ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

गुरुवार, अप्रैल 09, 2009

गांवों की हकीकत बदल रही है...(

जिस दिन खेतो और खलिहानों को दीपों से सजाया जाएगा,उस दिन मेरे गीतों का त्यौहार मनाया जाएगा........घर से लौटने के बाद यह गीत जब भी याद आता है,तो दीपावली के पहले बाढ़ से मीलों तक तबाह हुए धान के खेत भी याद आ जाते हैं। ठीक दीवाली से पहले खेती की बर्बादी को देख जो सवाल पैदा हुए थे, वे आज तक आस पास तैर रहे हैं। कैसे जले होंगे दिये,कितनी देर रही होगी दिये की रोशनी,दीवाली की मिठाई मिली होगी या नहीं अगर मिली होगी तो कितना कर्ज चढ़ा गई होगी, क्या बच्चों को नसीब हो पाऐंगे नए कपडे़ जिसका ख्वाब धान रोपते समय देखा गया था ? ऐसे ही बहुत से सवाल किसानों के मन में भी उठते होंगे,जिनका जवाब खोजने की अकुलाहट उसे झुग्गियों का हिस्सा बनने को मजबूर कर देती है।
उत्तर प्रदेश के तराई इलाके में अनाज की ठीक-ठाक पैदावार होती रही है। पिछले कुछ वर्षों में किसानों का खाद्यान्न फसलों से मन टूटने लगा है। बहराइच और बाराबंकी जैसे इलाकों में गेंहू,चावल और दलहनों की खेती पहले की अपेक्षा कम होने लगी है। इसकी जगह मेंथायल(पिपरमिंट) और गन्ने की खेती जोर पकड़ती जा रही है। इस बार बाढ़ ने धान की फसल को बरबाद किया है,तो 2004 में सूखे ने धान और मकई को तबाह कर दिया था। इससे पहले 1996 की ओला वृष्टि ने गेहूं के किसानों इस कदर डरा दिया था कि अगले कई सालों तक बड़ी संख्या में किसानों ने सिर्फ अपने घर की खपत के हिसाब से गेहूं बोया। नफा-नुकसान की गुंजाइशों के बीच गन्ना और पिपरमिंट की खेती के बारे में कहा जाने लगा है कि इसमें घाटा होने पर भी लागत नहीं डूबती है। जबकि नकदी और बड़े पैमाने पर उगाई जाने वाली फसलों की कमियां भी कम नहीं है। नकदी फसलों के साथ मजबूरी है कि अगर फसल ठीक से पैदा हो गई तो बेचने की दिक्कत और अगर खराब हुई तो सिर पर कई पीढ़ियों का कर्ज होना सामान्य बात है। चीनी मिलों के सामने गन्ने से लदी ट्रालियों लम्बी लम्बी कतारें और गन्ने के बकाया को लेकर चीनी मिलों पर होने वाले प्रदर्शनों से इसकी असलियत सामने आ जाती है। गन्ने की खेती में छोटी जोत वाले को लागत बचाने के लिए ज्यादा संघर्ष करना पड़ता है। गन्ना जिस दाम पर बिकता है, उस पर लाभ सीमित है क्योंकि उसी हिसाब से गन्ने की लागत ज्यादा है। डीजल से लेकर खाद,बीज सब कुछ बाहर से खरीदा जाता है,जो फसल को मंहगा बना देता है। इसके दूसरे असर के तौर पर एकल फसलों का दौर सामने आता है,जिससे फसल विविधीकरण पर आधारित किसान की आत्मनिर्भरता का ढांचा टूट जाता है। यानि किसान बाजार जाकर ऐसी चीजें खरीदने लगते हैं जो वे कल तक अपने ही खेतों में उपजा लेते थे। कारण साफ है गन्ने जैसी फसलें बाजार तक तो किसानों के जरिए ही पहुंचती हैं लेकिन इसमें किसानों का खलिहान पीछे रह जाता है। दरअसल खलिहान ही वह जगह है जहां फसल पैदा होने के बाद कितना बेंचा जाना है और कितना अपने लिए बचाया जाना है, तय किया जाता है। किसानों की हताशा ही कहें है कि हर किसान दुकान खोलकर अपनी पूंजी और मेहनत दोनों को सुरक्षित कर लेना चाहता है। सड़कों के किनारे खड़े हो रहे दुकानों के आधे अधूर ढांचे इसके उदाहरण हैं। लेकिन यहां भी प्रतियोगिता के लिए 'हरियाली' नाम से बड़ी पूंजी का हमला है। 'हरियाली' रिलायंस कम्पनी की खुदरा दुकानों की सीरिज है। अब किसानों के पास कुछ ही रास्ते बचते दिखाई दे रहे हैं।वे या तो कर्ज में डुबोने वाली नकदी फसलों की तरफ चले जाएं या फिर शहर की झुग्गियों के हिस्से या ईंट-भट्ठों में ईंटा पथाई के काम पर लग जाएं।
नकदी फसलों का कर्ज से वैज्ञानिक नाता है। भारत के जिन इलाकों के किसान आत्महत्या कर रहे हैं, वे सभी इलाके नकदी या एकल फसलों के इलाके हैं। सबसे ज्यादा आत्महत्याएं विदर्भ के किसानों ने की हैं। यहां के किसानों ने साहूकारों से कर्ज ले लेकर कपास की खेती की। बीटी कॉटन के नए मंहगें बीज और उत्पादन के बाद बाजार में कमजोर दाम मिलने से किसान सड़क पर आ गए। किसी भी कारण से चाहे वह सूखा हो या किसी बीमारी का प्रकोप, अगर फसल खराब हुई तो कर्जे के जाल में उलझ गए। जिससे निकलने का रास्ता मौत यानी आत्महत्या के मुहाने तक ले आया। पंजाब,गुजरात और आंध्रप्रदेश से किसानों के मरने की खबरें यहां के किसानी के ढांचे के टूटने की हकीकत बयान करती है। उत्तर प्रदेश के तराई इलाके इसी राह पर आगे बढ़ रहे हैं। इन सब के बावजूद देश भर में नकदी फसलों को प्रोत्साहित करने की सरकारी नीति जारी है।
नकदी फसलों मामले में परम्परागत कृषि तकनीकी पीछे छूट जाती है,जिसका असर सीधे तौर पर खेती की लागत पर आता है। पुराने ढंग की खेती में जो फसल चक्र अपनाया गया था वह खेती और किसान की जरूरतों के हिसाब से पीढ़ी दर पीढ़ी के अनुभव के आधार पर विकसित हुआ था। जैसे पुराने ढंग की खेती में खेतों की उपजाऊ क्षमता बढ़ाने के लिए अलग से खाद डालने की जरूरत नहीं होती थी। इसके लिए घर के पालतू जानवरों को कुछ दिन के लिए खेतों में बांध दिया जाता था। जिससे पूरा खेत उनके मल-मूत्र से उपजाऊ हो जाता था। इसके अलावा देसी बीजों को उगाने में इससे ज्यादा की खाद पानी की जरूरत भी नहीं पड़ती थी। इस व्यवस्था को कैसे तोड़ा गया ? सरकार ने सफेद क्रान्ति यानी दूध उत्पादन की नीति के तहत नई नस्ल के गायों और बछड़ों को बढ़ावा दिया, जिससे किसानों ने देसी गायों और बछड़ों को पालना बन्द कर दिया । जहां पहले एक किसान चार गायें,दो चार बकरियां पालता था,अब वही किसान एक जर्सी गाय पालने लगा। जाहिर सी बात है कि खेतों को उपजाऊ बनाने की क्षमता कमजोर हो गई। जानवरों और खेत की उपजाऊपने की आत्मनिर्भरता का चक्र टूट गया । यानी इस कमी को पूरा करने के लिए रासायनिक खाद का विकल्प सामने था। अलग से खाद खरीदने का खर्च और इसके इस्तेमाल के बाद सिंचाई की ज्यादा जरूरत ने दोतरफा खर्च को बढ़ा दिया। और इन नई नस्ल के जानवरों को पालने के चौंचले भी नए थे। इन जानवरों को लेकर डॉक्टरों और दवाइयों की जरूरतें ने भी किसानों पर नए तरह के खर्च का दबाव बढ़ाया। खेती को ज्यादा आधुनिक बनाने के चक्कर में मशीनों के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाने लगा और बैलों से की गई जुताई को खराब बताकर गहरी जुताई के लिए ट्रैक्टर को बढ़ावा दिया गया। जबकि गहरी जुताई से सिंचाई की लागत बढ़ गई। खेतों को सींचने में ज्यादा पानी लगने लगा। ट्रैक्टर से होने वाली जुताई से जुताई की लागत बढ़ गई। जुताई की लागत के पीछे एक और कारण जोत का छोटा होना था। जबकि ट्रैक्टर तो बड़े-बड़े फार्महाउस के ज्यादा उपयोगी थे।
इस बढ़ी कृषि लागत को जुटाने की कोशिश में आज गांव अपनी ही पहचान खोने लगे हैं। गांव की चीजों में दूध,घी और दही सबसे प्रमुख होता है। लेकिन चार पैसों के जुगाड़ में यह चीजें शहर पहुंचने लगी हैं। भारतीय कृषि परम्परा का आत्मनिर्भर किसान अब मार्केट का उपभोक्ता वर्ग भी बनता जा रहा है। चाहे खाद-बीज के जरिए हो या ट्रैक्टर की खरीद के जरिये। इस पूरी कृषि व्यवस्था पर पहला प्रहार हरित क्रांति का आया जिसने कुछेक फसलों की उपज क्षेत्र को काफी बड़ा कर दिया। इसके बाद की प्रक्रियाओं ने किसी भी नुकसान में किसानों के दीवालिया होने की शर्तों को तय कर दिया । जिसका सीधा असर प्राकृतिक आपदाओं के आने के बाद दिखाई दिया। पहले जो किसान इन तबाहियों को झेल लेते थे, वे अब बढ़ी लागत से मजबूर होकर शहरों की ओर भागने लगे हैं । सरकारें हैं कि शहरों की ओर पलायन रोकने के नाम पर सौ दिनों के रोजगार की घोषणाएं कर रही हैं। लेकिन यहां प्रश्न है कि क्या 100 दिन पेट भरने की शर्त पर 265 दिन भूखा रहा जा सकता है ।

5 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

सरकारें हैं कि शहरों की ओर पलायन रोकने के नाम पर सौ दिनों के रोजगार की घोषणाएं कर रही हैं। लेकिन यहां प्रश्न है कि क्या 100 दिन पेट भरने की शर्त पर 265 दिन भूखा रहा जा सकता है ... यह विडम्‍बना ही है कि अपने गांव में लोगों के पेट भी नहीं भर रहें हैं।

विजय प्रताप ने कहा…

ek sachchai ke sath aapkiblog par aapki ka vapsi ka swagat hai.

neeraj singh ने कहा…

Four things which affect farmers are natural uncertainity,capital avability,labourshortage& market accessbility.nowdays livingstyle of farmer is also changed.They have adopted urbun lifestyle which increases their livingcost but Their income is stagnent.most of farmers are either uneducated or illeducated if some are educated theyare involves in other works & take agriculture as subsidary.

pankaj singh ने कहा…

Farmers are reluctant to improve their situation. they want every thing cooked.Laziness is the order of the rurel youth.if they want they can improve their sitiation by properly implementing scientefic means,i.e,composed fertilizer.they can commercilize it & get handsome income. Nice to read you on your right place.

Unknown ने कहा…

किस हैंडसम इनकम की बात कर रहे हैं। भाई फसल की कीमत इतनी नहीं मिल पाती कि किसान लाभ की हालत में आ सके तो कम्पोज्ड खाद से लाभ की बात समझ में नहीं आती है। जहां तक आलसी होने की बात करते हैं यह बेबुनियाद आरोप हैं। जिन साइंटिफिक तरीकों की बात कर रहे हैं असली कमाल तो उन्हीं आयातित तरीकों का है। भारत का खेती के संदर्भ में देसी अनुभव नकार दिया गया। जिससे आत्मनिर्भरता की कड़ी टूट गई....कम्पोज्ड खाद और कार्बन खेती उसी देशी अनुभव का बाजार निर्मित स्वरूप है। लग रहा है कि हम लौट रहे हैं लेकिन दरअसल फिर रासयनिक खाद की तरह का खेल होगा...