ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

मंगलवार, अप्रैल 22, 2014

विकासपुरुष या लकड़सुंघवा

लकड़सुंघवा उठा ले जाएगा- बचपन में घर से बाहर जाने से मना करते हुए यह धमकी मिलती थी। कहां और क्यों उठा ले जाएगा, इस सवाल पर जवाब मिलता कि जब कहीं पर पुल बनता है, तो उसकी नींव में कम से कम सात बच्चों की बलि दी जाती है। बलि के लिए बच्चों को लाने की जिम्मेदारी लकड़सुंघवा को दी गई है। वे गांव-गांव घूम रहे हैं और बाहर मिलने वाले बच्चों को उठा ले जाते हैं और जब कहीं पुल बनता है, तो उसमें बलि देते हैं।

अब से याद करूं तो यह 1990 के आसपास का समय था। जाहिर है यह कहानी झूठी और बच्चों को डराने व गर्मी में बाहर जाकर खेलने से रोकने के लिए रची गई होगी, लेकिन आज के हालात में इस कहानी को झूठा कहना मुनासिब नहीं होगा। गरीबी, भुखमरी, सामाजिक न्याय, कुशल प्रशासन और अधिकार संपन्नता जैसे मुद्दों को गायब कर विकास की जो प्रक्रिया अमल में लाई जा रही है, उसमें लकड़सुंघवा और पुल बनाने में बच्चों की बलि दिए जाने की कहानी छिपी हुई है।

भारत में विकास (पुल बनाने) में कमजोरों (बच्चों) का बलिदान लिया जा रहा है। यह काम विकास पुरुषों (लकड़सुंघवों) के नेतृत्व में चल रहा है। इसमें काफी तेजी है, यही वजह है कि देश में लकड़सुंघवों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वे गांव-गांव और शहर-शहर घूम रहे हैं और पुल (विकास) की नींव में बलि देने के लिए बच्चों (कमजोरों) को जुटा रहे हैं।
यकीन न हो तो सोचिए कि क्यों दंगों में मारे दिए गए लोगों (लकड़सुंघवों द्वारा बलि दिए गए बच्चों) के सवाल को भुलाकर विकास की घटनाओं (पुल व उसकी मजबूती) की बात सामने रखी जा रही है। लोग किस नैतिक आधार पर कह रहे हैं कि एक दंगा (कुछ बच्चों की बलि) हो गया, उसे भूल जाओ क्योंकि उसके बाद तो कोई दंगा नहीं हुआ। यानि लोग यह कह रहे हैं कि लकड़सुंघवे ने जिस गांव को निशाना बना कर पुल में कुछ बच्चों की बलि दे दी, वह लकड़सुघवा दोबारा उस गांव से दूसरा बच्चा लेने नहीं आया है, पहले के बच्चों के गायब होने के बाद दूसरे बच्चे गायब भी नहीं हुए हैं। और हां, गांव के बच्चों की बलि के बाद जो पुल बना है (विकास हुआ है), वह भी तो बहुत मजबूत (अच्छी सुविधाएं) है, उससे बलि दिए गए बच्चों के गांव वाले भी अक्सर गुजरते हैं सर्र से।
कमजोरों व वंचितों (बच्चों) से बलिदान की मांग करने वाला यह विकास (पुल) एक बड़ी परियोजना है। इसके कई चेहरे हैं, जिनमें आपस में इस परियोजना को आगे ले जाने की होड़ है। इसमें वही विकास पुरूष (लकड़सुंघवा) विकास (पुल) को लेकर अपने दावे को मजबूती से रख पा रहा है, जिसकी सरपरस्ती में ज्यादा से ज्यादा कमजोरों (बच्चों) को उजाड़ा (बलि) गया है। यही वजह है कि आम चुनाव में आदिवासियों (कमजोर बच्चों) के जल-जंगल-जमीन से बेदखल करने (बलि देने) जैसे सवालों कोई जगह नहीं मिल रही है।
तमाम विकासपुरुष (लकड़सुंघवे) टीवी चैनल्स पर अपने-अपने चहेते विकास का खाका (पुल का नक्शा) खींच रहे हैं, लेकिन न तो कोई पूछता है और न ही वे बताते कि विकास की मौजूदा प्रक्रिया (पुल निर्माण) में कमजोरों को ताकत देने (बच्चों की बलि रोकने) की नीति क्या होगी?

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