ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

मंगलवार, जुलाई 27, 2010

एक और हत्या...

 साथियों,

    सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या की फेहरिस्त में एक और नाम - अमित जेठवा। 20 जुलाई को अहमदाबाद में गुजरात हाईकोर्ट के नजदीक उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। अमित सूचना अधिकार कानून के माध्यम से तमाम मामलों में धांधलियों को जनता के बीच ले आये थे। वे सूचना अधिकार के तहत गिर के जंगलों में अवैध खनन में हुई धांधलियों को सामने लाने का प्रयास कर रहे थे। उनकी इस मुहिम के चलते एक सीमेंट कंपनी को काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ा था। उन्होंने कोडीनार लोकसभा क्षेत्र के भाजपा सांसद दीनू भाई सोलंकी के ख़िलाफ़ भी अवैध खनन की शिकायत की थी,जिसकी वजह से सांसद पर एक बार 40 लाख रुपए का जुर्माना भी किया गया था। अमित जेठवा ने पिछले चुनाव में दीनू भाई सोलंकी के ख़िलाफ़ कोडीनार लोकसभा क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी की तरह चुनाव भी लड़ा था। डेढ़ साल पहले भी अमित जेठवा पर एक घातक हमला हुआ था,जिसके लिए उन्होंने दीनू भाई सोलंकी पर आरोप लगाया था। अमित जेठवा की हत्या के बाद उनके पिता ने इसके पीछे बीजेपी सांसद दीनू भाई सोलंकी का हाथ होने का आरोप लगाया है।

      इससे पहले जनवरी में पुणे के सतीश शेट्टी की हत्या भी आरटीआई लगाने की वजह से हुई थी। सतीश शेट्टी ने सूचना अधिकार के जरिए करोड़ों के जमीन घोटाले को उजागर किया था। यहीं से वे पुणे के भू-माफियाओं की नजर में आ गये। लेकिन सरकार उनकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर पायी। बेगूसराय के शशिधर मिश्र, कोल्हापुर के दत्ता पाटिल, बीड़ के विट्ठल गीते, कृष्णानगर के शोला रंगाराव, बदलापुर के अरूण सावंत व अहमदाबाद के विश्राम लक्ष्मण भी कुछ ऐसे नाम हैं, जो सूचना अधिकार की भेंट चढ़ चुके हैं।

   हत्या करने के अलावा भी कई ऐसे मामले हैं,जिसमें सूचना कार्यकर्ताओं को परेशान किया जाता रहा है। बिहार में सेना से रिटायर हुए चंद्रदीप सिंह ने 12 दिसंबर 2007 को दानापुर के सहायक पुलिस अधीक्षक से आरटीआई एक्ट के तहत अपने बेटे और बेटी की आठ वर्ष पूर्व की गई हत्या के मामले में जांच की प्रगति रिपोर्ट जाननी चाही थी। पुलिस अधीक्षक ने उन्हें जानकारी तो मुहैया नहीं कराई, उल्टे उन्हें 16 मार्च 2008 को बलात्कार के एक झूठे मामले में फंसा दिया। लिहाजा अप्रैल से मई तक करीब एक महीने उन्हें जेल में बिताने पड़े। बक्सर के शिवप्रकाश राय ने सितंबर 2006 में एक आरटीआई के जरिए बैंको से यह जानकारी चाही थी कि प्रधानमंत्री रोजगार योजना के तहत कितना कर्ज दिया जा रहा है और उसमें सरकारी रियायत कितनी है। आरटीआई दाखिल करने के बाद उन्हें जिला कलक्टर के दफ्तर बुलाया गया और कहा गया कि वे उस कागज पर दस्तखत कर दें,जिस पर लिखा गया था कि मांगी गई सूचना मिल गई है। दस्तखत करने से इंकार किया तो उन्हें सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में जेल भेज दिया गया।

   महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में एक दलित छात्र राहुल ने पीएचडी में अपने नामांकन के नहीं होने से संबंधित जानकारियां मांगी,तो उससे माफी मांगने के लिए मजबूर कर दिया गया। मुरादाबाद के सलीम बेग ने होमगार्ड विभाग से प्रदेश में होमगार्डों की तैनाती और संख्या से संबंधित कुछ सवाल जानने चाहे थे। उनसे सूचना की कीमत के रूप में 7 लाख 68 हजार 284 रूपये जमा करने को कहा गया। जाहिर है प्रशानिक मशीनरी "न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी" की कहावत पर सूचना देने की नई शर्तें लाद रही है।

   सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की धारा (2) में ही स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सभी लोक अधिकारी लगातार सूचनाओं को विभिन्न माध्यमों से जनता तक पहुंचाते रहेंगे। ताकि जनता को सूचना अधिकार अधिनियम के तहत कम से कम आवेदन की जरूरत पड़े। लेकिन नौकरशाही का एक बड़ा तबका जिस सूचना का अधिकार कानून बनने के शुरूआती दिनों से ही मुखालफत करता रहा हो, उससे इस कानून के अनुपालन की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है ?

   सूचना अधिकार कानून लागू कर सरकार ने निसंदेह एक क्रांतिकारी काम किया है,लेकिन क्या महज़ कानून बना देने से समस्याएं हल हो जाती हैं, यह भी एक वाजिब सवाल है। सूचना अधिकार कानून का जो हश्र हो रहा है,उससे साफ जाहिर है कि नागरिकों को सूचना पाने का अधिकार केवल कानून से जुड़ा मसला नहीं है। बल्कि यह उस पूरी व्यवस्था से जुड़ा मामला है, जो गोपनीयता की आड़ में एक भ्रष्टतंत्र को संचालित और संरक्षित कर रही है। सूचनाएं छिपाने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाए जा रहे हैं। सूचना कार्यकर्ताओं को प्रताड़नाएं दी जा रही हैं। इस तरह के भ्रष्टाचार में केवल नौकरशाही से जुड़े अफसर ही नहीं हैं, बल्कि राजनीतिक दलों की संलिप्तता अब जग-जाहिर हो चुकी है। जो राजनैतिक दल सूचना अधिकार कानून लागू करने के चैम्पियन बन रहे हैं, वह भी पाक साफ नहीं हैं।

   साथियों, ऐसे में हमारी लड़ाई केवल सूचना पाने के अधिकार तक ही सीमित नहीं है। बल्कि यह लड़ाई उस पूरी भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ है, जो गोपनीयता की आड़ में जनता का खून चूस रही है। हमारी लड़ाई अमित जेठवा, शशिधर मिश्रा, सतीश शेट्टी और उन जैसे तमाम सूचना कार्यकर्ताओं को न्याय दिलाने के साथ ही उस भ्रष्टाचार के खिलाफ भी है जिसके लिए ये लोग लड़ते हुए शहीद हुए हैं। आइये, हम भी इन शहीदों के साथ अपनी आवाज़ बुलंद करें।

 

 

निवेदक : अवनीश राय, शाह आलम, विजय प्रताप, ऋषि कुमार सिंह, गुफरान, मुकेश चौरासे, अली अख़्तर, देवाशीष प्रसून, अरूण उरांव, राजीव यादव, शाहनवाज़ आलम, अलका सिंह, अंशुमाला सिंह, श्वेता सिंह, नवीन कुमार, राघवेंद्र प्रताप सिंह, प्रबुद्ध गौतम,अर्चना महतो, विवेक मिश्रा, रवि राव, राकेश, लक्ष्मण प्रसाद, दीपक राव, करूणा, आकाश, नाजिया, राजलक्ष्मी, शीत मिश्रा व अन्य साथी।

 

जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की तरफ से जारी। संपर्क – 9873672153, 9910638355, 9313129941

e-mail – jucsindia@gmail.com,  web access  - www.jucsindia.blogspot.com   

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