एक अंधविश्वास था कि जूता सुंघाने से वेहोश को होश आ जाता है....जरनैल सिंह ने बड़ी सफाई से यही काम कर डाला.....मुंतजर अल जैदी की पत्रकारीय विधा का भारतीय संस्करण काफी असरदार साबित हुआ....कहा यह जाना चाहिए कि जहां पर सारे संवैधानिक उपाय ठिगने साबित हो रहे थे,वहीं पर एक असामान्य सी प्रतिक्रिया ने जोरदार असर किया है.......वैसे जूते का जिक्र हो तो कई बातें याद हो आती है.....अमेरिका ने जब सद्दाम की सत्ता को फतह किया था...तब सद्दाम की आदम कद प्रतिमा पर लोग जूते मार रहे थे....तब जूता शायद इतना असरदार नहीं था क्योंकि सद्दाम हारी हुई सत्ता का प्रतिनिधि था.....लेकिन इसी इराक में जब अमेरिकी सत्ता शीर्ष पर जूता फेंका गया तो पूरे विश्व ने देखा कि कैसे हिम्मत की एक उम्मीद से जूता बहस के दायरे में आ गया.....किसी ने जूता जर्नलिज्म कहा..... कईयों ने इसे पत्रकारिता के पेशे का गिरता स्तर माना..तो कुछ लोग ऐसे भी थे कि जिन्होंने प्रतिरोध की पत्रकारिता कहा......लेकिन भारतीय संदर्भ में जूते का जिक्र होता ही रहता है...किसी भी नए बने मकान की ऊपरी मंजिल पर जूता लटकता मिल सकता है......ट्रक, बस टैम्पो जैसे वाहनों के पीछे लटकते जूते को हर शहर और मोहल्ले में देखा जा सकता है......अंधविश्वास ही सही लेकिन यहां जूता बुरी नजर वालों से बचाव का सहारा माना जाता है......जूता निहत्थे का औजार भी बनता है....जरनैल का जूता अपने मकसद को हासिल कर गया.....यानि जिन व्यक्तियों को लेकर समाज के एक तबके में इतनी नाराजगी हो उसे पार्टियां टिकट दे देती है....क्या जूता चलने से पहले कभी नाराजगी को महसूस किया गया था...अगर किया गया होता तो शायद ही जरनैल को जूते से प्रतीकात्मक विरोध दर्ज कराने की जरूरत पड़ती........इस बात को दूसरे दंगों के साथ भी देखा जाना चाहिए......नेता अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि इसका फैसला जनता की अदालत में होना चाहिए....तब यह सहज सा प्रश्न उभरता है कि क्या पिछले कई चुनावों में 84 के दंगा पीड़ित अपना फैसला दे पाए थे...अगर वे फैसला दे पाए होते 25 साल बाद सड़कों पर नारे बाजी के लिए न उतरे होते....या फिर यह माना जाय कि ये दंगा पीड़ित लोग जनता की अदालत में शामिल नहीं हैं...ऐसे में तो निर्वाचन क्षेत्र से विजयी उम्मीदवार उस निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधि कहलाने का हकदार नहीं है। क्या इसे लोकतंत्र कहा जाएगा......दंगे इस देश के और कई शहरों में भी हुए हैं...उदारीकरण के बाद के दंगों का ही जायजा ले लें तो एक अच्छी खासी आबादी दिखाई देती है..जिसकी सूची देश व्यापी और लम्बी चौड़ी है.....इन्हें भी न्याय का इंतजार है....देर करने का खामियाजा इससे भयंकर हो सकता है........
यह लिखते हुए अनुराग कश्यप निर्देशित फिल्म "गुलाल" का एक संवाद(डायलॉग) बार-बार याद आ रहा था कि "इस मुल्क ने हर शख्स को,जो काम था सौंपा,उस शख्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी...."
3 टिप्पणियां:
गलत तरीका है मगर जूता का संदेश।
अफसर नेता से बड़ा होता अपना देश।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
जैदी ने तो फिर भी किसी फिरंगी पर जूता फैंका था, लेकिन हमारे देश में तो ये लड़ाई अपनों से ही लड़नी पड़ रही है.... लातों के भूत बातों से नहीं मानते... ऐसे बहरे नेता जब जनता की आवाज को ६० साल में नहीं सुन पाए तो जैदी ने इंकलाब का नया तरीका सुझा दिया..... लेकिन इस माध्यम के इस्तेमाल की भी अब अति हो गई है.....
आपने बहुत अच्छा लिखा है....
मेरे मित्र, जैदी और जरनैल सिंह दोनों की पीड़ा और प्रतिक्रिया में अंतर नहीं किया जा सकता, बात सही है...इस जूता प्रकरण से एक वाकिया याद आता है, किशोरावस्था में मैं एक बाग में खेलते वक्त बंदरों के झुंड में फंस गया था, मैं भागनें में तेज था तो किसी तरह अपनी जान बचा कर भाग और बच गया। मैंनें ये बात अपनी अम्मा को बताई तो अम्मा ने अपने अनुभवों के अनुसार एक टोटका बताया, कि कभी बंदरों के झुंड में फंस जाओ तो अपनी चप्पल या जूता निकाल कर हाथ में ले लेना बंदर तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे...मैंनें पूछा अम्मा क्यों बंदर क्या जूते से डरते हैं? अम्मा बोली कि बंदर इस बात से डरते हैं कि जिस बंदर को जूता पड़ा वो झुंड से अलग कर दिया जाएगा...इसलिए बंदरों के लिए ये टोटका अम्मा के समय प्रासंगिक था तो उन्होनें मुझे बता दिया, पर आज के राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए भी ये प्रासंगिक लगता है, अम्मा तो अब इस दुनिया में नहीं हैं...मैंने उस समय तो उनके टोटके को अंधविश्वास भर माना, पर आज लगता है कि जूता कितना प्रभावशाली है,शायद सही कहा हो अम्मा ने...आखिर इंसान के पुर्वज भी तो बंदर ही थे....
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