टी.वी.पत्रकारिता का दिवालियापन अब खुलकर सामने आने लगा है। बीआरटी कॉरीडोर पर 11 सितम्बर की सुबह एक एक्सिडेंट होता है,जिसमें दो लोगों के घायल होने की सूचना आती है। एक की हालत गम्भीर होती है। आए दिन इससे भयानक सड़क हादसे होते हैं,लेकिन वह खबर नहीं बनती है। इस हादसे की खास बात थी कि इसमें बीएमडब्ल्यू कार का शामिल होना। बस क्या था हो गया न्यूज सेंस पैदा। सभी चैनलों की ओ.बी. वैन लग गई,होने लगा चीख-चीख कर लाईव प्रसारण। दिखाई जाने लगी गाड़ी की तस्वीरें जैसे कोई यूएफओ धरती पर उतर आया हो। नवजात रिपोर्टर्स की दिमागी हालत इतनी दयनीय है कि अब पत्रकारिता की कोई सामाजिक जिम्मेदारी इन्हें समझ में ही नहीं आती है। मौके पर होने के कारण मैंने एस ओ की शिकायत सुनी। उसका कह रहा था कि रिपोर्टर गाडी़ का गेट खोल रही हैं,उन्हें मना कीजिए। यह सरासर साक्ष्यों से छेड़खानी के सिवाय और कुछ नहीं था। शायद यह बात इन मोहतरमा को पता ही नहीं थी। या फिर कुछ नया और अलग करने की जिद थी। बीएमडब्ल्यू के हिट एण्ड रन मामले की खुमारी न्यूज चैनल्स पर अभी तक छाई है। इनको लगता है कि बीएमडब्ल्यू ही खबर हैं क्योंकि यह मंहगी कार है और हर रईसजादा नशे की हालत में ही इसे चलाता है। जिस तरह से बीएमडब्ल्यू कोसना जारी था,उससे तो कम्पनी इस ब्रांड के उत्पादन पर पुनः विचार कर सकती है या फिर इसका नाम बदलने की कोशिश। अब प्रश्न साफ है कि क्या यह दुर्घटना मारूति 800 से हुई होती,तो खबर बनती । इसी रात गुड़गांव में एक बस पलटी थी,जिसमें करीब तीन दर्जन लोग घायल थे। लेकिन यह खबर एक वीवीटी लायक ही समझी गई। दरअसल यह दिवालियापन है,जिसमें हम हदों से तोड़ने का खेल खेलते हैं। अगर किसी रिपोर्टर ने चीखकर लाइव दे दिया तो समझो अगले चैनल के रिपोर्टर चीखने के साथ ही कुछ और नया कर दिखाना चाहेंगे(यह महिला और पुरुष दोनों रिपोर्टर के संबन्ध में)। इसमें कभी तो कुछ सही हो जाता है और कभी-कभी जोकरई के सिवाय कुछ हाथ नहीं आता।
आज कुछेक को छोड़कर सारे हिन्दी चैनल्स में एक होड़ सी आ गई है कि अब कितना बेहया हुआ जा सकता है। अगर तुमने एक कपडा़ उतारा है,तो हम सारे कपडे़ उतार देंगे। तुमने भांग पी है,तो मैं भी तुमसे ज्यादा भांग पियूंगा और गुड़ भी खाउंगा। इण्डिया टी वी ने प्रलय को इस कदर दिखाया कि दर्शकों के साथ-साथ हिन्दी चैनल्स को भी प्रलय की गवाही में शामिल होना पड़ा। देखते ही देखते सारे चैनल प्रलयमयी हो गए। इस खबर का असर यह हुआ कि मध्य प्रदेश में एक लड़की ने जहर खाकर चैनलिया प्रलय से मुक्ति पा ली। इस घटना के बाद न तो इण्डिया टी.वी.की तरफ से कोई सफाई आयी और न ही किसी अन्य किसी चैनल ने इसकी आलोचना करना उचित समझा। इसका कारण साफ था क्योंकि सभी एक ही तालाब में गोता लगा रहे थे।
सुबह की बुलेटिन में जैसे ही जाती है,हम एसाइनमेंट डेस्क पर थोड़ी सी राहत महसूस करते हैं। यह लगता है कि कोई खबर नहीं छूटी । बीएमडब्ल्यू सुबह की खबर थी और इसे महज सड़क हादसा मानने के कारण मुझे या साथ के और लोगों को लाईव जैसी नहीं लगी। लेकिन कुछ अनुभवधारियों के चिल्लाने के आगे मुझ नव नौकरी वाले को नत मस्तक होकर रिपोर्टर भेजना पड़ा। लगने लगा कि अभी लौटना चाहिए क्लासरूम में। उन अध्यापकों के पास जिन्होंने न्यूज सेंस और न्यूज फॉर नोज की परिभाषा समझाई थी। उनसे और बहस करनी चाहिए इन मुद्दों पर और बदलनी चाहिए पत्रकारिता की अपनी इस सोच को। अपने भीतर चिल्लाने की सरोकारिता पैदा करनी चाहिए । किसी भी मुद्दे को समझे बगैर जैसे डीसीपी की प्रेस कांफेंस के बाद रिपोर्टर का डीसीपी से उसका पदनाम पूछना। आजकल इसी की कमी महसूस करता हूँ। चलिए अगली सप्ताहिक छुट्टी में अपने अध्यापकों से जरूर मिलूंगा और कुछ नया सीखा तो आपको जरूर पढ़ाऊंगा...
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
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4 टिप्पणियां:
खबरों के प्रस्तुतिकरण में तर्क खोजना बेमानी है।
बहुत ख़ूब...
अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है आप ने!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- समय पर प्रोत्साहन मिले तो मिट्टी का घरोंदा भी आसमान छू सकता है. कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर उनको प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)
bhut khub likha bhai. ab kuch milte julte haalat print mediya ke bhee hai.
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