ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

रविवार, मई 25, 2008

रोटी तू अब भोज्य कहाँ....... ?

शीर्षक के रूप मे प्रश्न दरअसल मेरे पत्रकार मित्र अभिषेक रंजन की कविता की आखिरी लाईन हैं ,जिन्होंने रोटी के दर्द को बडे पास से देखा और समझा था । इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैं एक दिन आपने ऑफिस के कैंटीन मे खाने गया था शायद मैं आखिरी दौर था । तभी मेरे एक सीनियर भी खाने आ पहुचे । वे चावल नही खाना चाहते थे तो केवल रोटिया ही ले आए।उस दिन हमारे बीच रोटियों को लेकर चर्चा हुई । यहीं से मेरा ध्यान उस दिन के होटल के खाने पर जा पंहुचा जब हम सभी दोस्त आठ आठ रोटियां खाने के बाद भी भूखे थे और खाना चाहते लेकिन उतना खाना ही तीस का हवाला ले चुका था हम सभी एक ही बात सोच भी रहे थे और कह भी रहे थे किकुछ दिन पहले तो इतने मे ही पेट भर जाता आज क्या हो गया ? मैं अपनी ऑफिस कि और चल दिया और शायद पर पेट न भरने के कारण रात भर सोचता रहा ....कि मेरे पास पैसे और विकल्प दोनों थे...अपनी भूख शांत करने ...लेकिन उसकी सोचो जिसके पास आमदनी के केवल २० रूपये आते....उसके लिये तो रोटी अभी भी यक्ष प्रश्न है ...ये लाईन भी अभिषेक कि कविता का है, ......जाहिर है कि हमारी व्यवस्था मे आम आदमी से रोटी दूर होती जा रही है...कारण खोजने होंगे

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