देश के भीतर आजादी के बाद ज्यादा कुछ नहीं बदला है। इस बात का अंदाजा शासन की जनता के प्रति संवेदनशीलता से लगाया जा सकता है। यही कि जो चीजें जनता के लिए बनाई जा रही हैं,उसमें जनता की सुविधा का कितना ध्यान रखा गया है ? दिल्ली शहर में एमसीडी एक प्राइवेट स्टील कम्पनी के सहयोग से नए बस स्टॉप लगा रही है। लेकिन इन बस स्टॉप पर जगह का नाम आप दूर से नहीं देख सकते। जब आप सामने पहुंचें तभी पता चलेगा कि कौन सा बस स्टॉप है। यही हाल डीटीसी बसों पर लिखे जा रहे रूट नम्बर और जगह का है। अगर बस खड़ी है तो यह पता करने के लिए की बस कहां तक जाएगी उसके सामने कूदना होगा। यहीं पर विकास के नए पैमाने ओवर ब्रिज को देखना पड़ेगा। महज 15 या 20 फीट सड़क पार करने के लिए एक पैदल यात्री को कम से कम 20 फिट चढ़ना और उतरना पड़ता है। दरअसल समस्या विकास के मॉडल और मंशा की है। हमने विकास को विदेशों से आयात किया है। जैसे-ई-गवर्नेंस। जबकि जरूरत विकास के मॉडल को अपनी जरूरतों के हिसाब से नए सिरे से गढ़ने की थी। शहरों से बाहर देंखें तो किसानी ही प्रमुख मुद्दा है। यहां दूसरी हरित क्रांति का ढिढ़ोरा पीटा जा रहा है। जबकि पहली हरित क्रांति ने किसानों और किसानी दोनों को आत्म हत्या के कगार पर पहुंचा दिया हैं। पहली हरित क्रांति ने कृषि के देशज अनुभवों को नकार दिया था,लेकिन अब हर्बल खेती के नाम से बाजार के जरिए परोसा जा रहा है। अंधविश्वासों और कुरीतियों को नई तकनीकि यानी इलेक्ट्रानिक मीडिया फिर से स्थापित कर रहा है। इस अर्ध शिक्षित समाज के स्तर पर समस्याओं के बने रहने के पीछे हमारी शासन प्रणाली में औपनिवेशिक शासन का अवशेष है। पुलिस जैसी सामाजिक संस्था(समाज से ज्यादा सम्पर्क के कारण) को अभी तक 1861 के पुलिस एक्ट के सहारे चला रहे हैं। जबकि आईटी और पूंजी बाजार से जुड़े अपराधों के लिए सटीक कानून नदारद हैं। जहां तक जनांदोलनों के जरिए इस व्यवस्था को बदलने की बात है तो सत्ता अपने विरोध में जाने वाली हर आवाज को देशद्रोही साबित करने की साजिश करने लगी है। अन्य के अधिकारों के लिए आवाज उठा लीजिए तो परिवार वालों पर सत्ता की निगाहें चढ़ जाती है। उदाहरण के तौर यूपी में हो रही अवैध गिरफ्तारियों के लिए आवाज उठाने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के परिजनों को लखनऊ से उठाकर फर्जी मामलों में फंसा दिया गया। किसी भी समाज में सुधार लाने या सुधारों के लिए आवाज उठाने वाले प्राथमिक तौर पर कुछ ही लोग होते हैं। सत्ता अपनी नाकामी छिपाने के लिए इनके गाजर और छड़ी का इस्तेमाल करती है। आतंकवाद सफाये के नाम अपनी झूठी सफलता दिखाने के लिए पुलिस एक ही साल में कई फर्जी मुठभेड़ और गिरफ्तारियां कर डालती है। लेकिन इसपर न तो सत्ता की तरफ से कोई पारदर्शिता दिखाई देती है और न ही सभ्य समाज की संस्थाओं की पहल आती है। इसी बात को आस्ट्रेलिया जैसे देश से तुलना करें तो वहां एक भारतीय डॉक्टर का आतंकी घटना में नाम आया लेकिन बाद में आरोप बेबुनियाद निकले। इस पर आस्ट्रेलिया सरकार को मानवाधिकार संगठनों के दबाव में मॉफी मांगनी पड़ी थी। इसके लिए वहां के संगठनों की सक्रियता और सत्ता की संवेदनशीलता दोनों लाजवाब मानी जा सकती है।
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
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1 टिप्पणी:
it is one of the best article i have read on your blog.plz explore more topics in which immediate changes are nessary & present in context of coming general election.
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