ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

रविवार, जनवरी 11, 2009

एकराय होने के खतरे....

एक जैसा सोचने वाले लोग जितना बढ़ेंगे, सामूहिक अपराधों की संभावनाएं भी उतनी तेजी से बढ़ेंगी। ऐसे अपराधों में जो कुछ भी होता है,जल्दबाजी में और एक-दो के नेतृत्व में होता है। इस संदर्भ में नोएडा गैंग रेप और पिछले साल नववर्ष के मौके पर मुम्बई में दो महिलाओं के साथ हुई बदतमीजी को देखा जा सकता है। यहां मामला सिर्फ अपराधियों को पकड़ने या सजा देने का नहीं है,बल्कि मामला किसी भी मौके पर इतनी बड़ी संख्या में लोगों के एक जैसा सोचने का है। मामला सामाजिक स्तर पर नैतिकता में आयी गिरावट का है। मामला उन प्रक्रियाओं का है,जिनसे गुजरने के बाद आज की पीढ़ी खड़ी है। इस तरह के सामूहिक अपराध में अगर अनपढ़ शामिल हैं तो इसके लिए उनके शिक्षित न होने का कारण दिया जा सकता है। लेकिन पढ़े-लिखे लोगों का शामिल होना सबसे ज्यादा खतरनाक है। यह समूची शिक्षा व्यवस्था के खोखलेपन और विफलता का नमूना है। गौरतलब है कि नोएडा गैंगरेप मामले पकड़े गए आरोपी अनपढ़ नहीं हैं। क्या भारतीय शिक्षा केवल डिग्रियां बांटने और संगठनों के लिए टट्टूनुमा क्लर्क पैदा करने की व्यवस्था बन गई है। नोएडा जैसे सामूहिक अपराध में किसी एक आरोपी ने अगर विरोध का साहस किया होता तो अपराध की पारिस्थितिक मनोदशा को टूट सकती थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उस समय मौजूद अपराधियों में सभी या तो एक जैसा सोच रहे थे या फिर विरोध को व्यक्त करने का साहस नहीं कर पा रहे थे। इससे बड़ा खोखलापन क्या होगा कि अन्याय होता रहे और लोग न चाहते हुए भी उसके हिस्सेबन जाए। समाज में विरोध का साहस पैदा करने वाली प्रक्रियाएं धीमी पड़ चुकी हैं। इस मामले में ‘बी प्रैक्टिकल’ जैसे जुमलों की साजिश को देखा जा सकता है। प्रैक्टिकल होने के नाम पर सारी सामाजिकता को खत्म कर सभी को स्वहित पोषक बनाने की कोशिशें हो रही हैं। इस तरह के अपराधों से निजी और सार्वजनिक जीवन के मूल्यों और संवेदनाओं में भारी अन्तर का पता चलता है। क्योंकि जो लोग कपड़े फाड़ रहे थे,उनका अपने घर के अन्दर ऐसा व्यवहार नामुमकिन है। इस मामले में किसी भी पश्चिमी दुनिया से तुलना कर लेनी चाहिए। वहां जितना ज्यादा निजी जीवन को अधिकार पूर्ण बनाया गया है,उससे कहीं ज्यादा सार्वजनिक जीवन के जिम्मेदारी तय करने पर जोर है। सार्वजनिक जीवन में इमानदारी इस कदर हावी है कि भ्रष्टाचार का आरोप लगने के साथ आत्महत्या करने के उदाहरण भी हैं।(ब्रिट्रेन के रक्षामंत्री का मामला) जहां तक विरोधी स्वरों को मान्यता देने की बात है तो बुश को जूता मारे जाने के बाद उसका पुतला बना कर जूता मारने का काम इन्हीं देशों के अन्दर हुआ है। संवेदनशीलता का स्तर देखिए कि जब ग्लास्गो एयरपोर्ट पर हुए आतंकी हमले में एक ब्रिटिश नागरिक का नाम आया तो उसे आतंकी कहा जाय या नहीं इस पर एक बहस चल पड़ी। जहां तक भारत की बात करें तो बारीकी से देखे जाने वाले मुद्दों को सतही तौर पर निपटाया गया है। कानून-व्यवस्था को दुरूस्त करने के नाम पुलिस का आधुनिकीकरण सबसे आसान तरीका बन गया है,जबकि यह मुद्दा जिम्मेदार नागरिक बनाने की प्रक्रिया से जुड़ता है। जिम्मेदार और संवेदनशील नागरिक बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था को कमजोर बनाकर रखा गया है। अन्य सामाजिक और सांगठनिक अपराधों जैसे दहेज,बालश्रम और घोटालों के संदर्भ में भी शिक्षा की गुणवत्ता की कमी देखी जा सकती है। शिक्षा व्यवस्था के बेहतर न होने की दशा में सतही और अवसरवादी राजनीति की जगह बनती है। अगर नागरिकों में जिम्मेदारी और संवेदनशीलता का स्तर बढ़ेगा तो बिना किसी शर्त के तार्किक राजनीति मांग आएगी। इसी मांग से बचने के लिए सत्तासीन राजनीतिज्ञों ने शिक्षा की उसी व्यवस्था को आगे बढ़ा दिया जिसको अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक शासन के लिए विकसित किया था। अगर कहीं कुछ बदलने की कोशिश की गई है तो वह हैं इतिहास की किताबें।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

family is the first school of child.parents are the real teacher.conduct of person is manifestation of his familyculture.nowadays parents are reluctant to discharge his primery duty towards his childen & socity at large. onthis back ground,TV makes him confuse & mentaly sick..