ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
सोमवार, अक्तूबर 04, 2010
पंचायतीराज की विसंगतियां
देश का स्थानीय निकाय चयनित प्रतिनिधियों की संख्या और मतदाताओं के आधार पर सबसे बड़ा निर्वाचित संगठन है। बावजूद इसके स्थानीय चुनावों में कुछेक राज्यों को छोड़कर बाकी राज्यों में दलीय भागीदारी नहीं दी गई है। अगर कहीं दी गई है, तो वह राजस्थान की तरह ऊपरी स्तर तक सीमित कर दी गई है। पंचायती राज के जरिए भारत अपने लोकतांत्रिक ढ़ांचे को सबसे पुराना साबित करने का दम भरता है, लेकिन स्थानीय निकाय चुनावों में दिखने अपरिपक्वता और उससे पैदा हुई हिंसा और पक्षपात की शिकायतें सबसे पुराना होने के दावे पर सवाल बन कर खड़ी हो जाती हैं। हाल में संपन्न हरियाणा का रक्तरंजित स्थानीय निकाय चुनाव इसका उदाहरण है। संविधान का 73वां और 74वां संशोधन भी महज रस्म अदायगी की तरह जमीन पर उतरता हुआ दिखाई देता है,क्योंकि इसके जरिए जिस मजबूत स्थानीय निकाय की कल्पना की गई थी, वह आज की परिस्थितियों में पूरी तरह से नदारद है। कल्याणकारी योजनाएं घोटालों की भेंट चढ़ रही हैं। उत्तरप्रदेश के बहराइच जिले में करोड़ों का पेंशन घोटाला स्थानीय निकायों की कमजोरी बताने के लिए काफी है। भ्रष्टाचार मुक्त होने के तमाम दावों के साथ रोजगार गारंटी योजना को लाया गया था, लेकिन आज यही सबसे ज्यादा सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार की शिकार है। कल्याणकारी योजनाओं की हालत यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि यह कमी योजनाओं की है या फिर योजनाओं को लागू करने वाला संगठन ही अपनी ढांचागत कमजोरियों की वजह से भ्रष्टाचार को जगह मुहैया कराता है।
पंचायतों की संगठनात्मक पहलू का आकलन करें तो पूरा संगठन संसदीय व्यवस्था के सामने सिर के बल खड़ा दिखाई देता है। पंचायती राज संस्थाएं स्थायी रूप से शक्ति असंतुलन की समस्या का शिकार हैं। जिसकी वजह से ये संस्थाएं न तो स्वशासन की ओर बढ़ सकीं हैं और न ही सामंती परिवेश से लड़ने में सक्षम हो पा रही हैं। याद रहे कि महात्मा गांधी ने त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की जगह ग्राम, मंडल, जिला, प्रांत और केंद्र के स्तर तक पांच स्तरीय पंचायती व्यवस्था की वकालत की थी। ताकि सभी स्तरों को शासन प्रणाली की प्रक्रियात्मक एकरूपता बनी रहे। लेकिन त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को मान्यता देते हुए राज्य और केंद्र के स्तर पर पंचायतों के विचार अमान्य कर दिया गया। खामियाजा यह हुआ है कि ऊपरी दोनों स्तरों पर संसदीय व्यवस्था के नियमों से कामकाज होता है, जबकि स्थानीय निकायों के तीनों स्तरों पर कार्यप्रणाली का संकट बना हुआ है। स्थानीय निकायों का राजनैतिक परिवेश संसदीय राजनीति से पूरी तरह अलग हो जाता है। स्थानीय निकायों में निर्वाचन के जरिए सत्ता पक्ष तो बन जाता है,लेकिन इसकी जवाबदेही तय करने वाला विपक्ष कभी भी स्पष्ट नहीं हो पाता है। जबकि शक्ति संतुलन और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए संसदीय व्यवस्था में विपक्ष की अनिवार्य माना गया है। क्योंकि विपक्ष के पास सत्ता पक्ष की नाकामियों और मनमानेपन को जनांदोलनों के जरिए चुनौती देने की ताकत रहती है।
विपक्ष जनता के व्यापक हितों को लेकर सत्ता पक्ष की आलोचना और अपनी आलोचना को जनांदोलन की शक्ल देकर नियंत्रणकारी भूमिका निभाता है। बीते 5 जून को महंगाई मुद्दे पर विपक्ष का भारत बंद,इसी नियंत्रणकारी अधिकार का परिचय है। विपक्ष किसी भी जनहित के मुद्दे पर सामूहिक समझ पैदा करता है। विपक्ष राजनीतिक दल के रूप में अपने शीर्ष नेता से लेकर अंतिम कार्यकर्ताओं तक सबको एक राजनीति में जोड़ता है। यही वजह है कि राजनीतिक दलों के माध्यम से आने वाला विरोध या समर्थन सामूहिक समझ का पर्याय माना जाता है। कुल मिलाकर संसदीय राजनीति में दलों की भागीदारी और विपक्ष का चयन ही लोकतंत्र की अवस्थापना है। क्योंकि इसके अभाव में स्थानीय निकायों की तरह ही शक्ति-संतुलन व्यक्तिगत क्षमता का प्रश्न साबित होने लगता है। जिसकी वजह से न केवल चुनावों में बल्कि बाद के समय में हिंसात्मक घटनाओं में इजाफा होता है।
स्थानीय निकायों में विपक्ष की गैर मौजूदगी में सबसे ज्यादा नुकसान संस्थागत सुधारों को लाने में हुआ है। महिला सशक्तीकरण का नारा देते हुए महिलाओं को 33 फीसदी (कहीं कहीं 50%) आरक्षण दिया गया है। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि महिला प्रतिनिधियों के परिजन ही हस्ताक्षर को छोड़कर बाकी सारी शक्तियों का इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि ग्राम प्रधानपति, ब्लॉक प्रमुखपति और जिलाध्यक्षपति जैसे अनौपचारिक, लेकिन ताकतवर पद पैदा हो गये हैं। सितंबर-अक्टूबर में उत्तरप्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव की तैयारियों में प्रत्याशियों के पोस्टर इसका सबूत हैं। पोस्टरों में नाम तो महिला उम्मीदवारों का है, लेकिन फोटो पति या पुत्र की चस्पा है। इससे साफ है कि स्थानीय निकाय समाज में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की जमीन तैयार नहीं कर पाये हैं। साम, दाम, दंड और भेद की रणनीति के जरिए पंचायतों में नौकरशाहों की मिलीभगत से सार्वजनिक धन का दुरूपयोग होता है। कल्याणकारी योजनाओं का लाभ अपात्रों के हिस्से में चला जाता है, जबकि जरूरतमंद पीछे छूट जाते हैं। नरेगा, इंदिरा आवास, बीपीएल कार्ड, पेंशन स्कीम में भ्रष्टाचार कहीं से भी छिपा नहीं है। कहने का स्पष्ट मतलब है कि केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर विपक्ष की मौजूदगी के बावजूद भ्रष्टाचार के तमाम मामले देखे जाते हैं। तो पंचायतों में विपक्षविहीनता के असर का आंका जा सकता है। स्थानीय निकायों में प्रत्यक्ष भागीदारी लाते हुए माना गया था कि भ्रष्टाचार नहीं पनप पायेगा। लेकिन मतदान करने के बाद जनता में दिखने वाली उदासीनता ने भ्रष्टाचारियों को लूटने का मौका दे दिया है। जनभागीदारी,जन नियंत्रण और जन नियोजन कुछ ऐसे पहलू हैं, जो स्वभाविक रूप से किसी भी प्रतिनिधिकारी व्यवस्था का अंग नहीं बन सकते हैं। बल्कि दलीय राजनीति इसके लिए संस्था के रूप में काम करती है। तथ्य के तौर पर उत्तर प्रदेश में ग्राम प्रधान को हटाने की प्रक्रिया को लिया जा सकता है। जहां ग्रामप्रधान को 15 दिन की नोटिस के बाद उपस्थित और मतदान करने वालों के दो-तिहाई बहुमत से हटाने का प्रावधान है। जबकि प्रक्रिया शुरू करने के लिए कोरम (अनिवार्य संख्या) ग्राम सभा का एक-तिहाई है। यानि ग्राम प्रधान को हटाने की प्रक्रिया सामूहिक समझ और भागीदारी की संकल्पना है। सामूहिक समझ और भागीदारी को पैदा करने की प्राथमिक प्रक्रिया राजनीतिक दलों से शुरू होती है। यानी ग्राम प्रधान चाहे जितनी गड़बड़ी करे, उसको इस प्रक्रिया से हटाना लगभग असंभव है।
कह सकते हैं कि स्थानीय निकायों को कमजोर बनाये रखने के पीछे समस्याओं को पालने-पोषने वाली राजनीति सक्रिय दिखाई देती है। कारण साफ है कि केंद्र और राज्य की सरकारें मतदान के जरिए जनादेश के स्पष्ट होने के अवसरों को न्यूनतम रखना चाहती हैं। यदि दलीय आधार पर स्थानीय चुनावों होते हैं, तो राजनीतिक दलों को भविष्य की राजनीति के लिए मिलने वाला जनादेश स्पष्ट होगा। जनता के पास विरोध जाहिर करने के मौके ज्यादा होगें,जो सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों की वादा खिलाफी पर उसे नियंत्रित करने की ताकत रखते हैं। इन्हीं मौकों पर जनादेश को अपने पक्ष में करने के लिए राजनीति दलों को ईमानदारी से मेहनत करनी की जरूरत होगी। जो एक किस्म की चुनौती होगी क्योंकि भारतीय राजनीति बहुत बड़ा हिस्सा नारों और भावनाओं की राजनीति पर निर्भर रहा है। जिस पर जनता ने खुद को छला हुआ ही महसूस किया है। पश्चिम बंगाल के नगर निकाय चुनाव को विधानसभा का सेमी फाइनल इसी तर्क पर कहा गया था। इसके अलावा जब भी कहीं पर उपचुनाव होता है या ऐसा चुनाव जिसमें दलों की भागीदारी होती है, वह सत्ताधारी दल की हार को जनता के अविश्वास का संकेत माना जाता है। पंचायतों में दलीय भागीदारी आने से सभी राजनीतिक दलों को जनता के चयन से गुजरना होगा। जाहिर है सबसे व्यापक जनाधार(वोटिंग प्रतिशत के लिहाज से) वाली इस व्यवस्था से गुजरने की चुनौती से बचने के लिए ही दलीय भागीदारी को नहीं लागू किया जा रहा है।
देश में योजनाओं की विफलता को लेकर आरोप-प्रत्यारोप की संस्कृति विकसित कर ली गई है। स्पष्ट जवाबदेही की कमी राज व्यवस्था के सभी स्तरों पर देखी जा सकती है। इसी क्रम में कमजोर पंचायतें केंद्र और राज्य की सरकारों के लिए नाकामी छिपाने का साधन भी साबित हो रही हैं। सरकारें नोडल एजेंसी के रूप में पंचायतों के कामकाज का विस्तार तो कर रही हैं, लेकिन उसकी प्रणालीगत खामियों को दूर करने के लिए कहीं से भी संजीदा नहीं है। पंचायतों के पास थोक भाव में पैसा पहुंचाया जा रहा है, लेकिन उसके सही इस्तेमाल की गारंटी हकीकत से कोसों दूर है। क्योंकि इसकी गारंटी देने वाली राजनीति ही नदारद रखा गया है। आलम यह है कि दलीय राजनीति के अभाव में पंचायतों के प्रतिनिधि चयनित नौकरशाही के साथ काम करने वाले निर्वाचित नौकरशाह बनकर रह गये हैं। कई मामलों में चयनित नौकरशाही के अधिकार ज्यादा सक्षम है। ध्यान रहे कि स्थानीय निकायों के समांतर गैर सरकारी संगठनों की भी भागीदारी बढ़ाई जा रही है। मतलब साफ है एक संस्था जो सीधी भागीदारी की तर्ज पर बनी हुई है,उसके काम काज को सुधारने के बजाय, उसके समांतर दूसरी संस्थाओं को मौका दे दिया जा रहा है। राजनीति की इस तौर तरीके के आधार पर कहा जा सकता है कि सत्ताधारी अपनी राजनीतिक नाकामी छिपाने के लिए एक साथ कई चेहरों को मैदान में उतार कर रखती है। एक से अधिक संस्थाएं सीधी जवाबदेही से बचाती हैं। क्योंकि तमाम असंतोषों के लिए इन्हीं संस्थाओं को जिम्मेदार ठहराना आसान हो जाता है।
पंचायतें रोटी-कपड़ा और मकान के आसपास बुनी जा रही राजनीति को जमीनी हकीकत दे सकती हैं। क्योंकि मसला चाहे प्रत्यक्ष भागीदारी का हो या जनता से निकटता का, जवाबदेह लोकतंत्र के रूप में स्थानीय निकायों की अवधारणा पूरी तरह से सक्षम है। हालांकि इसके बाद दूसरी पीढ़ी की राजनीति अनिवार्य जरूरत बन जायेगी। जिसके लिए आज के हमारे राजनीतिज्ञ कहीं से भी तैयार नहीं दिखाई देते हैं। क्योंकि इन्हें मालूम है कि अगर जनता समस्याओं से उबर गई तो वह वादाखिलाफी और समस्याओं को जिंदा रखने की राजनीति को कतई स्वीकार नहीं करेगी। तब जनविश्वास की सौदेबाजी से निजी हित साधना लगभग नामुमकिन हो जायेगा। यही वजह है कि तमाम दावों के बावजूद छह दशकीय राजनीति जनता की प्रारम्भिक आवश्यकताओं भी पूरा करने में विफल रही है। अगर पंचायतें महज ढाल की तरह इस्तेमाल करने के लिए नहीं बनायी गई हैं, तो उनमें राजनीतिक दलों की भागीदारी और अधिकार हस्तांतरण की प्रक्रिया शुरू किये जाने की जरूरत है।
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