ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

मंगलवार, जुलाई 02, 2013

बापू के नाम पर संगीतमय झूठ

रेडियो पर समाचार प्रसारण शुरू होने में कुछ वक्त शेष था। उस खाली वक्त को पाटने के लिए सिलसिलेवार जो कुछ प्रसारित हुआ, वह एक गंभीर प्रहसन लगा। अग्रिम पंक्तियां उसी का ब्यौरा हैं-
                                                                                                                                       
समाचार कुछ ही देर में...कुछेक सेकेंड का सन्नाटा, फिर आवाज आई कि रामकृष्ण परमहंस के अनुसार...पत्थर और मिट्टी के ढेले पर पानी के पड़ने वाले असर की तुलना, कुल मिलाकर विश्वासी बनने का संदेश था। कुछ देर के लिए ऐसे लगा कि जैसे सारे महापुरुषों ने जो कुछ भी चिंतन-मनन किया है, वह सब कुछ इस अविश्वासी दौर में हाशिए की जगह या दो रेडियो कार्यक्रमों के बीच के खाली बच रहे वक्त को भरने का साधन भर है। खैर,  रामकृष्ण परमहंस का संदेश समाप्त होते ही, सिर्फ एक गोली से सिर दर्द भगाने का विज्ञापन हवा में तैर गया। इसका प्रसारण बिल्कुल तार्किक लगा, क्योंकि जिस तरह से इंसानियत और इंसान की जेहनियत कमजोर हुई है, उस तरह से अब हर बात के लिए दवा का होना बेहद लाजिमी है।
अगले क्रम में थिंक पॉजिटिव वाले खेड़ा-मार्टिन नुस्खे की अजमाइश हुई। सब्जी मसाला बेचने की शैली में भारत सरकार की प्रशंसा करता हुआ एक विज्ञापन सुनाई दिया । जिसमें कहा गया कि सरकारी प्रयास से विश्व में सबसे कम दर की फोन कॉल सेवा भारत में उपलब्ध हुई है। इसने न केवल भौगोलिक दूरियों को कम किया है,  बल्कि लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ा है। अरे भाई ! नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का ही आंकड़ा अगर सामने रख लो तो इस सफलता की सारी हकीकत खुल जाएगी। यही नहीं, जिस तरह से महिलाओं के खिलाफ अपराध हुए हैं, या मासूमों और मजलूमों को निशाना बनाया गया है, वह बताता है कि लोगों के बीच का भावनात्मक संबंध ही नहीं, बल्कि तार्किक-वैधानिक संबंध भी संकट में है। आत्मीय रिश्तों के बीच छल-कपट की कहानियों की गवाही करा लें, तो सिर दर्द शुरू हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है। हरेक अन्य विज्ञापन के बाद सिर दर्द भगाने वाली गोली की जानकारी हाजिर थी। हां, एक बात और । बहुत से लोग सिर दर्द के डर से ही वर्तमान दौर की विसंगतियों का मूल्यांकन करने वाली बहसों में शामिल नहीं होते हैं। इसलिए सिर दर्द भगाने की दवाएं बहस-मुबाहसों से भागने वालों को साथ लाने में इस्तेमाल की जा सकती है।
अब जिंगल और संगीत के बेहतर तालमेल से सजे बापू के सपने की बारी थी। बेहतर आवाज, सुरूचिपूर्ण संगीत और कर्णप्रिय शब्दों के साथ लयबद्ध होकर गाया गया- 20 साल का अपना पंचायती राज हुआ,  देखो बापू का सपना साकार हुआ। ग्राम स्वराज्य की साम्यता के आधार पर मौजूदा पंचायती राज व्यवस्था को बापू का सपना कहना गलत है। वास्तव में, बापू ने मौजूदा पंचायती प्रणाली की रूपरेखा के तहत ग्राम स्वराज का कोई सपना देखा ही नहीं था। अभी तो त्रिस्तरीय और दो स्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था लागू है, जबकि बापू ने ग्राम, ब्लॉक, जिला, प्रांत और अखिल भारतीय स्तर पर पंचायत व्यवस्था के पांच चरण चिन्हित किए थे। जिसे लागू होने के बाद ग्राम वाकई नीति-निर्माता होते और संसदीय व्यवस्था का मौजूदा स्वरूप पनप ही नहीं पाता।
खैर, बापू के बारे में कांग्रेस से ज्यादा कौन जान सकता है और अब तो कांग्रेस नीत केंद्र सरकार बापू की यादों को संजोने के लिए हेरिटेज मिशन भी मंजूर कर चुकी है। हो सकता है कि इसी क्रम में पंचायती राज से जुड़े बापू के सपने के बारे में सरकार को कुछ तथ्य हाथ लगे हों, वरना सरकार इतनी जोर-शोर से क्यों कहती ? क्या झूठ चिल्लाकर भी बोल जाता है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो कुछ भी चिल्लाकर बोला जाए उसे झूठ नहीं कहा जा सकता है।
पूरा विज्ञापन कितनी दिलचस्प बात करता है। कहता है कि ई-व्यवस्था आने से पंचायती राज पारदर्शी हो गया है। ग्रामीण अभियंत्रिकी सेवा के अधिकारी और ग्राम विकास/पंचायत अधिकारी साफ तौर घूस लेते हैं और बेधड़क कहते हैं कि क्या करें साहब ! ऊपर तक जाता है, ई-व्यवस्था की पारदर्शिता में अब और क्या चाहिए ? वैसे ई-गवर्नेंस में कमाल के फीचर हैं। रहिमन पानी राखिए असली मतलब तो ई-गवर्नेंस में ही समझा गया है। जैसे सारे काम ऑनलाइन और फटाफट (प्रचार के मुताबिक) हुए हैं, हकीकत में वैसे ही कागजों पर फटाफट तालाब खोदकर उसमें पानी भरते हुए धरती को सूखे से बचाने में सफलता पाई गई है। माफ कीजिएगा बापू ! अब तो आपके सपनों को लेकर संदेह होने लगा है। लगता है कि सार्वजनिक तौर पर कुछ अलग सपना देखा और सुनाया, कांग्रेस को चुपके से कुछ अलग ही सपना समझाया ।
मौजूदा पंचायतों की हालत आर-पार दिखाई देती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो बेहद पारदर्शी हैं। पैसे के प्रवाह में कत्लो-गारद है, निर्वाचित पत्नियां चूल्हा फूंक रही हैं, पति ब्लॉक की मीटिंगों में ग्राम सभा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इस पंचायत व्यवस्था में हर उस शख्स को मालामाल होने की छूट है, जिसका स्व-नियंत्रण खत्म हो और वह ईश्वर के न्याय जैसी किसी व्यवस्था को न मानता हो। पारदर्शिता के नाम पर नैतिकता और मर्यादाओं के नाम पर छिपाव पैदा करने वाले चोले को ही उतार फेंका गया है। भूतो न भविष्यति की शर्त पर सरकारों ने बड़ी दिलेरी से अपने हर झूठ और फरेब को स्वीकार किया है, मंत्री पहले निर्दोष बताए गए, फिर हटाए गए हैं, प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग वर्षों पुरानी हो चली है। क्या इसे पारदर्शिता नहीं कहेंगे ?
यह सच है कि अगर कुछ सेकेंड के भीतर इतनी सारी विरोधाभासी बातें जनता के दिमाग में डाल दी जाएंगी तो सिर दर्द होना स्वाभाविक है। एक संवेदनशील संचार माध्यम होने का मतलब है कि अपने श्रोताओं की हर अवस्था का अनुमान कर लिया जाए, इसलिए स्थिति को भांपते हुए दर्द की गोली खाकर सिर दर्द से राहत पाने की जानकारी प्रसारित की गई। उल्लेखनीय है कि इन विज्ञापनों के क्रम में एक बार अमिताभ बच्चन भी जनता के सिर की कूल-कूल-ठंडी-ठंडी मालिश करके चुके थे। ये तो वही एंग्री यंग मैन हैं, जिन्होंने बचपन में ही कह दिया था कि मैं फेंके हुए पैसे नहीं उठाता। ध्यान दीजिए जब कहा था, तब भारत में उदारीकरण का कहीं दूर-दूर तक अनुमान भी नहीं था। देखो, उदारीकरण के दो दशक क्या बीते, बेचारे की क्या हालत हो गई है ? सारा स्वाभिमान औकात में आ गया है। बुढ़ापे में गुजारे के लिए रात को जागकर तेल मालिश के लिए आवाज देनी पड़ रही है।