ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

मंगलवार, मार्च 09, 2010

विकास के बीच महिला की जगह

शालिनी वाजपेयी
हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। कहा जा रहा है कि हमारा देश विश्व शक्ति बनने के द्वार पर है। हमने तकनीकी और सूचना क्रांति में बहुत विश्वास कर लिया है। हम इन विश्वास के सोपानों पर तो गौर करते हैं,लेकिन इसके दूसरी तरफ इस भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के दौर में महिलाओं की क्या तस्वीर है, क्या यह भी हमारे जेहन में आता है। हालांकि ऐसा कहा जाता है कि इस बाजारीकरण के दौर में महिलाएं ज्यादा सशक्त हुई हैं, पहले से कहीं अच्छे पदों पर हैं, अच्छा पैसा कमा रही हैं, अच्छी स्थिति में हैं। अब पायलट से लगाकर राष्ट्रपति तक महिलाएं हैं। सच्चाई यह है कि जहां तक महिलाएं बाजार का साथ देती हैं और पुरुष सत्ता के खिलाफ नहीं खड़ी होतीं, वहीं तक उनको आगे बढऩे का मौका मिलता है। लेकिन जहां वह अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है, वहीं से उनकी चुनौतियां शुरू हो जाती हैं। दमन, प्रताडऩा और हादसों का सिलसिला शुरू हो जाता है। हत्या, बलात्कार, यौन उत्पीडऩ, मानसिक प्रताडऩा और घरेलू हिंसा जैसे अपराध शुरू हो जाते हैं। इसकी बानगी के तौर देखें तो पंचायती चुनाव में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण मिल गया। इस उपलब्धि का सभी ने खूब स्वागत किया। लेकिन इसके पीछे का सच यही है कि वहां महिलाओं का स्वतंत्र प्रतिनिधित्व नहीं होता है, बल्कि आज भी उनके पति ही ग्रामीण सत्ता का उपभोग करते हैं। महिलाएं केवल अंगूठा लगाने या दस्तखत करने तक सीमित हैं। यही नहीं, अब तो ‘प्रधान पति’ या ‘बीडीसी पति’ जैसे नाम भी राजनीति शब्दकोश में प्रवेश कर गये हैं।
महिलाओं के प्रति अपराध की घटनाएं इस बाजारवादी समाज में लगातार बढ़ती गई हैं। क्योंकि जैसे-जैसे महिलाओं के हाथ में शक्ति आ रही है, वह इस पुरुष-सत्ता के खिलाफ भी खड़ी हो रही हैं। नतीजा तरह-तरह की प्रताडऩा, यहां तक कि हत्या,बलात्कार भी। और, प्रशासनिक तंत्र भी अपराधियों का साथ देकर उन्हें ही मजबूत करता पाया जाता है। चाहे वह आरुषि हत्याकांड हो या रुचिका गिरहोत्रा का मामला, सभी मामलों को अजीबोगरीब भूल-भुलैया में उलझा दिया जाता है। बहुत हंगामा मचता है तो एक-दो साल की जेल देकर मामला रफा-दफा कर लिया जाता है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को तो यह सिंहासन ही उनके इस वादे पर मिला था कि वह आते ही गुंडाराज के खिलाफ और महिला सुरक्षा के प्रति कदम उठाएंगी। लेकिन तस्वीर इसके बिल्कुल उलट निकली। महिलाओं के प्रति अपराध घटने के बजाय और बढ़ गए हैं। जिस शासन में डीपी यादव, अन्ना शुक्ला, रमाकांत और मुख्तार अंसारी जैसे सांसद-विधायक होंगे, वहां महिलाएं कितनी सुरक्षित होंगी- यह सहज ही समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में सामंती धाक जमाए रखने के अखाड़े आज भी स्त्री-शरीर ही हैं। प्रेम-प्रसंगों में खाप पंचायतों से लेकर जेहादी लव तक सभी जगहों पर महिलाओं के खिलाफ ही तानाबाना बुना जाता है। प्रेम विवाह पर रोक लगाकर यह सामंती संस्थाएं महिलाओं की जीने की आजादी को ही कैद कर लेना चाहती हैं, क्योंकि प्रेम विवाह में स्त्री के निर्णय का भी अहम रोल होता है। राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़ों की बात करें तो देश में महिलाओं के प्रति कुल अपराधों की संख्या का आधा सिर्फ यूपी का है। पहले उत्तर प्रदेश महिलाओं के साथ अपराध में मध्य प्रदेश के बाद दूसरे नम्बर पर आता था लेकिन अब ‘प्रगति करते हुए’ पहले नम्बर पर आ पहुंचा है। 2009 में महिलाओं के प्रति कुल अपराधों की संख्या जहां देशभर में 8179 है, वहीं 4601 मामले अकेले यूपी के हैं। 2006 में महिलाओं के प्रति अपराधों की संख्या 2155 थी, जो 2007 में लगभग दोगुनी यानी 4218 हुई। तभी यूपी में सुनहरे वादों के साथ मायावती का प्रवेश होता है और यह संख्या 2008 में बढ़कर 4712 हो जाती है, फिर 2009 आते-आते 4601 पर पहुंचती है। यह हाल है दलित व महिला मुख्यमंत्री मायावती के शासन का। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, पूरे देश की एक चौथाई दहेज-हत्या अकेले यूपी में होती है। इनकी संख्या करीब 2076 है। बच्चियों से बलात्कार के मामले में भी 2008 में उत्तर प्रदेश शीर्ष पर रहा, जहां ऐसे 900 मामले सामने आए। उत्तर प्रदेश के बाद मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में बच्चियों से बलात्कार के सबसे ज्यादा मामले दर्ज किए गए। गृह मंत्रालय के हालिया आंकड़ों के मुताबिक, पिछले तीन वर्ष में बच्चियों से बलात्कार के मामलों की संख्या में भी लगातार वृद्धि दर्ज की गई है। आंकड़ों के मुताबिक, 2008 में यूपी में इस तरह के 900, मध्य प्रदेश में 892, महाराष्ट्र में 690, राजस्थान में 420 और आंध्र प्रदेश में 412 मामले सामने आए। इस पर भी मायावती कहती हैं कि हमें प्रधानमंत्री बनाओ। महिला और दलित विरोधी शक्तियां हमें प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने नहीं दे रही हैं।
अभी ताजा घटना है, जब हमीरपुर की 16 साल की दलित लड़की बलात्कार का शिकार होने के बाद पुलिस स्टेशन गई तो पुलिस ने बजाय भुक्तभोगी का साथ देने के, बलात्कारी को ही बचाया। इतना ही नहीं, पुलिस लड़की और उसके परिवार वालों को धमकाती भी रही। इससे परेशान होकर लड़की ने 16 फरवरी को आग लगाकर खुदकुशी कर ली। खुदकुशी की खबर मिलने के बाद ही पुलिस हरकत में आई। कानपुर की नीलम गुप्ता की खुदकुशी का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था कि एक नई घटना सामने आ गई। उत्तर प्रदेश में इंसाफ के लिए पीडि़त लड़कियां दम तोड़ रही हैं, लेकिन महिला मुख्यमंत्री हैं कि अपने पार्कों और मूर्तियों की दुनिया में ही इतनी मशगूल हैं कि उन्हें यह तस्वीर जैसे दिखाई ही नहीं देती। अभी पिछले ही महीनों की बात है, जब सीतापुर जिले के मछरेहटा ब्लॉक में प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका आराधना की हत्या कर दी गई थी। जब देश के सर्वोच्च पद पर महिला है, केंद्रीय सत्ताधारी पार्टी की अध्यक्ष महिला है और लोक सभा की अध्यक्ष भी महिला है, उस पर भी मुख्यमंत्री महिला- तब महिलाओं के साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है। यह बहुत ही भयावह तस्वीर है। महिला शासन में ही महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। जहां छह साल की बच्ची से लगाकर अस्सी साल की बुजुर्ग महिला भी बलात्कारियों से बच नहीं पाती है। जहां रात के अंधेरे की तो बात छोडि़ए, दिन के उजाले में भी महिलाएं भय से सड़कों पर खुलकर चल नहीं पातीं। ऐसे माहौल में किस महिला सशक्तीकरण की बात हो रही है। कौन-सा सशक्तीकरण हो रहा है। कैसा विकास हो रहा है। आज भी महिलाएं वहीं खड़ी हैं, जहां चार दशक पहले खड़ी थीं। यह पहले भी प्रमाणित हो चुका है कि आर्थिक समृद्धि ही मुक्ति का प्रतीक नहीं है। दरअसल, विकास के सोपान पर खड़ी महिलाएं भी पुरुष सत्ता का ही प्रतिधित्व करती हैं। हम आज भी क्या उसी मध्ययुगीन सामंती समाज में नहीं जी रहे हैं, जहां बाल विवाह और सती माता जैसी कुप्रथाएं इज्जत से पूजी जाती हैं? सती महिलाओं के मंदिर बनते हैं तो आखिर इन मंदिरों से क्या संदेश जाता है? यही न, कि सती हो जाओ तो तुम्हें भी हम ऐसे ही पूजेंगे! लानत है ऐसी मानसिकता पर!
यह 2010 अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का शताब्दी वर्ष है। इस वर्ष हम लोरतंत्र समर्थक, प्रगतिशील लोगों और नारी मुक्ति की लड़ाई लडऩे वालों से यही आशा करते हैं कि वे एकजुट होकर महिलाओं के हक-हुकूक, स्वावलम्बन और मर्यादा की लड़ाई देश-दुनिया में पूरी मुखरता के साथ लडेंग़े।

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