ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

सोमवार, फ़रवरी 01, 2010

राजसत्ता,कानून और भ्रष्टाचार

जनसत्ता में प्रकाशित
ऋषि कुमार सिंह
भ्रष्टाचार रोज हमारे आसपास से गुजरता है। मोटे तौर पर पैसे से जुड़ा गैर-कानूनी लेन-देन ही भ्रष्टाचार के दायरे में लिया जाता है। जिसमें थानेदार का पैसा लेना या किसी जिलाधिकारी का घोटाला सब शामिल होता है। सियासी दयारों में भी ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं। जिसमें सत्ता को पाना या फिर पायी हुई सत्ता का निजी हित में इस्तेमाल शामिल है। जनप्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त,प्रश्न पूछने के लिए पैसे लेने या फिर संसद में नोटों के लहराये जाने की घटना को याद किया जा सकता है। वैधानिक नैतिकता के विपरीत भ्रष्टाचार अपने दायरे का दिनोंदिन विस्तार करता हुआ धन के इस्तेमाल व उसकी हेरा-फेरी से आगे आकर नीतिगत हो चला है। हालांकि इसकी नींव इतिहास के पन्नों में ही देखी जा सकती है। ऐसे नीतिगत भ्रष्टाचार के रुप में आवश्यकता से अधिक कानूनों और विभागों को बनाने के निर्णय को लिया जा सकता है। जैसे मद्य निषेध और आबकारी विभागों का एक साथ काम करना। मौजूदा दौर में व्यापक दायरों,हितों और परिणामों का अध्ययन किये बगैर ही नया कानून बना देने का रिवाज हो चला है। ऐसे में कानूनों की अधिकता के चलते जिम्मेदारियों को तय करने में दिक्कतें आती हैं। हालांकि यह सब कुछ तयशुदा कार्यक्रम के तहत किया जा रहा है,जिसका मकसद जनता को समस्याओं में ही उलझाये रखना है,ताकि उसमें चेतना का सही से विकास न हो सके। इसके लिए नकली प्रतिबद्धताओं का दिखावा करने वाली सियासत जिम्मेदार है,जो किसी भी कीमत पर यथास्थिति में परिवर्तन नहीं चाहती है। यही कारण है कि आज लगभग सभी स्तर पर प्रतिबद्दताओं के जर्जर होते ढांचे को महसूस किया जा सकता है। साथ ही संविधान की मनमानी व्याख्या करते हुए उसकी मूल आकांक्षा पर भारी चोट की जा रही है।
ऐसी सबसे पुरानी घटना बिहार में देखने को मिली है। जहां राज्य सरकार ने 1967-1981 के बीच एक-एक करके 256 अध्यादेश जारी किये थे। जिन्हें बार-बार राज्यपाल के अनुमोदन के जरिए लम्बी अवधि तक जिंदा रखा गया। उन्हें विधानसभा की मंजूरी के लिए लाया ही नहीं गया। यह कार्यपालिक द्वारा खोजा गया वह रास्ता था,जिसे ‘डी.सी.वाधवा बनाम बिहार’ राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के साथ धोखाधड़ी और अंसवैधानिक करार दिया था। नये दौर में लगभग अध्यादेशों की ही तर्ज पर कार्यपालिका ने रोज-ब-रोज साधारण कानूनों का प्रस्ताव रखना शुरू कर दिया है। दलीय बहुमत और विधायिका में विपक्ष के कमजोर होने का असर है कि कार्यपालिका के अधिकतर प्रस्ताव कानून में भी बदल जा रहे हैं। मुसीबत यहां है कि कानूनों का निर्माण में प्रतिक्रिया दिखाई देती है। अब समस्या के निदान को कानूनों के मार्फत देखा जा रहा है,भले ही समस्या पहले से मौजूद कानून की देने हो। पेश आ रही समस्याओं के संदर्भ में उपलब्ध कानूनों की प्रासंगिकता व प्रभाव को जाने बगैर नया कानून बना दिया जात है। नया कानून त्वरित सियासी फायदा देता है। जिससे यह साबित करने में आसानी होती है कि तंत्र की विफलता या कमजोरी उसकी अपनी नहीं है,बल्कि पुराना कानून इतना सक्षम नहीं था कि वे अपने दायित्वों को सही से निभा पाते। साथ ही जनता में व्यवस्था या तंत्र के सक्रिय होने का संदेश भी पहुंच जाता है। उदाहरण के लिए जनवरी 2008 के मुम्बई आतंकी हमले के बाद सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी पर चर्चा को पीछे छोड़ दिया गया और पूरे मामले को आतंक निरोधी एकीकृत जांच एजेंसी के अभाव से जोड़ दिया गया। आनन-फानन में नया कानून बनाया गया और नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी का कागजी घोड़ा तैयार कर दिया गया । जबकि पूरा खामियाजा सुरक्षा और सतर्कता एजेंसियों के धराशायी होने की वजह से आया था।
ठीक इसी तरह देश में भ्रष्टाचार को कम करने के लिए नये कानूनों और तरीकों पर जोर दिया जा रहा है। जबकि भ्रष्टाचार निवारक अधिनियम 1988,सूचना अधिकार अधिनियम 2005 और जांच एजेंसियों जैसे केंद्रीय जांच ब्यूरो,केंद्रीय सतर्कता आयोग, प्रवर्तन निदेशालय भ्रष्टाचार को कम करने के लिए पहले से ही मौजूद हैं। लेकिन सरकार ने अमेरिकी भ्रष्टाचार निरोधी कानून व्हिसिल ब्लोअर एक्ट की तर्ज पर एक नया कानून पब्लिक इंट्रेस्ट डिस्क्लोजर(प्रोटेक्शन ऑफ इन्फार्मर)बिल-2009 लाने की योजना बनाई हुई है। इस कानून की पृष्ठभूमि साल 2004 में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से जुड़ी है,जिसमें राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या के बाद केंद्र सरकार को भ्रष्टाचार के विरूद्द आवाज उठाने वाले कर्मचारियों को सुरक्षा सुनिश्चित कराने की बात कही गई थी। उच्चतम न्यायलय के फैसले के बाद केंद्र सरकार ने 2004 में ही पब्लिक इंट्रेस्ट डिस्क्लोजर नाम से एक रिजोल्यूशन संसद में पास कराया था,जिसके तहत नया कानून आने तक केंद्रीय सतर्कता आयोग को इस काम की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। तथ्य है कि प्रस्तावित कानून भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले कर्मचारियों को महज सुरक्षा देने के लिए नाम पर लाया जा रहा है। जबकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 सभी व्यक्तियों को जीवन का अधिकार और सुरक्षा की गारंटी देता है। चाहे वह पब्लिक इन्ट्रेस्ट इंफॉर्मर हो या आमजन। ऐसे में जीवन की सुरक्षा के नाम पर वर्गीकरण समझ से बाहर है। क्या नया कानून यह विश्वास दिला पाएगा कि सत्येंद्र दूबे जैसे ईमानदार लोगों की कभी हत्या नहीं होगी। अपराधी-नेता व अधिकारियों की साठगांठ से हो रहे भ्रष्टाचार में कानूनों की कमी कितनी जिम्मेदार है या फिर इसके दूसरे पहलू भी हैं।
गौर करें तो पायेंगे कि हम कथित रुप से विदेशियों के शासन से मुक्त हैं या आजाद देश के नागरिक हैं,लेकिन शासन का व्यवहार और उसकी प्रक्रियाएं आजतक अपना औपनिवेशिक चरित्र नहीं छोड़ पायी हैं। गौरतलब है कि देश में साल 2002 (5 दिसम्बर 2002 को एनडीए सरकार द्वारा लाया गया कानून,जिसे निरस्त करके 21 जून 2005 को मौजूदा सूचना अधिकार अधिनियम लाया गया था) से पहले गोपनीयता कानून 1923 को हटाने या उसके प्रभाव को कम करने की कोई ठोस पहल ही नहीं की गई थी। जबकि उच्चतम न्यायालय ने 1976 में राजनारायण बनाम उत्तर प्रदेश मामले में जानने के अधिकार की व्याख्या कर दी थी। कहा था लोग सूचित होंगे तभी अभिव्यक्ति के अधिकार का इस्तेमाल कर पायेंगे। लोगों को यह जरूर जानना चाहिए कि उनके लिए बनाई गई व्यवस्था कैसे काम करती है,ताकि जनता जुड़ सके ? बावजूद इसके लार्ड कर्जन का बनाया हुआ शासकीय गोपनीयता कानून नागरिक अधिकारों का हनन करता रहा। सूचना अधिकार कानून ने गोपनीयता कानून को सीमित किया तो भ्रष्टाचार के मामलों में गिरावट देखी गई। इसकी गवाही खुद आंकड़े दे रहे हैं। भ्रष्टाचार का विश्वस्तर पर अध्ययन करने वाली संस्था ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल भारत को साल 2004 में 90वां स्थान,2005 में 88 वां स्थान दिया था,लेकिन सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद 2006 में इसे 70 वां स्थान दिया गया। ये अलग बात है कि कमजोर राजनैतिक मंशा के चलते भ्रष्टाचार फिर फैलने लगा। जिसका असर रहा कि भारत को 2008 में 85 वां और 2009 में 84 वां स्थान मिला। केंद्रीय सतर्कता आयोग भी कुल शिकायतों में आधा ही निपटा पाता है। साल 2005,2006 और 2007 में क्रमशः 52.3,50.9 और 55 फीसदी मामले निपटाये। जबकि सूचना अधिकार कानून आने के बाद सतर्कता आयोग के पास आने वाले मामलों में कमी आयी है। वहीं केंद्रीय जांच ब्यूरो के काम काज की समीक्षा की जाये तो उसके खाते में पीड़ित को न्याय दिलाने से ज्यादा राजनैतिक इस्तेमाल व अपराधियों को बचाने के आरोप हैं। फिलहाल इन भ्रष्टाचार निरोधी उपायों और संस्थाओं के अकुशल या असक्षम होने के लिए कानून की कमी कतई जिम्मेदार नहीं है। यहां बात प्रतिबद्धताओं की है,जिसका सभी स्तरों पर अभाव है।
यह बतौर साजिश के अंजाम दिया जा रहा है क्योंकि इससे राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने में यथास्थिति बनाये रखने में मदद मिलती है। पिछले साठ साल की राजनीति का इस संदर्भ में आकलन कर सकते हैं। गरीबी,अशिक्षा और बेकारी को समाप्त करने के लिए सैकड़ों योजनाएं चलाई गईं,लेकिन हाल में आयी सुरेश तेंदुलकर रिपोर्ट दावा करती है कि आज भी 37 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। इससे पहले असंगठित क्षेत्र में उपक्रमों के लिए गठित आयोग की भारत के कामकाजी गरीबों पर लायी गई रिपोर्ट भी दावा कर चुकी है कि देश की 77 फीसदी आबादी रोजाना 20 रूपये से कम पर गुजारा कर रही है। इन सरकारी आंकड़ों के बीच कह सकते हैं कि जैसे-जैसे स्वतंत्र भारत की सियासत उम्रदराज होती जा रही है,वैसे-वैसे उसमें परिपक्वता के साथ जिम्मेदारी उठाने की जगह बरगलाहट और वादाखिलाफी बढ़ती जा रही है। जिससे ‘राज्य’ के ‘कल्याणकारी’ होने पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। आज जीवन की सुरक्षा देने में ही ‘राज्य’ सक्षम नहीं रहा है। वास्तव में,भारतीय लोकतंत्र अब तक के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। जहां राजनीति जनता की सहूलियत के लिए नहीं हो रही है,बल्कि सत्ता के दोहन के लिए की जा रही है। जो भी सक्षम हो पा रहा है,वही सत्ता का चरखा चलाकर अपने हिस्से का सूत कात लेने की जुगत में है। इसके लिए सत्ताधारी सभी तरीके का भ्रम पैदा कर रहा है। जिसकी झलक देश की सुरक्षा के बारे में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के बयानों में देखा जा सकता है। गृहमंत्री ने आंतरिक सुरक्षा को भगवान भरोसे बताते हुए अलग से आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय और खूफिया सूचना देने के लिए टॉल फ्री नम्बर की वकालत कर डाली है। जबकि सरकार तमाम आश्वासनों के बावजूद बढ़ती महंगाई को रोक पाने में नाकाम रही है।
समस्याएं कार्यकारी मशीनरी के सही से काम न करने से पैदा होती हैं। ऐसे में कानूनों की अधिकता खास किस्म की जटिलता को जन्म देती है,जो न्याय शास्त्र की मान्यताओं के विपरीत है। व्यवहारिक तौर पर किसी एक मामले में एक से अधिक कानूनों,प्रक्रियाओं या संस्थाओं का हस्तक्षेप न्याय पाने की गति को सीमित करता है। जिसे विधिशास्त्र की भाषा में जस्टिस डिले,जस्टिस डिनाई (देर से मिलने वाला न्याय,न्याय नहीं होता है)कहते हैं। उच्चतम न्यायालय ने लोकहित वाद(पीआईएल) की व्यवस्था भी इसी बात को ध्यान में रखते हुए बनाई है। इसीलिए सीमित शासन और स्वशासन जैसी अवधारणाओं को रखा गया है। बावजूद इसके एक-एक कर नये कानूनों के जाल में नागरिक हितों को उलझाया जा रहा है। जबकि देश के भीतर प्रक्रियाओं की अस्पष्टता और गोपनीयता के चलते भ्रष्टाचार है। कुल मिलाकर जरूरत औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ते हुए संविधान की मूल भावना को समझने की है,ताकि नागरिकों को सरल और लोकतांत्रिक मूल्यों से प्रतिबद्ध व्यवस्था मिल सके ।