(यह पर्चा है जिसे जातिवादी हत्याओं के विरोध में बांटा गया था)
झारखंड राज्य के कोडरमा में निरूपमा पाठक की हत्या जैसी घटनाएं पूरे देश में बड़ी तादाद में घट रही है। इस तरह की घटनाएं विभिन्न रूपों में न जाने कितने वर्षो से जारी है। 1990 के पहले दो अलग अलग जाति की लड़की और लड़के के एक दूसरे के साथ जीने का फैसला करने पर पिता और उसके परिवार के सदस्यों के द्वारा उनकी हत्या करने की एक दो घटनाएं ही सामने आती थी। लेकिन खबरों के नहीं आने का अर्थ ये नहीं है कि ऐसी घटनाएं नहीं होती थी। हत्याएं कम होती थी तो आत्म हत्याएं ज्यादा होती थी। आंकड़े जुटाएं जा सकते हैं कि कितनी लड़कियों ने जहर खाकर, कुएं में कूदकर या गले में फंदा लगाकर आत्महत्याएं की होगी। पहले कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। उनके पढ़ने की मनाही थी। पति की मौत के बाद सती बनने का दबाव था। पति की मौत के बाद लड़की की शादी की इजाजत नहीं थी। दहेज के नाम पर हत्या कर दी जाती थी। निश्चित तौर पर समाज में वर्चस्व रखने वाली जातियों और वर्चस्ववादी संस्कृति को ढोने वालों के बीच ये समस्या बनी हुई थी।इसके खिलाफ सुधार के आंदोलन किए गए।स्थितियों में बदलाव आया लेकिन वह समाप्त नहीं हुआ। विचार के रूप में उसके अवशेष अब भी बने हुए हैं।
समाज में स्त्रियों को नीचले व दूसरे दर्जे में रखा जाता है।पुरूष सत्ता ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए धर्म और जाति का ढांचा तैयार किया है।बल्कि यूं भी कहा जा सकता है कि इन ढांचों का निर्माण इस तरह से किया गया है कि समाज पर वर्चस्व रखने वाला पुरूष समूह तो सर्वश्रेष्ठ बना रहे और समाज के बाकी के हिस्सों में एक दूसरे को नीचा , कमजोर, दोयम दर्जे, यानी अपने से छोटा मानने का विचार अपनी जड़े जमा लें। इसीलिए भारतीय समाज में ये देखने को मिलेगा कि यहां वर्ण के रूप में वर्ण एक दूसरे से नीचे या श्रेष्ठ है। जातियों में दूसरी जातियां एक दूसरे से नीची या श्रेष्ठ है। निरूपमा पाठक के पिता ने संविधान की जगह पर सनातन धर्म को श्रेष्ठ बताया है। उन्होने अपनी बेटी के नाम लिखे पत्र में कायस्थ जाति के प्रियभांशु को निम्न वर्ण का बताया है। जबकि भारतीय समाज में कायस्थों को सवर्ण माना जाता है। हर जाति में भी एक दूसरे से श्रेष्ठ या नीचे वाले गोत्र है। इस तरह से एक दूसरे को एक समान महसूस करने और उस तरह से व्यवहार करने का विचार ही दिल दिमाग में जगह नहीं बना पाता है। ये विचार इतना कट्टर है कि इस पर वर्चस्व रखने वाला समूह उसे बचाने के लिए हर तरह की गुलामी भी स्वीकार कर लेने को तैयार हो जाता है।किसी भी तरह की नृशंसता पर उतारू हो जाता है।निरूपमा पाठक की अपने ही परिवार में हत्या इसका एक उदाहरण भर है।
27 मार्च 1991 को मथुरा जिले के मेहराना गांव में रोशनी, रामकिशन और बृजेन्द्र को पेड़ से सरेआम लटकाकर मार दिया गया था। इन तीनों को लटकाकर मारने का फैसला गांव के दबंगों के प्रभाव में बुलाई गई पंचायत में लिया गया था। रोशनी जाट थी और बृजेन्द्र दलित था। राम किशन अपने दोस्त रोशनी और बृजेन्द्र के रिश्ते में मददगार था। इस घटना के बाद कई राजनेता मेहराना गए थे। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने भी उस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। खुद मीरा कुमार की भी शादी अंतर्जातीय है। उनकी शादी कोईरी जाति में जन्मे व्यक्ति से हुई हैं। ये जाति बिहार में पिछड़ी जाति मानी जाती है।मेहराना की घटना के बाद शोरशराबा मचने पर तीन युवाओं को पेड़ पर लटकाकर मारने वालों में कुछेक को पुलिस ने पकड़ा भी ।लेकिन ऐसी घटनाओं पर रोक नहीं लगाई जा सकी। पुलिस में काम करने वाले लोग भी खाप पंचायतों में बैठने वाले लोगों के बीच के या निरूपमा के पिता के कट्टरपंथी दिमाग के ही होते हैं। उनके भी विचार ऐसी घटनाओं को संविधान विरोधी और लोकतंत्र विरोधी मानने के लिए तैयार नहीं होता है। यही हाल कचहरियों और न्यायालयों में न्याय की कुर्सी पर बैठने वालों का भी है। मीडिया में काम करने वालों का भी है। और इन सबसे बढ़कर वोट की राजनीति करने वाले नेता हैं। वे तो समाज पर वर्चस्व रखने वालों के पिछ्लग्गू की तरह काम करते हैं। जैसे हमें अभी हरियाणा के युवा, उद्योगपति और कांग्रेस के सांसद नवीन जिंदल के रूप में देखने को मिल रहा है। वे हरियाणा में खाप पंचायतों के साथ होने की कसमें खा रहे हैं। इसीलिए मेहराना की घटना के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी शादी का फैसला करने वाले लड़के लड़कियों के मारे जाने की खबरें बड़ी तेजी के साथ सामने आई है। लड़के के पिता मां इसीलिए अपने पुत्र की शादी उसकी पसंद की लड़की से करने को तैयार नहीं होते है क्योंकि लड़की उनकी जाति की नहीं होती है। संविधान अठारह वर्ष की उम्र पार करने वाले को व्यस्क मानती है और उसे देश में सरकार बनाने के लिए वोट देने का अधिकार देती है। व्यस्क होने का अर्थ ये होता है कि लड़का और लड़की अपने स्तर से फैसला कर सकें। लेकिन पिता की जाति और धर्म लड़के को लड़की चुनने का अधिकार नहीं देती है और लड़की को अपनी पसंद के लड़के को चुनने का अधिकार नहीं देना चाहती है। महज इन बीस वर्षों में लड़के और लड़कियों के अपने मां बाप के द्वारा मारे जाने की सैकड़ों घटनाएं सामने आ चुकी है। आत्म हत्याओं की भी तादाद कम नहीं है। लेकिन इस बीच में एक तरह की नई घटना के रूप में लड़कियों की तस्वीरें समाचार पत्रों में छपने की आई है। हर दिन किसी न किसी अखबार में किसी न किसी लड़की के घर से भाग जाने या अपहरण किए जाने की जानकारी देने वाला विज्ञापन पुलिस विभाग द्वारा प्रकाशित कराया जाता है। उसमें लड़की के लापता होने की जानकारी होती है । उसमें ये संकेत मिलता है कि वह लड़की घर से भाग गई है। या फिर लड़की जिसे पसंद करती है उस लड़के के द्वारा उसके अपहरण करने की जानकारी दी जाती है। अपनी पसंद से अपने जीवन साथी का चुनाव करने वाले लड़के बड़ी तादाद में अपहरणकर्ता के रूप में अपराधी करार दिए गए हैं।
निरूपमा पाठक की हत्या महज एक नई और घटना हैं। इसके बाद भी कई घटनाएं सामने आई है और निरंतर आ रही है। यह महिलाओं की आजादी के मसले पर यह एक नये तरह के आंदोलन का दौर हैं। यदि अतीत से अब तक की घटनाओं पर गौर करें तो महिलाओं की आजादी में सबसे बड़ी बाधा जाति और धर्म बना हुआ है। लिहाजा पहला काम तो हमें ये करना चाहिए कि इस तरह की हत्याओं को अंग्रेजी के शब्द ऑनर के विशेषण से संबोधित करना बंद करना चाहिए। इससे इस तरह की घटनाओं के सांस्कृतिक कारणों को समझने में उलझन होती है। ये हत्याएं जातिवादी हत्याएं हैं। इन्हें जातिवादी हत्या के रूप में संबोधित करना चाहिए। दूसरे ये बात भी समझना चाहिए कि खाप पंचायतें न केवल महिलाओं के विरोध में तरह तरह के फैसले करती है बल्कि वही पंचायतें दलितों के खिलाफ भी उसी तरह से फैसले लेती है। दलितों को भी जलाने और मारने की घटनाएं हमारे सामने आती है। हरियाणा के गोहाना में दलित मुहल्ले पर हमला और दलितों के घरों को जलाने जैसी घटनाएं हमारे सामने इस रूप में सामने आई है कि वह पुलिस की मौजूदगी में हुई। खाप पंचायतों की मानसिकता वैसे हर परिवार में बनी हुई है जो दूसरी जाति और दूसरे धर्म से नफरत करती है। निरूपमा की हत्या के मामले को लेकर जगह जगह प्रदर्शन और दूसरे कार्यक्रम हो रहे हैं। पहले भी ऐसी कई घटनाओं को लेकर विरोध कार्यक्रम हुए हैं। लेकिन हजारों वर्षों से भारतीय समाज को नुकसान पहुंचाने वाली इस तरह की मानसिकता के खिलाफ निरंतर आंदोलन चलाने की जरूरत है। ज्यादा से ज्यादा अंतर्जातीय व अंतर्धर्म में शादी विवाह को प्रोत्साहित करने की जरूरत हैं।हमें ये समझना होगा कि जातिवादी मानसिकता एक तरफ अपने से कमजोर समझी जाने वाली जातियों के खिलाफ हमलावर होती है तो दूसरी तरफ उसी जातिवादी मानसिकता से वह अपने घरों के बेटे बेटियों को भी उत्पीडित करती है। उसे आधुनिक बनने से रोकती है। उसे संविधान से अपने फैसले लेने के चुनाव के अधिकार का हनन करती है। उसे जातिवादी विहीन और धर्मनिरपेक्ष समाज बनाने से रोकती है। हमें इस लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेना चाहिए। राजनीतिक पार्टियां वोट की राजनीति की वजह से चुप्पी साधे हुए हैं। जबकि ये समस्या राजनीतिक परिवारों के बेटे बेटियों के समक्ष भी आती है। कई राजनीतिक परिवारों में भी इस तरह की हत्याएं हो चुकी है लेकिन वे अपने राजनीतिक प्रभाव के कारण बच निकलें हैं। लिहाजा ये हमारी जिम्मेदारी है कि युवा वर्ग के सदस्य आजादी से अपने जीवन साथी का चुनाव कर सकें, ऐसा माहौल विकसित करना चाहिए। हमें समाज में उन तमाम शक्तियों और विचारों से लड़ने के लिए खुद को तैयार करना होगा जो देश के युवा वर्ग को जातिवादी और धर्म के दायरे में बांधे रखने के हर संभव कोशिश कर रही है। शिक्षण संस्थानों में लगातार इस विषय पर हमें गोष्ठियां आयोजित करनी चाहिए। पर्चे वितरित करने चाहिए। युवाओं की हत्या से युवाओं के बड़े वर्ग को डराने धमकाने की जो कोशिश की जाती है उस डर और भय को दूर कर उन्हें समझदारी से फैसले लेने के पक्ष में माहौल बनाने की हमारी जिम्मेदारी है। ये एक बड़े समाज सुधार के आंदोलन की आहट है। इसे हमें सुनना चाहिए और उसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
अनिल चमड़िया, विजय प्रताप (9015898445), सपना चमड़िया ,ऋषि कुमार सिंह, देवाशीष प्रसून, चन्द्रिका, अनिल, अवनीश ,शाहआलम, नवीन, अरूण उरांव, प्रबुद्ध गौतम, राजीव यादव, शहनवाज आलम, विवेक मिश्रा,रवि राव, लक्षमण, अर्चना महतो, पूर्णिमा,मिथिलेश प्रियदर्शी, दिनेश मुरार एवं अन्य साथी
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