ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

बुधवार, अक्तूबर 14, 2009

लाल किले की प्रचीर से

एक पुराना लेख,जिसको १५ अगस्त के मौके पर लिखने की कोशिश की थी....शायद इतना सही नहीं बन पाया की कहीं छप सके...लेकिन ब्लॉग तो है न.....
ऋषि कुमार सिंह
देश 63वें स्वतंत्रता वर्ष में प्रवेश कर गया है। ऐसे मौके पर युवा से प्रौढ हो चुके देश के मुख्य स्तम्भ यानी राजनीति का आकलन करना जरूरी हो जाता है। इसलिए नहीं कि एनजीओ मार्का दूसरे स्वतंत्रता आन्दोलन का आवह्वान करना है,बल्कि इसलिए ताकि यह पता लगाया जा सके कि स्वतंत्रता किस परिघटना का नाम है। कहीं यह राशियों के बदलने वाली घटना की तरह तो नहीं है,जिसका रहस्य सिर्फ और सिर्फ भविष्यफल जानने वालों के पास होता है। दलितों और आम आदमी के नाम से उद्घोषित जनता का देश की स्वतंत्रता के बारे में क्या राय है। उसकी जिन्दगी में कोई फर्क आया भी है या नहीं या फिर उसे लूटने के नये पैमाने गढ़ लिये गये हैं। खासकर सामंती मनोदशा में क्या कोई जमीनी फर्क आया है।
ऐसे ही प्रश्नों के संतोषजनक जवाब की खोज में यह महसूस होने लगता है कि स्वतंत्रता के बाद की राजनीति में काफी कुछ बदल चुका है। चालीस के दशक की राजनीति ने अपने को मूल्यों के जिस पायदान पर खड़ा किया था या खड़ा करने की कोशिश की थी,इक्कीसवीं सदी की राजनीति वहां से फिसलते हुए काफी नीचे आ गई है। खास कर आर्थिक सुधारों के बाद की चरमराहट में पूरी राजनीति और राज्य का कल्याणकारी स्वरूप एक तरह से भ्रम और झूठ का संगीतनुमा शोरगुल बन गया है। इस घालमेल और भ्रम को ऐसे भी समझ सकते हैं कि मौजूदा मुद्रास्फीति की दर अपने न्यूनतम स्तर पर है,लेकिन लोगों का निवाला चांद-सितारा बना हुआ है।
जिस तरह से राजनीतिक प्रतिबद्धताओं और मूल्यों में बदलाव देखा जा रहा है,उससे तो यही लगता है कि जैसे देश को अंग्रेजों के जाने भर का इंतजार था। रही ऐतिहासिक स्वतंत्रता आंदोलन की बात तो वह एक जोश भर था,जो समय के साथ ढल गया है। हालात देखने से लगता है कि अंग्रेजी हुकूमत का लूट तंत्र एक समयांतराल के बाद भदेस चेहरों के साथ वापसी कर चुका है। देश के भीतर खाद्यान्नों के दाम आसमान छू रहे हैं। दिल्ली जैसे शहर में दाल और चीनी जैसी निहायत जरूरी चीजों की कीमतें दोगुनी या उससे अधिक हो चुकी हैं। जबकि हर सरकारी आश्वासन में यह शामिल होता है कि देश में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है। पंद्रह अगस्त के मौके पर लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने भी यही जानकारी दी। अपरोक्ष रूप से यह कहना चाहा कि खाद्यान्न कालाबाजारियों के गोदामों में महफूज है। दालों की चढ़ती कीमत को लेकर दिल्ली सरकार ने कम मूल्य पर दालों की बिक्री करने का फैसला किया। जमाखोरों के खिलाफ कड़े कदम उठाने और दालों की आवक सुनिश्चित करने के बजाय दिल्ली सरकार ने मंहगाई जैसे मुद्दे को सतही ढंग से निपटाने की कोशिश की। ऐसे सतही राजनीति वाले फैसले केंद्र और राज्य के स्तर पर कमोवेश सभी सरकारें कर रही हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में मूर्तियों का मु्द्दा खासमखास बना हुआ है। मुख्यमंत्री मायावती तर्क देती है कि अगर दलित नेताओं को पूरा सम्मान दिया गया होता,तो उन्हें मूर्तियां बनवाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को मिला बहुमत क्या जनता के द्वारा मिला हुआ सम्मान नहीं है,ऐसे में मुख्यमंत्री बयान सतही होती राजनीति की गवाही है। मध्यप्रदेश,सरकारी योजनाओं में कन्यादान योजना सर्वोपरि है। इसमें गरीबों को अपनी बेटी ब्याहने के लिए सरकारी मदद तो मिलती ही है,साथ ही साथ बेटी के कौमार्य प्रमाणपत्र भी मिल जाता है। शायद यह बताने की जरूरत नहीं है कि भारतीय जनांकिकी का कौन सा हिस्सा गरीब है और किस वर्ग की अस्मिता इस जनकल्याण के निशाने पर है। छत्तीसगढ़,जहां पर दिवंगत नाटककार हबीब तनवीर के नाटक चरणदास चोर पर प्रतिबधं लगा दिया गया है। पिछले तीस सालों से देश-विदेश में लोकप्रिय रहे नाटक पर लगा प्रतिबंध जनपक्षीयता तर्कसीमा से परे है। जम्मू-कश्मीर,शोपिया बलात्कार कांड पर राज्य सरकार के रूख,घाटी में उसके फैसले के खिलाफ हुए प्रदर्शनों और बाद की जांच में दोनों महिलाओं के साथ बलात्कार की पुष्टि अपने आप में प्रतिबद्धताओं की फिसलन बयान कर देती है। फर्जी मुठभेड़ के खिलाफ इम्फाल की सड़कों पर उतरे लोगों की कहानी भी राजनीतिक छलावे का परिणाम है। गुजरात,पुलिसिया स्टेट का जीता जागता नमूना है। देश की राजधानी दिल्ली,पुलिस महकमे के लिए अगस्त और जनवरी का महीना काफी माकूल होता है। इन महीनों में दिल्ली से एक या दो लोगों को भारी मात्रा में गोला बारूद के साथ जरूर पकड़ लेती है। ऐसा इस बार भी हुआ। दिल्ली पुलिस ने दरियागंज इलाके से दो लोगों को गिरफ्तार कर अगस्त महीने की सार्थकता सिद्ध कर दी। कथित आतंकियों के दिल्ली में घुसने और दरियागंज तक पहुंचने के बारे में पूछने वाले को यह डर है कि कहीं उसे देशभक्ति की परिभाषा से बाहर न कर दिया जाये। मानवाधिकार आयोग,फर्जी मुठभेड़ों और मानवाधिकार हनन के मामलों में एनजीओ की तरह से काम करने की प्रबृत्ति पैदा कर चुका है। जो हर किस्म के अपराध को क्षतिपूर्ति में बदलने की हैसियत रखता है।
कुल मिलाकर मौजूदा समय के बारे में यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजों जाने के बाद जो व्यवस्था हमारे हिस्से में आयी थी,उसमें वे सभी तत्व मौजूद थे,जो इस देश को यथास्थितिवादी और प्रतिक्रियावादी ताकतों की पकड़ से बाहर नहीं होने देना चाहते थे। यही कारण है कि जब हम मुड़ कर देखते हैं,तो वक्त के साथ जकड़नों की नई शुरूआत नजर आती है। बीते समय से ज्यादा सतहीपन का अहसास पुख्ता होने लगता है। यही कारण है कि मंदी,मंहगाई और सूखे से पीड़ित जनता के हिस्से में प्रधानंमत्री की चिंता और गा,गी,गे के अर्थों में निदान का आश्वासन ही आ पा रहा है। ऐसे माहौल में गुलाल फिल्म का संवाद सटीक लगता है कि इस मुल्क ने हर शख्स को जो काम सौंपा,हर शख्स ने उस काम की माचिस लगा दी....

1 टिप्पणी:

विजय प्रताप ने कहा…

पुराना माल ही सही लेकिन अच्छा लिखा है.