ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
रविवार, जुलाई 20, 2008
सत्ता की चाकरी मे मिडिया ......
जिस तरह से सरकार ने देश को गुमराह किया है मुद्दों को लेकर शायद पूरा मीडिया भी इसी तरह गुमराह दिखाई दे रहा है। आज न अर्थव्यस्था के लगातार खस्ताहाल होने की खबरें है और न महंगाई। सरकार ने डील को पहले निपटाने के चक्कर में थी लेकिन वाम के चलते प्राथमिकताएं बदल गईं। और अब सरकार की जान पहले,डील बाद की जरूरत बन गई...और इन सब के बाद आम कही जाने वाली जनता के लिए चुनावी लाली पॉप की तैयारी.....वॉच डॉग की कहानी पर जीने वाला मीडिया अब जमीनी सच्चाईयों से दूर हटते हुए उस ढर्रे कुलाचें भरने लगा है जिसे कभी अशिक्षा,अज्ञान और तार्किकता की कमी का पर्याय माना जाता था...सोचिए कि किस तरह पूरा मीडिया नार्कोटाइज्ड है,उसे साई,भूत,प्रेत और खबरों में मनोरंजन के जरिए टीआरपी पाने का नशा सवार हो चुका है.....इस टीआरपी के दौड़ में सबसे ऊपरी पायदान पर खड़े चैनल(इसने आज सीने में रॉड घुसने के वीडियो को बिना एडिट किए करीब दो घण्टे तक चलाया,जिसे देखकर साधारण हिम्मत वाले को उबकाई जरूर आई होगी जिस किसी को नहीं आई होगी तो उसे अफसोस नहीं होना चाहिए) के बारे में कुछ वर्तमानजीवी बोल रहे हैं कि इसने तो न्यूज की परिभाषा बदल दी है..जो चैनल कभी इसकी बुराई करते नहीं थकते थे,वे आज इसी की राह चलने लगे हैं।लेकिन इन चैनलों की बीमारी देखकर तो यही कहा जा सकता है कि टीआरपी के टोटे के चलते विज्ञापन पर आश्रित जिन्दगी को बचाए रखने के लाले पड़े हैं। मैं अपने अब तक के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि चैनलों में जो कुछ हो रहा है उसके पीछे केवल मार्केटिंग विभाग का दबाव है।.रही ऐसा करने वाले लोगों की बात तो यह मान लेना चाहिए कि मजबूरी है समझौतों को करने की...क्योंकि सुविधाजीविता ने रीढ़ जो छीन ली है।.मैं कई दिनों से सोच रहा हूँ कि जिस बात की और जिन लोगों की आलोचना कर रहा हूँ मैं उनकी जगह होता तो क्या करता... यही बात है जिसका जबाब मैंने अपने पुराने एचओडी से मांगा था.जो अन्तर्राष्ट्रीय संचार के विशेषज्ञ हैं। उनका जबाब हर हाल में संतुष्ट करने में सक्षम था। उन्होंने कहा कि जीवन की क्वालिटी को ध्यान में रखोगे तो तुम्हारी चयन की स्वतंत्रता को बरकरार रहेगी ।क्वालिटी के मायने तुम्हें खुद तय करना होगा....लेकिन अगर किसी अंधी दौड़ के हिस्से बने तो यह मुश्किल होगा कि आप तय करें कि क्या करना आपके हित में हैं। दस हजार की नौकरी में आपके पास टाइम होगा कि जिन्दगी कैसे जिऐं॥लेकिन लाख पचास हजार की नौकरी की मांग आपके जिन्दगी से चयन करने की स्वतंत्रता को कम करेगी क्योंकि देने वाला आपसे अपेक्षा भी उतनी ही करेगा। इसके साथ जिन्दगी को जीने की दौड़ में अपने जमीर के मामले समझौता करने की हद व्यक्ति खुद तय करता है। सम्झौत्ते में पाना और खोना दोनों होता है...क्या पा रहे हैं और क्या खो रहें हैं...यही तो बारीकी से समझने की जरूरत होती है....
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1 टिप्पणी:
रिषि मीडिया की वर्तमान परिस्थिति पर आपके विचार जानने के बाद मुझे लगता है कि अब मीडिया के अस्तित्व , मीडिया के स्वरूप और मीडिया की बदलती भूमिका पर चर्चा करने के लिए कुछ खास नहीं बचा है। ९० के दशक के बाद से भारतीय पत्रकारिता के नए दौर की शुरूआत हुई। इस नए दौर में पत्रकारिता में जो नए कौरे और काल्पनिक अध्याय जुड़ने लगे उसने पत्रकारिता की राह कुछ यू भटकाई कि पत्रकारिता को उसी के सही स्वरूप से परिचित कराने के लिए कई वरिष्ट जानकारों और जनसरोकारिता से सरोकार रखने वाले पत्रकारों को अपनी कलम की स्याही घिसनी पड़ी। भटके राही को राह दिखाने और चेतना जगाने के लिए स्याही घिसने का सिलसिला तो अभी भी बरकरार है। पर क्या हुआ ? क्या स्थिति में परिवर्तन हुआ ? स्थिति तो तज की तस है बल्कि यू कहे है पहले से भी बदततर होती जा रही है।और इलोक्ट्रानिक मीडिया खासतौर पर हिंदी खबरियां चैनलों का जो हाल है। उससे देखकर तो कहने की जरूरत नहीं कि बाजार का रूप ले चुका ये मीडिया अब एक चमकदार मॉल की शक्ल में तब्दील हो चुका है। जहां सडी़-गली, पुरानी और सस्ती चीजों की कोई जरूरत नहीं। इस मॉल को जरूरत है उन चमकदार चीजों की जो दिलाती है मुनाफा और लाभ। और इन्हीं चमकदार चीजों को खोजने के प्रयास में बावले हो चुके हैं इस मॉल के कार्यकर्ता। और कुछ यू बावले हुए है कि अब उनके कानों में कुछ गूंजता है तो वो है पैंसों की खनक, कुछ दिखाई देता है तो वो है पैसों की हरियाली। लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की नींव इतनी बुरी तरह से हील चुकी है कि मात्र मरम्मत से इसका गुजारा चलने वाला नहीं। ये मीडियातंत्र या कह ले आलिशान मॉल खड़ा है चंद ताश के पत्तों पर जो कब ठह जाए पता नहीं।। अर्चना महतो
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