भारत संचार निगम लिमिटेड का अभिनेत्री दीपिका पादुकोण को लेकर बनाया गया नया विज्ञापन "हिंदोस्तां बोल रहा है"...खुशनुमा माहौल पैदा करने के लिए लाया गया है। लेकिन विज्ञापन जिन इलाकों में नेटवर्क की पहुंच दिखा रहा है,उसके झूठ होने पर कोई शक नहीं है। शहर से महज आठ किलोमीटर दूर मेरा गांव है। बीएसएनएल के साथ-साथ अन्य मोबाइल कंपनियों की सेवाएं भी उपलब्ध हैं। विज्ञापित डिजिटल क्वॉलिटी का निजी अनुभव है कि अगर बीएसएनएल पर फोन आ जाता है तो छत पर भागना पड़ता है। न यह घनी बस्ती इलाका है और न बहुमंजली इमारतों का । कहा जा सकता है कि बीएसएनएल कल्पित हिंदुस्तां को असली जिंदगी में बोलने के लिए छत तलाशनी पड़ती है। यह विज्ञापन बगैर छत वालों यानी कम औकात वालों को बोलने के दायरे से अलग करता हुआ दिखाई देता है। इसलिए बीएसएनएल की मोबाइल सेवा के उपभोक्ता कभी जीप से उतरते,कभी हाथी पर सवार और कभी प्रोजेक्ट पर काम करने वाले वे लोग हैं,जिनके हाथ में बढ़िया मोबाईल और लेपटॉप हैं। ये लोग कहीं से भी छत विहीन नहीं लगते हैं। तथ्य है कि बीएसएनएल के ऐसे बहुत से उपभोक्ता हैं जो दूर-दराज के इलाके में रहते हैं,कमजोर नेटवर्क के सहारे अपनों की खबर लेते हैं। यह विज्ञापन इनकी परेशानी को एक सिरे से खारिज कर देता है। ऐसे लोगों से डिजिटल क्वालिटी की बात करके देखिए असलियत पता चल जाएगी। जहां तक लैंडलाईन सेवाओं का सवाल है तो यह भी मोबाईल सेवाओं की तरह ही बदतर हालत में है। मेरे गांव में संचार क्रांति का आगमन(मेरी राय में पहले दौर का अन्तिम पड़ाव था) 2003 में होता है। अचानक घर-घर में फोन बजने लगते हैं। लेकिन बिल ज्यादा आने से जिन गंवारों(ग्रामवासियों को शहरों में मिलने वाला संबोधन) के फोन एक बार कटे वे फिर कभी नहीं बजे। इसके बाद शुरू हुआ मेन केबिल चोरी होने का खेल...छह महीने के भीतर चार से ज्यादा बार मेन केबिल चोरी हो गई । जिसके चलते बीएसएनएल ने केबिल न डालने का फैसला लेते हुए गंवारों को अपनी लैंडलाइन सेवा से मुक्त कर दिया और कहा कि आप हमारी मोबाइल सेवा के ग्राहक बन जाइये। फिर क्या था मजबूरी में ही सही कईयों ने मोबाइल खरीद डाले। इसके बाद भागने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज दस्तूर के बतौर कायम हो चुका है......अब बात यह है कि क्या यह विज्ञापन इस क्षेत्र के उपयोक्ताओं का प्रतिनिधित्व करता है ? दूसरी बात यह विज्ञापन अपनी ही लैंड लाईन सेवा की सीमित उपयोगिता का संदेश भी देता है। क्योंकि बीएसएनएल के इस विज्ञापन में कहीं भी लैंडलाईन की सेवा का जिक्र नहीं किया गया है। बीएसएनएल कल्पित हिंदोस्तां के बोलने वालों में लैंडलाइन सेवा के उपभोक्ता शामिल नहीं हैं। गैर बीएसएनएल उपभोक्ता और संचार सेवाओं से दूर जनता को भी इस हिन्दोस्तां से बाहर रखा गया है। इस विज्ञापन में बीएसएनएल जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी का चरित्र निजी क्षेत्र की कंपनी जैसा दिखने लगता है। क्योंकि विज्ञापन के बल पर ग्राहक बटोरने का काम निजी क्षेत्र का है। जबकि कल्याणकारी राज्य की अनुषंगी इकाई होने के नाते सार्वजनिक कम्पनियों की पहली जिम्मेदारी बनती है कि राज्य की जिम्मेदारियों के साथ चारित्रिक समता बनाए रखे। विज्ञापन के वादे और दी जा रही सेवा के बीच अन्तर,बीएसएनएल ग्राहकों में निराशाजनक माहौल पैदा कर सकता है। इसलिए ऐसे विज्ञापन बेहतर गुणवत्तापूर्ण सेवा को सुनिश्चित किए जाने के बाद दिखाया जाना चाहिए। इतने बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर और सस्ती दरों के बावजूद अन्य मोबाईल कंपनियों की तुलना में व्यापार कम होने का कारण कुछ और नहीं बल्कि गुणवत्ता की कमी है। यही हाल लगभग सभी सार्वजनिक कम्पनियों का है,वे गुणवत्ता को बढ़ाने के बजाय विज्ञापनों पर जोर दे रही हैं।
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
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4 टिप्पणियां:
सही कह रहे हैं. यह विज्ञापन ’हिन्दुस्तां बोल रहा है’ अतिश्योक्ति है. बनाया जरुर बेहतरीन है.
बहुत सुंदर, सही और बेहतरीन विचार ...!
सहमत हूं आपकी बातों से...
thik hai
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