ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

रविवार, जुलाई 20, 2008

जाने क्यूं हम वहीं खड़े हैं........

किसी भी न्यूज चैनल में इस्तेमाल हो रहे बैक ग्राउन्ड पर एक सीनियर से बात करना चाहा...तो उन्होंने बात करने के बजाय एक वाचाल लड़के की कहानी सुना दी...मैं चुप हो गया लेकिन अपनी बात कहने के बाद। मैंने कहा कि सर अगर आप इस मुद्दे पर बात नहीं करना चाहते हैं तो यह मेरी गलती है.... शायद मैंने गलत आदमी को चुन लिया था। आगे से अपने जैसे लोगों को खोजकर ही बात करुंगा। खैर व्यक्तिगत टोका-टाकी तो चलती रहती है और इसमें उलझना ठीक नहीं-ऐसा बड़े-बुजुर्ग कहते हैं। मैं भी यही मानता हूँ । लेकिन बात जिस पर होनी थी वह तो अधूरी ही रह गई...कि अक्सर लोगों से बात करके ऐसा लगता है कि जो हो रहा उसे स्वीकार कर लो। कहीं से भी उसके खिलाफ नहीं बोल सकते हो। क्योंकि कोई बात नहीं करना चाहता है। लोग कहते हैं कि क्या तीर मार लोगे...क्या जो हो रहा है उसे तुम बदल लोगे... सोचता हूं कि यह कैसे जीव हैं जो कुछ बात नहीं करना चाहते हैं....हर बार यही पाता हूँ कि ये लोग भाग्यवादी प्रकार के लोग हैं...यह लोग यह मान कर चल रहे जो सब है वह भाग्य से है,जो कुछ होगा भाग्य से होगा..जो कुछ हो रहा है वह भाग्य से हो रहा है....यानि व्यवस्था जड़ है इसे हिलाया नहीं जा सकता है....जब कि सभी यह जानते कि इस व्यवस्था की नींद चुप रहने से नहीं टूटी है। ये लोग यह भी जानते हैं कि बात करने से सवाल पैदा होंगे...जिनके जबाब भी खोजने पड़ सकते है...शायद यही डर का सबसे कारण है....और लाख कोशिशों के बावजूद हमारे आगे न बढ़ पाने का कारण भी हमारा डर है.....

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