ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

शनिवार, जुलाई 12, 2014

डांस ऑफ डेमोक्रेसी

शीर्षक अंग्रेजी अखबार से उधार है। चेतावनी यह कि मेरिटोरियस व आस्थावादी इसे न पढ़ें, समय की बचत होगी।

डांस ऑफ डेमोक्रेसी यानि लोकतंत्र का नृत्य। लोकतंत्र के नृत्य को देखने से पहले लोकतंत्र और इसके बदलते तेवर को जान लेना मुनासिब होगा, ताकि नृत्य शैली का अंदाजा हो सके। डांस ऑफ डेमोक्रेसी के मूल में प्रचार वाला लोकतंत्र है, जिसे वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया विज्ञापित लोकतंत्र कहते हैं। वास्तव में जो लोकतंत्र हमें वोट देने के अधिकार या कर्तव्य के रूप में समझाया जाता है, उसका बड़ा हिस्सा लोकतंत्र के विज्ञापन का है। लोकतंत्र केवल प्रक्रिया भर नहीं है, बल्कि एक भावना है, एक विचार है और एक समझ है। हालांकि प्रचार वाले लोकतंत्र से इससे जुड़ी कई मूल शर्तें गायब होती हैं। वही शर्तें जो लोकतंत्र को भीड़तंत्र या स्वेच्छचारी शासनतंत्र या बहुमत की स्वेच्छाचारिता या शासन की सबसे खराब व्यवस्था बनने से रोकती हैं। इसे मोटे अर्थों में आत्मनियंत्रण और मतांतरों के साथ सामंजस्य की उदारता कह सकते हैं। इस बार के आम चुनाव में विज्ञापित लोकतंत्र काफी कामयाब रहा है। कारण कि राजनीतिक मतांतर की राजनीतिक अलगाव की स्थिति ज्यादा मुखर हुई हैं और सामान्य तर्क-वितर्क में आक्रामकता बढ़ी है। गौर करें तो इस आक्रामक शैली का इस्तेमाल बाजार अपने उत्पादों के विज्ञापन में करता रहा है।
खैर, कुछ हिन्दी वरिष्ठों का कहना है कि हिन्दी में गंभीर बातें आने पर पढ़ने वाले के दिमाग पर चोट पहुंचती है, इसलिए हिन्दी में गंभीर नहीं लालित्यपूर्ण बातें करनी चाहिए। तो बढ़ते हैं डांस ऑफ डेमोक्रेसी की तरफ।
डांस ऑफ डमोक्रेसी के लिए घुंघरू और नाचने वाले की जरूरत है। डेमोक्रेसी में सरकार सक्रिय तत्व है और उसके व्यवहार को ही डेमोक्रेसी का व्यवहार माना जाता है। सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत से उसके मुखिया को नृतक की संज्ञा दे सकते हैं। असल डेमोक्रेसी में जनता मास्टर होती होगी, लेकिन डांस ऑफ डेमोक्रेसी में जनता को घुंघरू की भूमिका में है। हम सब घुंघरू ही तो हैं, बजना है, बस बजते जाना है (शीतल पेय के विज्ञापन की पंचलाइन-हम सब बोतल ही तो हैं, बस ढक्कन ही तो हटाना है)। सत्ता परिवर्तन के लिए चुनावी खर्च देने वाले कार्पोरेट घरानों डांस ऑफ डेमोक्रेसी का लक्षित समूह है। डांस ऑफ डेमोक्रेसी की एक स्पष्ट शर्त है कि मंच पर जैसे कोई नृतक थकने लगता है, उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। उदाहरण के लिए मनमोहन को देखें । उन्होंने 1991 में डांस ऑफ डेमोक्रेसी का घराना तैयार किया। कई लोग आए और उनके ही रियाज को आगे बढ़ाते गए। जब खुद मुख्य कलाकार बने तो घुंघरुओं (हम जनता को) को राहत मिलने की उम्मीद देते हुए कड़े फैसले करते रहे, लेकिन जब कमजोर पड़ने लगे तो बिगड़ी अर्थव्यवस्था और नीतिगत लकवा जैसे आरोपों के साथ मंच से उतार दिए गए। तुलनात्मक रूप से उत्तराधिकारी जोशीला और काफी आक्रामक है तो घुंघरुओं से अच्छे दिनों का वादा भी है।
डांस ऑफ डेमोक्रेसी में घुंघरू व मनोरंजनकर्ता पुराने हैं, नृतक बदल गया है। विश्लेषकों का कहना है कि मनमोहन और मोदी सरकार के वित्त मंत्रियों के बजट प्रस्तावों में कोई नीतिगत अंतर नहीं है। घुंघरू रूपी जनता के लिए सोशल सिक्योरिटी आवंटन में कटौती है तो वित्तीय घाटा कम करने की घोषणा से सब्सिडी जैसी राहत हटने का जोखिम बढ़ा है। साथ ही, बढ़ा हुआ रेल किराया (ध्यान रहे कि पूर्ववर्ती सरकार इस फैसले को लागू नहीं कर सकी थी), पेट्रोल व गैर-सब्सिडी वाले सिलिंडर की कीमत में बढ़ोतरी असरदार हो चुकी है। इसके मुकाबले कार्पोरेट को रक्षा, बीमा जैसे क्षेत्रों में एफडीआई, निवेश के साथ ऊर्जा क्षेत्र में टैक्स हॉलीडे जैसी सौगातें मिली है।
डांस ऑफ डेमोक्रेसी के इस रूपक से अच्छे दिनों की उम्मीद करने वाले निराश न हों। अच्छे डांस के लिए घुंघरू जरूरी हैं, इसलिए उचित साज-संवार मिलती रहेगी, बदले में बजते रहना होगा घुंघरू की तरह, कभी इस पैर में-कभी उस पैर में। टैक्स छूट बढ़ी है, बचत कीजिए, बाकी प्याज खाने और गाड़ी चलाने की सलाह किसी डॉक्टर ने नहीं दी है ? और रही अच्छे दिनों की बात तो किसने कहा था कि पहले ही महीने आ जाएंगे ? वैसे एफएम पर सुनी एक बात और सुनते जाइए...एक ने कहा- सोचता हूं कि बाइक बेंचकर पेट्रोल ले लूं। दूसरे ने पूछा- भाई! डालोगे कहां ?