बचपन की कई यादें जब विश्लेषण के दौर से गुजरती हैं,तो बहुत कुछ बोल जाती है। कारण कि मैं बचपन में बहुत डरने वाला और लोगों से दूर भागने वाला बच्चा था। जिसका असर अभी भी महसूस करता हूँ। मैं इसके कई कारण देखता हूँ। पहला,सबसे छोटा था तो सभी का दुलारा हो गया। कभी किसी ने तेज आवाज में बात नहीं की या कहें तो अति सुरक्षित माहौल का आदी हो गया था। जैसे उस माहौल से बाहर आता तो असुरक्षा महसूस होने से डर लगने लगता था। दूसरी बात,पिता जी ने जीवन का पाठ पढ़ाते हुए अनजाने में मेरी बालपन की सामाजिकता का हनन कर दिया था। मैं बड़ों जैसी बातें करता था,वे मुद्दे मेरी चिंताओं में थे,जो आज मुझे खुद पर ताज्जुब करने को मजबूर करते हैं। मेरी धार्मिक रुचियों को असीमित विस्तार दे दिया गया था। नैतिकता और अनैतिकता की चर्चा ने सत्य को लेकर इतना आग्रही बना दिया गया था कि बच्चों के खेल में होने वाली धांधली पर मैं बिलबिला उठता था। दूसरे के साथ वैसा व्यवहार न करो,जैसा तुम्हे बुरा लगता हो,इसका असर था कि मेरी पहल करने की क्षमता कमजोर हो गई थी। खैर,मेरी कमियां व्यक्तिगत हो सकती हैं। लेकिन जब अपने भतीजे के बारे में सोचता हूं तो कई सवालों में उलझ जाता हूँ। प्रश्न होता है कि आखिर इसके साथ कैसा व्यवहार करूं,जिससे इसका बचपन अपने बचपने को जीने में सक्षम हो सके। उसकी पढ़ाई को लेकर घर वालों की चिंता देखने लायक है। जबकि मेरा मानना है कि कम उम्र में स्कूल भेजना ज्यादा ठीक नहीं है,इससे उसके पास समय की कमी हो जाएगी। एक बार किताब के बस्ते में सिर घुसा तो जबतक कहीं नौकर न हो जाये या थक हार कर बेदम न हो जाये,बस्ता पीछा नहीं छोडेगा। लेकिन इससे दूसरी दिक्कतें भी हैं। जैसे जब वह अपनी उम्र के लड़कों को स्कूल जाते देखता होगा तो क्या सोचता होगा या जब कोई पूछता है कि कहां पढ़ रहे हो तो उसके बालमन पर क्या गुजरती होगी। यह सवाल बहुत परेशान कर रहा है। शायद इतना कि अगले सत्र में उसका एडमिशन कराने पर लगभग सहमति बन चुकी है।
भतीजे को लेकर हो रही गतिविधियां कई और समस्याओं की तरफ इशारा कर रही हैं। ये समस्याएं मैंने और मुझ जैसे कईयों ने झेली थीं। भतीजे का बार-बार जिक्र इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि वह नई पीढ़ी का पहला सदस्य है। बालपन के डर का सम्बंध भाषा व बोलियों के बदलावों से भी है। जैसे भतीजे से किसी रिश्तेदार ने पूछा कि बेटा ! क्या नाम है ? तो वह चुप हो गया। उसके बाद फिर उसी रिश्तेदार ने पूछा कि बेटा ! का नाम है ? उसने अपना नाम बता दिया। मतलब खड़ी बोली में पूछे गये प्रश्न से वह असहज था,तो स्थानीय बोली के प्रश्न का जवाब देना आसान साबित हुआ क्योंकि रोज सुबह-शाम इसी बोली में उठता बैठता है। मुझे बखूबी याद है कि जब मैं शहर पढ़ने आया था तो पहली हाजिरी के वाकये को याद दिलाकर एक अध्यापिका(घर आने पर ही,स्कूल में नहीं) ने कई बार मजाक किया। तब भी प्रश्न बदली हुई बोली का था। नाम पुकारे जाने पर मैं आदतन ‘का होये’ बोल गया,जबकि दूसरे बच्चे ‘यस सर या यस मैडम’ बोल रहे थे। ठेठ अवधी बोलने वाले परिवार में जन्म होने के नाते खड़ी बोली से दूर का ही नाता था। गांव का परिवेश ऐसा कि खड़ी बोली बोलने वाले को ‘अंग्रेजी बूंकने’ वाला कहकर मजाक उड़ाया जाता था। हालांकि खड़ी बोली को अंग्रेजी बताने वाला जुमला कई और इलाकों में चलता है।
बदलते संचार माध्यमों और आवागमन की सुविधा के बीच शहर और गांव के बीच का सम्पर्क तेज हुआ है। लेकिन बोली को लेकर दुराग्रह कम होने का नाम नहीं ले रहा है। कई लोगों का अनुभव है कि अगर आप खड़ी बोली में बोल रहे हैं तो लोग बात को सही मानेंगें लेकिन अगर आपने स्थानीय भाषा का इस्तेमाल किया तो बात का असर कमजोर दिखाई देखा। समस्या अधकचरी शिक्षा प्रणाली से उपजे लोगों की है। ऐसे लोग बच्चे को पढ़ाते समय बकरी को गोट,बंदर को मंकी या कुत्ते को डॉग कहे जाने की जानकारी ही नहीं देते हैं,बल्कि बाकायद नियम से उससे कहलवाला भी चाहते हैं। जबकि आसपास का माहौल पूरी तरह से देसज है। ऐसे में बच्चा कई उलझनों का शिकार हो जाता है। जैसे भतीजा जब अपने नानी के यहां गया तो उसकी बड़ी ममेरी बहन ने शिकायत कि पहले यह पैरेट बोलता था,अब तो बर्बाद हो गया है,तोता बोलने लगा है। जबकि वह पास के प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका हैं। अब समझ में नहीं आता कि इस बात का किस लिहाज से मूल्यांकन किया जाए ? लोगों के बीच अंग्रेजीशुदा होने का दबाव इसलिए भी है क्योंकि अंग्रेजी को रोजगार पाने की सफलता व असफलता से जोड़कर देखा जाता है। हो भी क्यों न हो,प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी करने वाले लोगों की शिकायत होती है कि अच्छा लिखने जानने के वावजूद अच्छे अंक नहीं आते हैं। यानी राज्य जिस भाषा को खारिज करता है,लोग भी उसी भाषा को खारिज कर रहे हैं। आज अंग्रेजी न जानने को अयोग्य करार दे दिया जाता है,भले ही उसके पास कहने सुनने को बहुत कुछ हो।
खैर,भतीजे के भीतर किसी तरह का भय घर न कर जाये इसके लिए मैंने महसूस किया है कि मैं उसके सामने अपने सभी आस-पास लोगों से स्थानीय बोली में संवाद करूं। साथ ही उसे अन्य भाषाओं व बोलियों की संचार के सम्बंध में उपयोगिता समझाते हुए अपनी भाषा और बोली की जरूरत भी समझाऊं । ताकि किसी भाषा या बोली को बोझ के बतौर या रोजगार के लिए ही जानने की जगह बेहतर संचार क्षमता पैदा करने के लिए सीखे सके। पूरे मसले पर आपकी राय का इंतजार है।
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें