ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

रविवार, मई 23, 2010

यह तस्वीर बदहाल जिंदगी से बेपरवाह होती राजनीति की कहानी है..


साभार-अमर उजाला


यह तस्वीर उत्तरप्रदेश के बहराइच जिला चिकित्सालय की है। जो स्वास्थ्य सुविधाओं की गाथा गाती और आत्मसम्मान की तुरही बजाती सरकारों के मुंह पर तमाचे की तरह है। हालांकि इस तस्वीर से सबक लेना न तो नौकरशाही के औपनिवेशिक चरित्र के दायरे में आता है और न ही जिले की राजनीति इससे निपटने का हौसला रखती है।

तराई की राजनीति की अफसोस यही है कि जनता के पास उसका दर्द समझने वाला कोई नेता नहीं है। जिन्हें नेता कहा जा रहा है,वे अवसरवादियों के सफल नायक हैं,जिनकी राजनीति केवल नौकरशाही से साठ-गांठ कर पैसा कमाने की वैचारिकी से प्रेरित है।
पिछले कई दिनों से बदहाल चिकित्सा सुविधाओं और बढ़ते मरीजों की खबरों से अखबार भरे पड़े हैं,लेकिन जिला प्रशासन न केवल बीमारियों को लेकर लापरवाही दिखा रहा है,बल्कि हॉस्पिटल में आने वाले मरीजों को सुविधा देने की जिम्मेदारी से भाग रहा है।
जापानी इंसेफ्लाइटिस से लेकर खसरे तक की बीमारियां फैल रही हैं,लेकिन जिला अस्पताल से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र मरीजों के लिए नाउम्मीदी का केंद्र बनकर रह गये हैं। बढ़ते मरीजों और बदहाल सरकारी इंतजामों के बीच कुकुरमुत्ते की तरह उग आये निजी चिकित्सालय मुनाफा काट रहे हैं।

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