ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
मंगलवार, जनवरी 06, 2009
ठंड नहीं बढ़ी है,कपड़े कम पड़ गए हैं........
ठंड किसी के लिए कुल्लू-मनाली का रास्ता बनकर आती है,तो कईयों के लिए मौत की डगर। रविवार का दिन था। मण्डी हाउस इलाके में शाम हो चली थी। सभी लोग निकलने ही वाले थे। कि इसी बीच किसी ने कह दिया-आज ठंड बहुत बढ़ गई है। जिसके जवाब में अरविंद जी ने कहा कि "यार ठंड़ी नहीं बढ़ी है,कपड़े कम पड़ गए हैं।" बात इतनी सटीक थी कि कई प्रश्नों का एक साथ जवाब दे गई। उत्तर भारत में अब तक ठंड से ५५ लोग मर चुके हैं। ठंड के खत्म होते-होते यह आंकड़ा पिछले साल की तरह सैकड़ा पार कर जाएगा। यह पिछले कई सालों से होता आ रहा है। वर्ष २००३ में ७०० लोग शीत लहरी की चपेट में मारे गए । अमीर तो दुर्घटनावश मरे थे,जबकि गरीब महामारी के स्तर पर। इसलिए बात ठंड के बढ़ने या घटने की नहीं बल्कि कपड़ों के कम पड़ने की ही है। कपड़ा यहां संसाधन में हिस्सेदारी है। अब जानना जरूरी है कि संसाधनों पर किसका कब्जा है। इस मरने वाले के हिस्से में कितना आ रहा था। क्योंकि अगर पहनने के लिए कपड़े और खाने के लिए अनाज होता तो मरने की नौबत न आती।जिस देश में लोग ठंड़ से मर रहे हो उस देश में युद्ध को जायज ठहराया जा रहा है। समझ में नहीं आता कि साल दर साल आतंकी घटना में मारे जाने वालों से ज्यादा लोग इस ठंडी से मारे जाते हैं। आतंकी हमले के गुनहगार को सजा देने के खातिर सरकार ने सेनाओं को सीमाओं पर तैनात कर दिया है। कूटनीतिक प्रयासों के जरिए विदेशों का दौरा शुरू कर दिया है। इन मौतों को रोकने के लिए क्या उपाय किए है,सिवाय अलाव के नाम पर पैसे हड़पने के। सेना को सीमा तक लाने और वापस बैरकों तक पहुंचाने में देश को अरबों का चूना लगा जाएगा। लेकिन इन गरीबों को बचाने के लिए सरकार के पास क्या योजना है। वैसे सरकार इन गरीबों की हालत को सही से जानती है। वह मानती है कि इन्हें बचा करके भी नहीं बचा पाऐंगे। क्योंकि अगर ठंड़ से बच गए तो भूख से मर जाऐंगे। ठंड और भूख दोनों से मर गए तो पुटपाथ पर सोते हुए किसी चमचमाती गाड़ी के नीचे आकर मर जाऐंगे। यानी इनकी मौत के लिए ठंड़ तो सिर्फ बहाना बनती है। सत्ता इन लोगों पहले से ही मरा हुआ मानती है। इसलिए लावारिश लाशों की सूचना अखबार में छपवाकर अन्तिम क्रिया का काम पुलिस को सौपा हुआ है। किसी भी दिन के नगर संस्करण में ऐसी जनसूचनाओं को पढ़ सकते हैं। ठंड़ में सबसे पहले मरने वाले लोग सबसे कमजोर,उपेक्षित और साधनहीन होते हैं। ऐसे लोगों में भिखारी,बेघर और मानसिक रूप से बीमार आते हैं। इनके पुनर्वास के लिए सरकारों को कोई जिम्मेदारी समझ में नहीं आती है। मायने साफ हैं सत्ता सबसे ज्यादा टैक्स देने वालों के लिए काम करने की प्रतिबद्धता को मानती है। तभी तो राष्ट्र के गौरव के नाम पर करोड़पति के बेटे के स्वर्ण पदक जीतने पर भारत सरकार एक करोड़ का ईनाम दे देती है। क्योंकि उसका पिता बड़ा उद्योगपति है और करोड़ो का टैक्स भरता है । खैर जब बात असलियत को छिपाने की हो तो क्या जरूरत है कि ठंड से हुई इन फुटकर लेकिन सैकड़ों मौतों पर ध्यान दिया जाए। पाकिस्तान से युद्ध की नूरा कुश्ती के बदौलत तत्काल में सत्ता वापसी की गारंटी है। लेकिन इन गरीबों को लाभ पहुंचा कर सत्ता पाने में वक्त लग सकता है। इसी अधैर्य पूर्ण विकास का नतीजा है कि देश के भीतर एक बहुत बड़ी आबादी को दो जून की रोटी नहीं दे पाएं है,जबकि चांद पर झंड़े फहराने का जश्न मना रहे हैं।
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3 टिप्पणियां:
बहुत सही लिखा है आपने..अच्छी जानकारी
cynical approach; is it wrong to award a gold madalist or his background should be poor for getting an award. should indian not feel proud on reaching moon. should government remain silent expectetor on terrorist attack. i agree there is maladministion.but we people are also responsible for cold deaths.
swanon ko milta dhoodh bbhat bhookhe bacche akulate hain maa ki chhati se lipat-lipat jade ki raat bitaate hain
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