ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

बुधवार, अक्तूबर 01, 2008

टीआरपी की होड़ से उपज रही है मीडिया प्रायोजित अपराध की आशंका...

इलेक्ट्रानिक मीडिया में जिस तरह से टीआरपी का दौरा पड़ा है,उसे देखकर यह कहना पड़ रहा है कि आगे आने वाले समय में कहीं यह अपराध का सीधा भागीदार न हो जाए। कुछ पुराने टीआरपी कमाऊ खबरों की तरफ झांकना जरूरी हो जाता है। ऐसी खबरों में आरुषि-हेमराज मर्डर केस सबसे अहम है। अगर ऐसे अपराध रोज हों तो टीआरपी की दिक्कत नहीं आएगी और चैनल का धंधा चलता रहेगा।
अगर आरुषि-हेमराज मर्डर और बम धमाकों जैसी चौकाने वाली खबरें रोज न आएं तो टीआरपी के लाले पड़ सकते हैं,धंधा मंदी में आ सकता है। धंधे की मंदी दूर करने का दबाव उमा खुराना काण्ड जैसी हरकतें तो करवा ही सकता है। इसके अलावा अमेरिका की हथियार निर्माता कंपनियों की तर्ज पर अपराधों का दबाव भी पैदा कर सकता है। अमेरिकी कंपनियों पर आरोप लगता रहा है कि ये युद्ध करने के लिए सरकार पर दबाव बनाती हैं और अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति में भी दखल रखती हैं। मीडिया,जिस तरह से मल्टी नेशनल बाजार बन कर उभरा है,उससे हालात के बिगड़ने का अन्दाजा हाल ही की एक घटना से लगाया जा सकता है,जैसे सीएनएन-आईबीएन का संसद नोट कांड के सिलसिले में किए गए स्टिंग आपरेशन का समय से न प्रकाशित करना। यहीं से यह बात उभरती है कि विदेशी पूंजी से संचालित होने वाला चैनल पत्रकारिता के मूल सिद्धान्तों से कभी भी खेल सकता है।
जिस तरह से विदेशी पूंजी को आने का मौका मिल रहा है,उससे उमा खुराना जैसे कांडों के और भी व्यापक होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। जिस तरह से कमजोर और लचर प्रशासनिक और सुरक्षा व्यवस्था है,उसे देखकर मीडिया प्रायोजित हिंसा और सनसनीखेज अपराध की सम्भावनाएं भी बनती दिखायी दे रही हैं। मीडिया में लगी बड़ी पूंजी किसी भी नागरिक और प्रशासनिक सुधारों में अड़ंगा पैदा कर सकती है। ताकि न्यूज के लिए कच्चे माल(अपराधिक घटनाओँ) की सप्लाई बनी रह सके। कारण साफ है कि पूंजी लाभ से प्रेरित होती है,और मीडिया का लाभ विज्ञापनों के जरिए आता है। विज्ञापन पाने की पहली शर्त है टीआरपी में नम्बर एक पर होना और टीआरपी देने वाली खबरों में नम्बर एक पर हिंसा,सनसनी वाली खबरें आती हैं। हिंसा और सनसनी वारदातें कमजोर शासन प्रणाली की पहली निशानी है। यही कारण है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया से समाज निर्माण की दूरदृष्टि गायब सी हो चुकी है।

3 टिप्‍पणियां:

apanarasta ने कहा…

lage raho aur lekhte raho is asha me ki bhatka rahe path par aa jaye

mera aasman ने कहा…

kahan aasoo bahayen.... hum log bhi to isi bheed ka hissa hain.. jab subah aate hain to hamare bhai bandhu chillate hain .. kya yaar koi khabar nahi hai! bahut "dull" din hai aaj... aur jaise hi do char phatake phut jate hain to 'achche visuals' ke liye wo din bhar ki badi khabar ban jati hai aur hamare kamchor bhaiyon ko din bhar channel chalane ke liye masala mil jata hai... kya yahi niyati hai hum jaise samajhdar logon ki bhi!... PRIYA, MERA ASMAN

Nitish Raj ने कहा…

दूरदृष्टि कहीं गायब नहीं हुई है पर हां लड़ाई जरूर तेज हो गई है। क्या यहां पर आप ऑपरेशन चक दे या फिर मंत्री घूस कांड, ट्रेफिक पुलिस का घूस कांड, नोट के बदले वोट इनका भी जिक्र करते तो बेहतर होता। आज की टीआरपी में इंडिया टीवी नंबर वन पर आया है उसका शेयर है १९.२६, आजतक १८.१९, स्टार न्यूज १५.५४, जी न्यूज १२.३५, और एनडीटीवी ८.२३। आजतक को नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि उसने एक मुहिम चलाई थी आतंकवाद पर पूछता है आजतक आखिर कबतक? इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। क्यों देखते हैं आप इंडिया टीवी, क्यों नहीं एनडीटीवी? एक कारण बताइए।