंकी हैं? पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि प्रतिबंधित साहित्य का क्राइटेरिया क्या है, या कौन सा वह मीटर-मापक है जिससे पुलिस यह तय करती है कि यह नक्सली, माओवादी, आतंकी साहित्य है। अब यह सवाल ऐसे हैं जिनके जबाव उत्तार प्रदेश के कम पढ़े लिखे पुलिस अफसरों से देते नहीं बन रहा। सवाल यह भी है कि क्या 'लाल सलाम' कहना नक्सलवाद है? अगर ऐसा है तो क्या मायावती की पुलिस बुद्धदेव भट्टाचार्य, एबी वर्धन और प्रकाश करात को भी इस जुर्म में गिरफ्तार कर लेगी? पीयूसीएल के प्रदेश उपाधयक्ष सैय्यद अली मंजर कहते हैं कि बाल-राज ठाकरे जैसे लोग आए दिन संविधान विरोधी काम करते हैं। सरकार उनके सामने नतमस्तक दिखाई देती है। अभिव्यक्ति एवं विचार से वामपंथी लोगों को जेल भेजना दु:खद है। कई राजनीतिक दलों और संगठनों ने भी पीयूसीएल की संगठन सचिव सीमा आजाद की गिरफ्तारी की निंदा की है। कलाकारों और साहित्यकारों ने भी इसका विरोधा किया है। समाजवादी पार्टी ने कहा है कि इस गिरफ्तारी से सरकार का फासिस्ट चेहरा सामने आ गया है। पार्टी ने फौरन ही सीमा आजाद को रिहा करने की मांग की है।  पार्टी की तरफ से जारी एक बयान में कहा गया कि मानवाधिकार संगठन के पदाधिकारियों को नक्सली बताकर गिरफ्तार करना प्रदेश में लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है। संजरपुर (आजमगढ़) में कांग्रेस महासचिव के सामने बटला काण्ड पर सवाल पूछने पर पीयूसीएल के प्रदेश संयुक्त सचिव को गुण्डा एक्ट में धारा गया। अब मीडिया से संबंधित सीमा आजाद तथा उनके पति को भी माओवादी बताते हुए गिरफ्तार कर लिया गया है। उन्हें हथकड़ी लगाकर अदालत में पेश किया गया जो कि अमानवीयता की हद है।सपा प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी और विधान परिषद में पार्टी के मुख्य सचेतक डॉ राकेश सिंह राना ने कहा कि कांग्रेस और बसपा दोनों की मानसिकता सत्ता के विरोधी का दमन करने की है। संविधान में संगठन बनाने और अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी की इनको परवाह नहीं है। कांग्रेस तो आपातकाल लगाकर अपना चरित्र उजागर कर चुकी है और बसपा की मुख्यमंत्री मायावती भी लोकतंत्र पर प्रहार करने का कोई मौका नहीं चूकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की सभी संस्थाओं का अवमूल्यन किया है। दोनों सपा नेताओं ने आरोप लगाया कि मायावती ने न्यायपालिका की अवहेलना की है और विधायिका के प्रति उनका रुख कभी भी सम्मानजनक नहीं रहा है। कार्यपालिका का मनोबल गिराकर उन्होंने उसे पार्टी की वालंटियर फोर्स की तरह काम करने को मजबूर कर दिया है। उन्होंने कहा कि यह बात तो जगजहिर है कि मानवाधिकार हनन के मामले में उत्तार प्रदेश ने देश भर में अपना रिकॉर्ड बनाया है। निर्दोष नौजवानों के इंकाउंटर की कितनी ही खूनी कहानियां यहां के पुलिसतंत्र के नाम लिखी हैं। फर्जी मुकदमे बनाने में प्रदेश सरकार उसके अफसरों को महारत हासिल है। समाजवादी पार्टी ने माओवाद के नाम पर दमन की इस कार्रवाई की घोर निन्दा की है और इस तरह के फर्जी केस तुरन्त बन्द करने की मांग की है।उधार लखनऊ में जुटे बुध्दिजीवियों ने कहा कि जरूरी नहीं फासीवाद केवल धार्म का चोला पहनकर ही आए, वह लोकतंत्र का लबादा ओढ़कर भी आ सकता है। और ऐसा हो भी रहा है। चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद कई लोगों ने खुशी जाहिर की थी और उन्हें लगा था कि चुनावों ने फासिस्ट भाजपा को हाशिये पर धाकेल दिया है। लेकिन चुनावों में हार से फासीवाद की हार नहीं हुई। एक तरफ तो कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार कल्याणकारी योजना के नाम पर जनता के बीच उसी से लूटी गई संपदा के टुकड़े फेंक रही है, तो दूसरी तरफ नक्सलवाद, आतंकवाद के खात्मे के नाम पर आम जनता और उसके हक की लड़ाई लड़ने वालों का दमन कर रही है। उन्हें सलाखों के पीछे डाल रही है। पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी भी इसी दमन की एक अगली कड़ी है। नक्सलवाद से पूरी तरह वैचारिक विरोध रखने वाले संगठन पीयूसीएल की सदस्य और पत्रकार सीमा आजाद की गिरफ्तारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला तो है ही, साथ ही जनपक्षधार राजनीति करने वालों और जनता के पक्ष में संघर्ष करने वालों का मुंह बंद करने की कोशिश भी है। जाने माने साहित्यकार नीलाभ ने भी सीमा आजाद की गिरफ्तारी का जोरदार विरोध किया है। वह एक ब्लॉग में लिखते हैं ''अभय ने अपने ब्लॉग में पुस्तक मेले का जिक्र किया है। मजे की बात है कि पांच फरवरी को उसी पुस्तक मेले में अभय, मैं और सीमा साथ थे और जिस साहित्य को पुलिस और अखबार नक्सलवादी बता रहे हैं, वे पुस्तक मेले से खरीदी गईं किताबें थीं।'' वह लिखते हैं- ''आशंका इस बात की भी है कि स्पेशल टास्क फोर्स सीमा और विश्वविजय को अपनी रिमाण्ड में ले कर पूछताछ करे और जबरन उनसे बयान दिलवाए कि वे ऐसी कार्रवाइयों में लिप्त हैं, जिन्हें राजद्रोह के अन्तर्गत रखा जा सकता है। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां सब कुछ सम्भव है- भरपूर दमन और उत्पीड़न भी और जन-जन की मुक्ति का अभियान भी। यह हम पर मुंहसिर है कि हम किस तरफ हैं। जाहिर है कि जो मुक्ति के पक्षधार हैं, उन्हें अपनी आवाज बुलन्द करनी होगी। अर्सा पहले लिखी अपनी कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं

चुप्पी सबसे बड़ा खतरा है


जिन्दा आदमी के लिए तुम नहीं जानते वह कब तुम्हारे खिलाफ खड़ी हो जायेगी और सर्वाधिक सुनायी देगी


तुम देखते हो एक गलत बात और खामोश रहते हो


वे यही चाहते हैं और इसीलिए चुप्पी की तारीफ करते हैं


वे चुप्पी की तारीफ करते हैं लेकिन यह सच है


वे आवाज से बेतरह डरते हैं


इसीलिए बोलो


बोलो अपने हृदय की आवाज से आकाश की असमर्थ खामोशी को चीरते हुए


बोलो, नसों में बारूद, बारूद में धामाका


धामाके में राग और राग में रंग भरते हुए अपने सुर्ख खून का


भले ही कानों पर पहरे हों, जबानों पर ताले हों, भाषाएं बदल दी गयी हों रातों-रात


आवाज अगर सचमुच आवाज है तो दब नहीं सकती


वह सतत आजाद है।


'सवाल यह है कि क्या हमारी आवाज भी सचमुच आजाद है या उस पर निरंकुश सरकार और उसके तानाशाह अफसरों का पहरा है?

1 टिप्पणी:

arvind ने कहा…

bahut acchi baat likha hai aapne.sacmuch......... kaid me aajad,.........oh.