टैक्सी ड्राइवर ने जनपथ मार्केट की रेड लाइट पर एक लड़की को ‘हे बेबी’ की फब्ती कस दी। टोकने पर ड्राइवर ने कहा ‘तुम अपना काम करो’ काफी देर तक परेशान करता रहा। बहरहाल नई दिल्ली रेलवे स्टेशन तक पहुंच गया। साधारण टिकट के लिए करीब 50 मीटर लम्बी लाइन में लगा ही था कि गोमती(एक्सप्रेस) 160-160 की आवाज सुनाई दी। 150 कहते हुए इशारा किया। लेकिन उसने बेहिचक मना कर दिया। खिसियाकर पुलिस बुलाने की धमकी देते हुए भगाने लगा। लेकिन वह आदमी भी गजब था। कहने लगा कि 5 हजार के जुर्माने और जेल के अलावा क्या करवा सकते हो। उसके कहने में जो अंदाज था कि मैं खुद की नजरों में उसी का साथी दिखने लगा। लगा कि उसका कहना जायज है। शायद एहसास हुआ कि मैं अपनी छद्म ईमानदारी का बोझ इस छुटभैय्ये के कंधे पर लाद रहा हूँ। क्योंकि जिस अपराध के नाम पर मैं उसे डरा रहा था,उसी अपराध के जरिए थोड़ी देर पहले अपनी सहूलियत खोज रहा था। इसके अलावा टिकट की बड़े पैमाने पर वीआईपी रिजर्वेशन के जरिए ब्लैक मार्केटिंग होने की बात कोई राज नहीं है। इसमें शामिल सफेद पोशों के लिए तो पांच हजार का जुर्माना और पुलिस दोनों बेअसर हैं। कितनी ही बार मंत्रियों,सांसदों के नाम पर दूसरे लोगों को यात्रा करते पकड़ा गया है।
परेशान होकर तत्काल-आरक्षण वाले काउन्टर की तरफ चल दिया। यहां पर "मुस्कान के साथ सेवा" देने वाली भारतीय रेल से सीधे मुखातिब होना था। काउन्टर पर बैठे क्लर्क महोदय अपने मेहमान को निपटाने के बाद लौटे तो कुछ जानकारी मांगने पर मेरे आगे वाले लड़के को उल्लू,गधा और चूतिया कहते हुए भगा दिया। इन सभी घटनाक्रमों के बीच बगल के काउन्टर पर बैठे क्लर्क महोदय इतने कर्तव्यनिष्ठ थे कि लोगों के लाख पूछने पर न तो जवाब दे रहे थे और न ही कुर्सी छोड़कर कहीं जा रहे थे। भारतीय क्लर्क होने की इस मर्यादा से किसी भी सरकारी कार्यालय के क्लर्क का कोई विरोध नहीं है। डरते-डराते टिकट मिल गया और गोमती एक्सप्रेस भी। लेकिन मेरी सीट पर एक चाची बैठी हुई थीं। लेकिन थोड़ी देर में वे सामने वाली सीट पर चली गई। बाद में उनको वह सीट भी छोड़नी पड़ी,क्योंकि उनके पास साधारण श्रेणी टिकट था।
गाड़ी के स्टेशन छोड़ते ही हाथ फैलाने वालों से सामना होता है,जिसमें बच्चे से लेकर बूढ़े तक,साधू वस्त्रधारी से लेकर फटेहाल और अपंग सभी शामिल दिखाई देते हैं। कभी भगवान के नाम पर तो कभी ऊपर वाले की गुजारिश पर चार पैसे देने की गुहार रास्ते भर सुनाई देती रही। इन्हीं आवाजों के बीच एक बच्चे ने पांच रूपए में चार गाने सुनाने की पेशकश की। इस बच्चे की उम्र तकरीबन 10-12 की रही होगी। इसके बाद छल्ले के भीतर से निकलकर करतब दिखाने वाली बच्ची की बारी थी,जिसकी उम्र बमुश्किल पांच साल रही होगी। कहने को तो बच्ची को कलाकार कही जा सकती है,लेकिन यह कला उसने भूख को मिटाने के खातिर सीखी है,न कि मनोरंजन या व्यक्तित्व के विकास के लिए। इन सभी आवाजों के बीच गुटखा,पानबहार,चाय,नमकीन जैसी चीजें बेंचने वाले भी आते-जाते रहे। मैं सोचने के लिए मजबूर हो गया कि यह सब सिर्फ घटनाएं हैं या फिर घटनाओं का परिणाम।
ध्यान देने की बात है कि चालू पंचवर्षीय योजना का नारा है ‘मानवीय चेहरे के साथ विकास’। कह सकते हैं कि विकास के अमानवीय चेहरे की जानकारी सत्ता धारियों को है। यानि ट्रेन में जो कुछ नजर आ रहा था वह विकास का अमानवीय चेहरा ही था। हालात देखकर यह कह सकते हैं कि विकास की तैयारियों में अमानवीयता ने ज्यादा जगह ले ली है। वरना कोई वजह नहीं बनती कि पांच-पांच साल के बच्चे अपना बचपन जीने के बजाए पेट भरने के खातिर ट्रेनों और सड़कों पर करतब दिखाने को मजबूर हों। बूढ़े और बेसहारे अपनी बेचारगी को दिखा-दिखा कर भीख मांगने को मजबूर हों। इस देश में हर वह आदमी घसीटा जा रहा है,जो खिड़की से बाहर खड़ा है। जिसकी वोट देने के सिवाय सत्ता से कोई नातेदारी नहीं है। इसी अमानवीय विकास को ढ़कने की कोशिश को बेहतरी के दावे वाले सरकारी विज्ञापनों में देखा जा सकता है। साथ ही 21 वीं सदी के विकास की सरकारी संरचना में मेडिकल टूरिज्म में बढ़ोत्तरी को प्रचारित किया जा रहा है,लेकिन देश के तमाम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और जिलास्तरीय सरकारी हॉस्पिटल डॉक्टरों और दवाइयों की कमी से जूझ रहे हैं। अस्पतालों के फाटकों पर बच्चों के पैदा होने की खबरें रोजाना सामने आ रही हैं। लोगों के बीच घुटन की इन्तहां देखिए कि देवालयों,न्यायलयों और मदिरालयों में भीड़ बढ़ती ही जा रही है। खाली हैं तो नुक्कड़,चौराहे और बहस के वे अड्डे,जहां से प्रतिरोध की परिभाषाएं तय होती हैं। असल में "मुस्कान के साथ सेवा" और "मानवीय चेहरे के साथ विकास" का दावा उन अमीरों के लिए है जो बिना लाईन में लगे किसी भी सेवा का लाभ ले सकते हैं। जिनके चेहरे के लिहाज से विज्ञापनों के चेहरे तय किए जाते हैं। क्योंकि गरीबी में न तो खूबसूरती होती है और न ही विज्ञापित चेहरे से मेल खाती मुस्कराहट,होती है तो सिर्फ पसीने की गंध,झुर्रियां और शोषण की कहानी।
ऋषि कुमार सिंह
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
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2 टिप्पणियां:
लंच करके सो गए जागे तो छुट्टी हो गई।
क्लर्क हैं सरकार के आराम भी तो चाहिए।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
ये आपका ये सफर हमें भी याद रहेगा। अच्छा लिखा है। शुभकामनाएं
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