ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
गुरुवार, सितंबर 09, 2010
आंकड़ों के विकास का भारत कुछ ऐसा ही होगा...
आधुनिक अर्थव्यवस्था के तहत विकसित भारत कैसा होगा, उसमें क्या होगा और क्या नहीं होगा,अब इसकी एक झलक देखी जा सकती है। दिल्ली में एम्स फ्लाई ओवर के बीच बना पार्क भविष्य दिखा रहा है। जहां पार्क में स्टैनलेस स्टील के फूल लगाये हैं। छोटे से लेकर बड़े सभी तरह के फूल देखे जा सकते हैं। साल 2005 में इस पार्क को पहली बार देखा था। तब यह दूसरे तमाम पार्कों की तरह समतल और हरा-भरा था। लेकिन अब यहां कृत्रिम टीले हैं। टीलों पर पेड़-पौधों का मजाक उड़ाते दर्जनों गुम्बदाकार सिरे वाली स्टील की पाइप आसमान की ओर मुंह किए हुए खड़ी हैं। दरअसल अपने मौजूदा बनावट में यह पार्क पेड़-पौधों का होने के बजाय स्टील का पार्क लगता है। जहां घासें आधुनिक सौंदर्यशास्त्र के तहत बैकग्राउंड कलर देने के लिए लगाई गई है। क्योंकि जिस तरीके का निर्माण किया गया है,उसे देखकर ही थोड़ा-बहुत आनंद लिया जा सकता है,न कि इस्तेमाल करके। गौरतलब है कि इस पार्क को नये रंग-ढंग में एक निजी स्टील कंपनी ने विकसित किया है। यह जानकारी पार्क में लगे बोर्ड से होती है।
पार्क से छांव गायब है। इसलिए दिन के समय उसका उपयोग नामुमकिन है। तेज ढाल की वजह से कृत्रिम टीलों पर आराम से बैठना संभव नहीं है। इसलिए पार्क से बैठने की जगह गायब है। पक्षियों के घोंसले गायब हैं। कुल मिलाकर अपनी चमकीली स्टेनलेस स्टील की वजह से यह पार्क जितना आधुनिक दिखता है, इंसान से लेकर पशु-पक्षियों तक के लिए उतना ही वीरान है। इन्हीं वजहों से एम्स पार्क एक धोखेबाजी या सेंधमारी से कम नहीं लगता है। क्योंकि इसे विकसित करने के नाम पर पार्क की मुख्य खासियत यानि छांव को ही छीन लिया गया है। जिसके लिए बेपरवाह सियासत जिम्मेदार है,क्योंकि उसने बाजार को जनहित पर हावी होने की छूट दी है।
ऐसे मामलों से साफ है कि सियासत अपने दायित्वों को नकारते हुए महज सत्ता के खेल में शामिल होने का जुगाड़ भर होती जा रही है। यही वजह है कि सत्ता पर काबिज होने के बाद वादों को बड़ी ही बेहरमी से भुलाने की कोशिश होती है। समाज के लिए क्या बेहतर है और किन हालातों में जनता के लिए किसी चीज की उपयोगिता है,इसी को तय करने के लिए ही सियासत की जाती है। बावजूद इसके एम्स पार्क में जनहित के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करने में एक स्टील कंपनी सफल है। असल में यह चुप्पी उस राजनीतिक परिवेश को भी बताने के लिए काफी है कि कैसे एक शहर रातों रात फ्लाई ओवर से पाट दिया जाता है। लेकिन एक अच्छी बारिश के साथ शहर की रफ्तार थम जाती है। असल में जिस दौर में हम जी रहे हैं,उसमें राजनीति की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। लिहाजा सत्ता भी उन्हीं प्राथमिकताओं पर जोर देती है,जिसके पक्ष में घरेलू या विदेशी पूंजी वर्ग का प्रचार होता है। स्टील का पार्क भी ऐसी ही दबाव का नतीजा है। कॉमनवेल्थ खेल जैसा आयोजन महज विदेशी निवेशकों के सामने भारत की आंकड़ों आधारित खोखली संपन्नता का बखान करने के लिए किया जा रहा है। जबकि दिल्ली जैसे शहर में कानून-व्यवस्था की हालत ये है कि हथियार के बल पर लूटने के लिए सूरज के डूबने का इंतजार शायद ही कोई लुटेरा करता हो। अपराध दूसरे शहरों में भी होते हैं,लेकिन दिल्ली की बात करते हुए यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह देश की राजधानी है। अगर राजधानी ही लुटती रहे तो देश को लूट से बचाने का दावा करना एक किस्म की साजिश है।
‘सड़कें जरूरी हैं’ सत्ता इस पर विचार करने के बजाय ‘चौड़ी सड़कें जरूरी हैं’ का लक्ष्य लेकर काम करने लगी हैं। दिल्ली और लखनऊ जैसे शहरों को लाल पत्थर और चमकीली टाइल्स लगाने के पीछे भी यही मानसिकता काम कर रही है। इसी मानसिकता के तहत एम्स फ्लाई ओवर पार्क को भी विकसित किया गया है। जो अपने स्वरूप से ‘जनकल्याण’ के नये परवेश की मुनादी कर रहा है। पार्क चीख-चीखकर कह रहा है कि जनकल्याण की दिशा और मात्रा दोनों को पूंजी वर्ग के हित में तय हो रही है। जनता के लिए बैठने, उठने की जगह को एक निजी स्टली कंपनी ने अपने प्रचार के लिए इस्तेमाल कर लिया है। मोटे शब्दों में कहें तो विज्ञापन बना दिया है। ‘राज्य’ के जनकल्याण में कार्पोरेट की सोशल रिस्पांशबिलिटी के तहत जो साझेदारी पैदा की जा रही है, यह पार्क उसी साझेदारी के बाद का जनकल्याण बताता है। इस पार्क से लोक-निजी भागीदारी के भी मंजर का अनुमान लगाया जा सकता है। हालांकि आर्थिक आंकड़ों के विशेषज्ञ लोक-निजी भागीदारी को निजीकरण मानने से इंकार करते हैं, जबकि यह सिद्धांत निजीकरण से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि इसमें जिम्मेदारी तय करने का असमंजस छिपा है।
कुल मिलाकर एम्स फ्लाईओवर के बीच बना पार्क उस सोच का नमूना है,जिसके तहत भारत को विकसित करने की योजना चल रही है। ऐसे में विकसित राष्ट्र की छांव कितनी सिमटी हुई होगी , जनकल्याण कितना खोखला होगा ,इसका महज अनुमान लगाया जा सकता है। अगर हाल-फिलहाल में सियासत के तौर तरीकों में कोई बदलाव नहीं आया,तो सौंदर्यीकरण के नाम पर जिंदगियों को खोखला करने की मुहीम तेज होगी। तब ऐसे पार्कों के नजारे आम होंगे।
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2 टिप्पणियां:
आकडे केवल कागजो तक ही सिमित रहते है ....
यहाँ भी अपने विचार प्रकट करे ---
( कौन हो भारतीय स्त्री का आदर्श - द्रौपदी या सीता.. )
http://oshotheone.blogspot.com
जिस देश के सम्माननीय पदों यानि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पर बैठा व्यक्ति देश और समाजहित की वजाय इन पूंजीपतियों की दलाली में व्यस्त होकर इस देश के निगरानी और दोषियों पर कार्यवाही करने वाले पदों का दुरूपयोग कर इन दलालों को पूरे देश को लूटने के लिए संरक्षण दे रहे हों और पूरे देश की जनता कराह रही हो ,ऐसे हालात में इस देश और समाज का जिन्दा रहना भी मुश्किल लग रहा है ,अब तो ऐसे स्टील के मानव ही इस देश में जिन्दा रहेंगे और राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी बनेंगे जिनमे इंसानी संवेदना नहीं होगी ... सार्थक प्रस्तुती के लिए धन्यवाद ...
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