ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

शनिवार, सितंबर 06, 2008

अरे किस समाज की बातें हो रही......

थोड़ा हटकर .......

पप्पू कांट डांस साला...अरे किस समाज की बातें हो रही....जहां न नाच पाने को एक अयोग्यता साबित किया जा रहा है...अरे पढ़ा तो है,हैंडसम भी है,रेडिको की घड़ी भी पहनता है।आज के सारे चोचलों को आज़माने की कोशिश भी कर रहा है तो फिर कमर न लचका पाना कौन सी अयोग्यता है.......इस आधार पर तो इस देश के लाखों युवा अयोग्य ठहराए जा सकते हैं....लेकिन उनकी योग्यता और उपयोगिता समाज में बनी हुई है.....अब इस बात को गीतकार की मानसिकता तक ले जाना जरूरी हो जाता है...यह गाना जाने तू जाने ना फिल्म का है......इस गाने के लेखक ने बाजार की मांग के अनुसार कुछ शब्दों को अरेंज कर दिया है....इसी अरेंजमेंट को ही आज की कला और कैची लिखावट संज्ञा दी जा रही है...सोचिए अगर गाना किसी भी समाज का प्रतिनिधित्व करता है तो उस समाज के लोग क्या सोचते हैं...जो न केवल नाचने को अयोग्यता साबित कर रहा है बल्कि उसे गाली भी देता है...पहले अंग्रेजी में और फिर हिन्दी में गाली देता है.......आज के सभी अंग्रेजीदां लोग ऐसे ही पैमाने तैयार कर रहे हैं ताकि अपनी योग्यता वाली छद्म छवि को बरकरार रखा सके। यह वर्ग अपनी चिर-परिचित पहचान यानि आम वर्ग से हर हाल में अलग दिखने की मानसिकता को बचाए रखना चाहता है। क्योंकि सामने वाले को इन्हीं आधारों पर अयोग्य ठहराते हुए उसमें हीनता का द्वन्द्व पैदा किया जा सकता है। यह लगभग वही मानसिकता है जो वर्ण व्यवस्था शासित भारत में रक्त संबन्ध शुद्धता की अनिवार्यता पर बल देती थी। इसके जरिए समाज में उच्च वर्ग के वर्चस्व को बनाए रखा जाता था। लेकिन सामंती समाज से लोकतांत्रिक समाज के सफर में हम समाज के इस दुराग्रह को दूर नहीं कर पाए हैं. साधारण वर्ग से उभरने वाली चुनौतियों से बचने के लिए..आज का धनी वर्ग भी इसे अपना रहा है। इसके आधार पर समाज की जड़ता का अहसास किया जा सकता है.....

2 टिप्‍पणियां:

Shiv ने कहा…

बहुत शानदार पोस्ट.

शब्दों को अरेंज ही तो करना है...कौन सा गाना लिखना है?

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन पोस्ट.

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