ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

गुरुवार, दिसंबर 24, 2009

आशाओं की आबादी खुशियों की दुनिया

साभार,मानव आजकल
उसका नाम आशा है लेकिन उसकी कोई भी आशा पूरी न हो सकी, सिवाय इसके कि वह अपने बाऊ जी और खानदान की आशाओं की टोकरी बनकर रह गयी। आज वह घर का चूल्हा-चैका कर लेती है, दो बच्चे पैदा कर लिये हैं, उनका पालन और पोषण कर लेती है। जिन्दगी की इस जमा खर्च में उसकी असली पूँजी कहीं खो गयी, बस शाम ढ़लते ही पेशे से ठेकेदार पति और उसके दोस्तों के लिए सोमरस की टेबल सजाना उसकी नियति बनकर रह गयी है। उसकी नियति यह भी है कि वह अपने पति से अपनी कोई तकलीफ़ कह नहीं सकती, बहुत मजबूरी में अगर उसे कुछ मना करना पड़े तो गन्दी गालियां और लात-घूसे उसके लिए प्रसाद की तरह हैं। उसका पहला बच्चा लड़की थी, इसलिए दूसरे बच्चे के लड़की होने पर उसकी जान जोखिम में डालकर गिरवाया गया। वह बताती है कि अगर उसे पढ़ने दिया गया होता तो आज वह नौकरी कर रही होती या अपनी पसन्द के किसी क्षेत्र में नाम कमा रही होती, लेकिन इससे पहले कि वह अपनी पसन्द और नापसन्द समझने लायक हो पाती कक्षा 8 में ही उसकी पढ़ाई छुड़ाकर शादी कर दी गयी। आशा को अपने भविष्य से कितनी आशा थी, इसका बखान उसके कक्षा 8 तक के अंकपत्र और मैडल कर देते हैं। हर कक्षा में पहला स्थान और भारतीय व्यायाम, विशेष प्रदर्शन, खो-खो, कबड्डी, नाटक और गायन में जिले से लेकर राज्य स्तर तक प्रतिनिधित्व। दरअसल उसकी सफलता की यही तेज रफ्तार उसके लिए उसका सबसे बड़ा काल साबित हुआ, समाज और बिरादरी के लोग चिल्लाने लगे कि ऐसी लड़की से शादी कौन करेगा, जो सरे बाजार नाच रही है और कर दी उसके माँ और बाप ने शादी। इस तरह समाज की आशाओं के बोझ तले बिना चीखे दबकर रह गयी आशा की एक-एक आस।
लेकिन खुशी का दुख कुछ और ही है। खुशी की खुशमिजाजी देखकर यह सोच पाना भी मुश्किल होगा कि उसे सफलता की ऊँचाईयां तय करने के रास्ते में कदम-कदम पर कांटों से संघर्ष करना पड़ा होगा। खुशी बताती है कि उसके स्त्रीत्व का यातनामय सफर उसी समय शुरू हो चुका था, जब उसे यह तक नहीं मालूम था कि बच्ची को प्यार करने के लिए गोद में बैठाने और उसे चूमने की सहजता में कुछ लोगों के मन में रिश्तों और मानवता की गरिमा लांघने तक की गन्दगी होती है। जब से वह यह समझने लायक हुई, उसे अपने बहुत से रिश्तेदारों और परिचितों से घिन आने लगी। वह झिझकते हुए बताती है कि जब 13 साल की थी तो उसे ट्यूशन पढ़ाने वाले टीचर ने घर में अकेला पाकर जबरजस्ती करने की कोशिश की। उसने पापा को बताया तो उन्होंने बेइज्जती के डर से उसके खिलाफ कोई कानूनी कदम नहीं उठाया बस कसम खायी कि अब कोई ट्यूटर नहीं लगवायेगें। इसके बाद उसे कोचिंग भेजा जाने लगा, आते-जाते उसे रास्ते भर अश्लील कमेंट सहने की आदत हो गयी। हद तब हो गयी, जब कोचिंग के एक टीचर से उसने किसी विषय के बारे फिर से जानने की जिज्ञासा जाहिर की तो उसने रविवार को अपने घर आने को कहा, जब वह अपनी दीदी के साथ उसके घर गयी तो वह घर पर अकेला था और उसने बताया कि उसकी पत्नी मायके गयी है। चलते-चलते उसने मौका पाकर कह ही दिया कि आगे से अकेले आना। इसके बाद उसके घर वालों ने विश्वविद्यालय में उसके पढ़ने के सपने को चकनाचूर कर कॉलेज में दाखिला दिलाया। किसी तरह से लड़-झगड़कर उसने विश्वविद्यालय में शोध के लिए घर के लोगों को राजी किया तो सर मुड़ाते ही ओले पड़ गये। उसके शोध निर्देशक ने उसे घण्टों बैठाये रखते, कभी-कभी विश्वविद्यालय सूनसान होने तक और उससे ऐसी बातें करते जो एक शिक्षक और उम्र दोनों के लिहाज से उन्हें नहीं करनी चाहिए। उसके शब्दों में ” वह ऐसी बातें करते हैं जैसे अपनी पत्नी से बात कर रहे हों।“ बातों की बत्तमीजी बर्दाश्त भी कर ली, गाइड करने के लिए घर आने के आमंत्रण और साथ में टूर पर जाने के ऑफर को भी ठुकरा दिया, गेस्ट फैकल्टी बनने और इण्टरनेशनल जर्नल में पेपर प्रकाशित करने के लोभ से भी खुद को बचा लिया। इसके बावजूद उसकी अस्मिता पर विश्वविद्यालय में रिसर्च मेथोडोलॉजी समझाने के बहाने चोट करने की कोशिश की गयी। इसके बाद वह विश्वविद्यालय जाने से बचती ही नहीं है बल्कि सिहर उठती है।
खुशी के दुख का अंत यहीं नहीं होता। एक बार उसे एक सेमिनार के लिए पेपर तैयार करना था और वह अपने गाइड से मदद की रिस्क नहीं लेना चाहती थी। इस पर उसके पापा ने उसे अपने एक अवकाश प्राप्त प्रोफेसर मित्र से मदद लेने को कह दिया। वहाँ पर जो कुछ हुआ, उसका पता चलने के बाद खुशी के पापा का खुद पर से विश्वास उठ गया। अपनी जिन्दगी का करीब 70वां दशक पूरा करने जा रहा वह प्रोफेसर कुछ ही क्षण में न सिर्फ अश्लीलता पर उतर आया बल्कि खुश करने के बदले एक एनजीओ में हजारों की नौकरी का प्रलोभन भी देने लगा।
यह तो नजीर भर है हमारे हमारे तथाकथित सभ्य समाज की। ऐसी न जाने कितनी आशायें और खुशियाँ अपनी बेबसी पर रो रही हैं। हर दिन बदले नाम और पते के साथ वही बलात्कार की खबर, दहेज के लिए मारे जाने या फिर दहेज के चलते शादी न होने पर खुदखुशी की खबर, प्यार करने की सजा गला काटकर, रास्ते से उठाने की खबर, चंद नोटों की खातिर हवस की मंडी में बेच दिये जाने की खबर और कुछ नहीं तो धोखे से अश्लील फिल्म बनाकर बेचे जाने की खबर। ये तो खबर हैं जिनका कुछ प्रतिशत छनकर मीडिया के जरिये बाहर आ भी जाता है लेकिन घर की चार दीवारी और बड़े-बड़े प्रतिष्ठानों के बहरे दीवारों के बीच फंसकर रह जाने वाली ऐसी घटनाओं का कोई रिकार्ड नहीं है।
एक रिपोर्ट के अनुसार 50 प्रतिशत कामकाजी महिलाओं को अपने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। इसमें से करीब 70 प्रतिशत महिलायें सीटी बजाने, कटाक्ष, कामुक टिप्पणी और यौन संकेतो के कारण यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं और 25 प्रतिशत के लगभग स्पर्श जैसे उत्पीड़न की पीड़ा झेलती हैं। इसी तरह से देश भर में हर रोज बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने के मामले चालीस से पचास के बीच में होते हैं। केवल भारत की राजधानी को ले लें तो हर सत्रह घंटे में यहाँ एक महिला का यौन शोषण होता है। एक अध्ययन के अनुसार 80 प्रतिशत बलात्कार के मामले 10 से 30 वर्ष की युवतियों के साथ होते हैं। चैकाने वाला तथ्य यह है कि 10 वर्ष कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार के मामले भी 4 प्रतिशत पाये गये हैं, यह दिखाता है कि यौन पिपासा हमारे समाज को कितना पतित कर चुकी है।
इसी तरह प्रत्येक 33 मिनट में एक अर्थात एक दिन में 43 और एक वर्ष में 15617 लड़की के अपहरण के मामले दर्ज किये जाते हैं। एक अध्ययन के अनुसार इस समय देश में 30 लाख से भी ज्यादा वेश्यायें हैं, जिनमें से करीब 35 प्रतिशत लड़कियां ऐसी हैं, जिनकी उम्र 18 साल से कम है और इनकी संख्या 10 लाख के करीब बतायी जाती है। हर साल करीब 8 से 10 प्रतिशत लड़कियां इस पेशे से जुड़ जाती है। सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि 15 प्रतिशत लड़कियों के इस पेशे को कैरियर के रूप में अपनाने का तथ्य सामने आया है। वेश्यावृत्ति के कारण महिलाओं के गिरते स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में चिन्हित किये गये रेड लाइट इलाकों की संख्या 1100 से भी अधिक है। विवाह के पवित्र रिश्ते का सच यह है कि इसकी दहेज रूपी आग में हर साल 15 हजार से भी ज्यादा महिलाओं को सताया जाता है, तो 7 हजार से अधिक महिलाओं को जलाकर राख कर दिया जाता है।
फिलहाल ये महिलाओं के प्रति ऐसे अपराध हैं जिनके कुछ तो आंकड़े उपलब्ध हैं लेकिन बहुत से अपराध ऐसे हैं जिनके आंकड़े जुटा पाना भी मुश्किल है। घरेलू हिंसा कुछ इसी तरह का अपराध है। इसके अलावा व्यक्तिगत दुश्मनी हो, संपत्ति का विवाद हो, युद्ध हों, दंगा हो या फिर विद्रोह हो हिंसा का केन्द्र महिलाओं को बनाया जाता है। इसी तरह विधवाओं को संपत्ति, शक्ति और कामवासना के कारण यातना दी जाती है। लड़की होते ही मार देने के चलते देश के लिंगानुपात में कोई खास सुधार नहीं हो पा रहा है। उधर जातीय पंचायतों और परिवार के इज्जत के नाम पर महिलाओं की आबरू से रोज खेला जा रहा है। कभी छोटी जाति के लड़के से प्यार के नाम पर, कभी बड़ी जाति के लड़के से शादी के नाम पर, छोटी जाति की होकर महिला सरपंच बनने पर, मालिक की बात न मानने पर और तो और प्रेम प्रस्ताव स्वीकार न करने तक के नाम पर, उन्हें जलाया जा रहा है, नंगा करके घुमाया जा रहा है, सरेआम बलात्कार किया जा रहा है और कुछ नहीं तो उन पर तेजाब फेंककर अपने पुरुषत्व का ढिढोरा पीटा जा रहा है।
नैना साहिनी, जेसिका लाल और अब आरूषि के दर्दनाक अंत से कौन नहीं दहल गया। जोहरा बानो आज एक नजीर बन गयी है। इसके बावजूद भी महिलाओं के प्रति पुरुषोचित दमन खत्म होने के नाम नहीं लेता। केवल पिछले कुछ महीनों के अखबारों की कुछ खबरों पर नजर भर डालते लेते हैं, लड़की से रेप के आरोप में तांत्रिक गिरफ्तार, भोपाल में इंजिनियरिंग की छात्रा से रेप, तीन पर केस, एमपी में दलित सरपंच के साथ गैंगरेप, दवा कंपनी की मैनेजर से रेप, डॉक्टर फरार, सातवीं क्लास की छात्रा से रेप, दिल्ली में नेपाली महिला के साथ सामूहिक बलात्कार, मुम्बई में गैंगरेप के बाद महिला को जलाया, ब्लू फिल्म नहीं देखी तो गर्लफ्रेंड को लगा दी आग और तो और हमारी भावी पीढ़ी कैसी बन रही है, इसे देखिए, टीनएजर ने बनाया बच्चियों को हवस का शिकार और नौ साल का बच्चा रेप के आरोप में गिरफ्तार।
ये कैसा समाज बना रहे हैं आज हम जिसमें लोकतंत्र के नाम पर आधी आबादी को शेष आबादी अपनी जागीर समझती है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने महिलाओं की हालत सुधारने के लिए उपाय नहीं किये हैं। हिन्दू विवाह अधिनियम-1955, विशेष विवाह अधिनियम-1954, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956, हिन्दू दत्तक पुत्र एवं अनुरक्षण अधिनियम-1956, बाल विवाह प्रतिरोध अधिनियम-1952, मातृत्व हितलाभ अधिनियम-1976, समान पारिश्रमिक अधिनियम-1976, कारखाना अधिनियम-1976, खान अधिनियम-1952, द मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी एक्ट-1971, दहेज निरोध अधिनियम-1961, अनैतिक व्यापार अधिनियम-1956, अपराध कानून में संशोधन-1983, परिवार न्यायालय, महिलाओं के प्रति अभद्र प्रस्तुतीकरण अधिनियम-1986, सती आयोग-1987 जैसे अनेकों अधिनियम बनाकर संविधान के अनुरूप महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने और उनकी दशा में सुधार की रूपरेखा तैयार की गयी। इसी तरह 1991 में महिला आयोग अधिनियम पारित किया गया। इससे लड़कियों का अल्पायु में विवाह प्रतिबन्धित करने, एक विवाह करने, तलाक लेने, पिता, पति और पुत्र की संपत्ति पर अधिकार पाने का हक तो मिला ही साथ में समान अवसर, कार्यस्थल पर सुरक्षा सहित समान मेहनताना और मातृत्व अवकाश का अधिकार भी मिला।
महिलाओं को सामाजिक कुरीतियों से बचाने के प्रावधानों के साथ-साथ उनको समाज की मुख्यधारा में शामिल करने की दिशा में उनके शैक्षिक और आर्थिक सशक्तिकरण के भी प्रयास किये। गुलाम भारत में महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ी गयी और महिला विद्यालयों की स्थापना के जरिये उनकी आजादी के दरवाजे खोले गये। आजाद भारत में सहशिक्षा और समान पाठ्यक्रम के जरिये महिलाओं की उन्नति के मार्ग प्रशस्त किये गये। पिछले कुछ वर्षों में कस्तूरबा गाँधी शिक्षा योजना, कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय योजना, महिला शिक्षा के लिए कंडेस्ड कार्यक्रम, महिला समाख्या कार्यक्रम, सर्व शिक्षा अभियान, जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम, बालिका शिक्षा हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रम, शिक्षाकर्मी कार्यक्रम, राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय संस्थान, शिक्षा गारंटी योजना और दोपहर भोजन योजना जैसे अनेक कार्यक्रमों के जरिये महिलाओं की दशा में सुधार के उपाय किये गये हैं। करीब चार साल होने को हैं, भारत सरकार ने इकलौती कन्या शुल्क मुक्त शिक्षा योजना चालू की है। इसके तहत माता-पिता की इकलौती संतान के लड़की होने पर 6वीं से 12वीं तक निःशुल्क शिक्षा तथा विश्वद्यिालय स्तर पर इन्दिरा गाँधी छात्रवृत्ति दी जाती है। इसी तरह 2006 से सरकार आठवीं पास कर 9वीं कक्षा में नामांकन कराने वाली छात्रा को तीन हजार रूपये की राशि प्रदान करती है।
इसी तरह महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए अनेकों योजनाओं के जरिए उन्हें रोजगार और व्यवसाय का तकनीकी और व्यवहारिक प्रशिक्षण प्रदान किया जा रहा है तथा आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करायी जा रही है। महिला स्वयंसिद्धा योजना, महिला स्वाधार योजना, महिला उद्यमियों के लिए ऋण योजना, स्वशक्ति योजना, किशोरी शक्ति योजना, जननी सुरक्षा योजना, किशोरी पोषण योजना जैसी हाल की योजनाओं के अलावा बहुत सी पहले से चली आ रही रही महिला सशक्तिकरण योजनाओं के जरिये महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने में बहुत हद तक मदद मिली है। यही नहीं पिछले कुछेक दशकों में भ्रूण हत्या को रोकने के कानून को और सख्त बनाया गया, तलाक के पारम्परिक कानून में संशोधन किया गया, छोड़ी गयी महिलाओं के लिए गुजारे-भत्ते का प्रावधान किया गया, बालिकाओं के लिए शिक्षा को अनिवार्य बनाया गया, घरेलू हिंसा से सुरक्षा के लिए निरोधक कानून लाया गया, अनैतिक व्यापार और मानव तस्करी अधिनियम में संशोधन किया गया, सुरक्षा गृह तथा समन्वित देह व्यापार विरोधी इकाई का गठन किया गया, पैतृक संपत्ति में महिलाओं को समान कानूनी अधिकार प्रदान किया गया, 73वां और 74वां संविधान संशोधन करके क्रमशः पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं को उनके सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण प्रदान किया गया, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय महिला कोष को और कार्यशील बनाया गया, ग्रामीण महिलाओं के लिए ‘चलो गाँव की ओर’ कार्यक्रम चलाया गया, बाल विवाह को अधिक गम्भीर अपराध घोषित किया गया।
इसमें दो राय नहीं है कि ऐसे प्रावधानों और योजनाओं से महिलाओं के जीवन में बदलाव आये हैं, मगर ये बदलाव आजादी के छ दशक पूरे होने के लिहाज से कुछ भी नहीं हैं क्योंकि विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट-2007 में भारत को विश्व की सबसे अधिक लिंगभेदी अर्थव्यवस्थाओं में 10वां स्थान दिया गया। आर्थिक भागीदारी और समान अवसर के लिहाज से 128 देशों की सूची में भारत 122वें पायदान पर है। लिंगभेद सूचकांक में महिलाओं की आर्थिक स्थिति, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीतिक दलों में हिस्सेदारी के दृष्टिकोण से भारत का 114वां स्थान है। भारत में लिंग समानता का स्तर महज 59.4 प्रतिशत ही है।
आज भी महिलाओं के लिए कई क्षेत्रों में अवसर नहीं हैं और विभिन्न क्षेत्रों में वे सामाजिक उपहास के चलते काम करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। सेना में महिलाओं के राह भले खुली है, मगर अभी असमानता के मुश्किल दौर से गुजर रही हैं। कुछेक खेलों को छोड़ दें तो महिलाओं की टीम के साथ खेल भावना और पेशेवर दोनों आधार पर दोयम दर्जे का बर्ताव किया जाता है। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि देश के लिए जब टीम का चयन किया जाय तो उसमें महिला पुरूष को नहीं या उनकी अलग-अलग टीम नहीं बल्कि लिंगभेद को किनारे रखकर एक बेहतर खिलाड़ी का चयन किया जाय। इसके लिए अन्तरराष्ट्रीय खेल नियम बदलने होगें लेकिन हमें बदलाव से गुरेज क्यों है, क्यों नहीं हम तोड़कर रख देते हैं सांस्कृतिक और सामाजिक असमानता के इस लिंगभेद को। इस असमानता के लिंगभेद को समाप्त करने के कायदे और कानून बनाने के मंदिर में ही अभी लैंगिक समानता कानून का रूप नहीं ले पायी है। संसद और विधानमंडलों में महिला आरक्षण से संबधित विधेयक अभी भी स्वीकृत नहीं हो सका है। देश की करीब आधी आबादी रखने वाली महिलाओं का लोकसभा में प्रतिनिधित्व महज 10 फीसदी से कुछ ज्यादा है और अगर इसका आकलन सामाजिक न्याय के पैमाने पर किया जाय तो यह आंकड़ा औधें मुँह गिरता है।
महिलाओं की परिस्थिति का सही अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया में किये काम के घण्टों में 60 प्रतिशत से अधिक योगदान महिलायें करती हैं लेकिन उन्हें दुनिया की आय का महज 10 प्रतिशत प्राप्त होता है और वे केवल 1 प्रतिशत संपत्ति की मालिक हैं। यही नहीं पूरे विश्व में केवल 15 प्रतिशत महिलायें उच्च प्रबंधकीय पदों पर हैं और 70 प्रतिशत महिलायें गरीब तथा अनपढ़ लोगों में आती हैं।
जाहिर सी बात है कि अगर आबादी का वह आधा हिस्सा जो परिवार, समाज और संस्कृति का केन्द्र ही नहीं होता बल्कि भावी पीढ़ी का सृजनकर्ता भी होता है, वही सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप कमजोर होगा तो हम बेहतर समाज, राष्ट्र और विश्व के वादे को कैसे पूरा कर पायेगें। इसके लिए हमें महिलाओं को हर वह आजादी लौटानी होगी, जो कभी हमने उनसे हड़प ली थी।
प्रस्तुतकर्ता विनय जायसवाल

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