जनसत्ता में प्रकाशित...।
जनता मूर्ख है....इस जुमले को कई मायनों और संदर्भों में इस्तेमाल किया जाता है। स्वाभाविक प्रश्न है कि क्या वाकई एक अरब की आबादी मूर्ख है या फिर किसी साजिश का शिकार है। यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर वे कौन लोग हैं जो जनता को मूर्ख कहते हैं ?
जनता मूर्ख है,इस बात को वे लोग कहते हैं जो सुविधाओं के बीच जीते हैं और सत्ता सम्पन्न हैं,जो एक्जिट पोल और टी.वी. पर प्रसारित चुनावी रुझानों के जरिए लोकतंत्र की बहस में शामिल होते हैं। लोकतंत्र के बिगड़ते स्वरूप को लेकर जनता की मति पर सवाल उठाते हैं और उसे मूर्ख कहते हैं। खुद को जनता वाली आबादी से अलग मानते हैं। ऐसे लोग की एक बड़ी तादाद उदारीकरण के बाद भारत में तेजी से फैले सामंती गुणों वाले मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग से आती है। यही लोग टैक्स चोरी और ई एम आई के बूते सुविधाओं का उपभोग करते हैं। सुविधाओं के उपभोग में किसी भी तरह की दिक्कत पैदा करने वाले को मूर्ख कह कर कोसते हैं। खासकर राजनीतिक आन्दोलनों को घटिया मानते हैं। जबकि अपनी बेइमानी को छिपाने के लिए राजनीति को ही ढाल की तरह इस्तेमाल भी करते हैं। रीमिक्स की तर्ज पर देशभक्ति का राग अलापते हैं। देश की ज्यादा चिंता करते हैं लेकिन ऐसी जगहों या आयोजनों से दूर भागते हैं, जहां किसी जुल्म का विरोध होना हो। लोकतंत्र को भीड़तंत्र मानकर इसके डूबने की मुनादी करते फिरते हैं। सत्ता की मानसिकता से साम्यता रखने के कारण उसे और सशक्त बनाने के लिहाज से तानाशाही कदमों का समर्थन करते हैं। सत्ता का प्रतिरोध करने वालों को विदेशी ऐजेंट की उपाधि देते हैं। मानते हैं कि भारतीय विदेश नीति को अमेरिका की तरह आक्रामक होनी चाहिए। नयनों (नैनो कार) में विकास के नए सपने देखते हैं और रास्ते में आने वाली खेती-किसानी और विस्थापन का विरोध कर रही आबादी के देश प्रेम पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। देश के लिए अहितकर मानता है। गिफ्ट की पैकेजिंग पर सैकड़ों खर्चा करता है,लेकिन किसी भीख मांगने वाले को एक रूपया नहीं देता है। सड़क पर फैली गंदगी और सीवर जाम होने पर नाक-भौं सिकोडता है और भूल जाता है। लेकिन गिफ्ट की पैकेजिंग और सुबह-सुबह अपने कुत्ते को सड़कों पर घुमाने से नहीं रोक पाता है।
एक नजर मूर्ख कही जाने वाली जनता के मूर्खता वाले कामों पर डालना जरूरी हो जाता है। दिल्ली का रामलीला मैदान,पटना का गांधी पार्क या लखनऊ के अम्बेडकर पार्क में पहुंचे लाखों-लाख लोगों को क्या माना जाए ? पोलिंग बूथों के बाहर लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े लोग क्या हैं ? पश्चिम बंगाल के सिंगूर,उड़ीसा में पास्को, हरियाणा में बादली, उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएड़ा और मथुरा में किसानों का संघर्ष को किस तरह की मूर्खता कहा जाए ? डॉक्टरों और अस्पताल की लापरवाही से गुस्साकर अस्पताल पर तोड़-फोड़ करने वाली जनता को क्या मानना सही होगा ? कश्मीर या पूर्वोत्तर राज्यों में सेना और पुलिस के अत्याचार और आतंकवाद के नाम पर फैलाये जा रहे प्रोपेगेंडा के खिलाफ लामबंद लोगों को क्या मानेंगे ? मीडिया की अफवाहों से परेशान आजमगढ़ के संजरपुर के निवासियों की जागरुकता को क्या कहा जाए ? पहले कांग्रेस और फिर इण्डिया शाइनिंग कैंपेन वाली भाजपा सहित लालू-मुलायम तंत्र को यूपी और बिहार से उखाड़ फेंकने वाली जनता को मूर्ख कहना कितना जायज है ? जंतर-मंतर पर दशकों से धरना दे रहे लोगों को क्या समझना चाहिए ? पंचायत चुनावों में भाग लेने वाली जनता को क्या कहा जाए,जिसका वोटिंग प्रतिशत किसी भी चुनाव की तुलना में सबसे ज्यादा होता है ? इस रूप में दिखाई देने वाली जनता न तो किसी अवतार में विश्वास रखती है और न ही किसी सुपरमैन के इंतजार में अपना अस्तित्व तलाश रही है। हितों को राजनीतिक तरीकों से जिंदा रखने की जरूरत समझती है इसलिए वह चाय की दुकानों पर, ढ़ाबों पर बैठ कर राजनीति पर चर्चा करती और चुनावों के समय बिना किसी सरकारी और गैर सरकारी विज्ञापन को पढ़े़ अपने मताधिकार का प्रयोग करती है ? यह अलग बात है कि इस जनता का नेतृत्व भी इसे मूर्ख मानकर वर्षों से छलने में लगा है।
भारत की राजनीति के गैर ईमानदार और गैर जिम्मेदार नेतृत्व ने इस जनता की ताकत का बेजा इस्तेमाल किया है। संसदीय राजनीति को रोटी की राजनीति से अलग करते हुए तेरी रोटी और मेरी रोटी का रंग दे दिया है। जबकि किसी भी राजनीति का पहला मकसद भूख के लिए रोटी की व्यवस्था के सिवाय और कुछ नहीं है। यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्हीं विभाजनों और संघर्ष के बीच बेहतर व्वयस्था वाली प्रक्रियाओं की गुंजाइश भी बनती है। हितों को लेकर साझा संघर्ष की सफलता की बुनियाद भी भरी जाती है। जब भी ऐसा होता है तो सबसे पहले उन्हें ही पीछे हटना पडे़गा जो उन्हें पीछे हटना पड़ेगा जो इसे मूर्ख मानते हैं। उदाहरण के लिए नेपाल ही काफी है।
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