एक साल पहले लिखगया ...लेकिन अभी तक इस इंतजार के साथ भटकता रहा कि शायद कहीं पेपर में जगह मिल जाए .......लेकिन अब ब्लॉग पर दे रहा हूँ....ऋषि कुमार सिंह
चांदनी चौक पर रिक्शों को लौटने में एक साल से ज्यादा का समय लगा। लेकिन इन रिक्शों का लौटना कई मायनों में अहम है। भले ही इन रिक्शों को गैर पारम्परिक ऊर्जा को बढ़ावा देने और प्रदूषण मुक्त होने के नाम पर लाया गया है,किन इसका असली मकसद इससे बहुत ही अलग है।
गौरतलब है कि चांदनी चौक से आदमी चालित(पुराने) रिक्शे ट्रैफिक जाम की समस्या के चलते हटाए गए थे,न कि प्रदूषण के कारण। इसी तर्क को मानते हुए हाईकोर्ट ने हटाने को मंजूरी दी थी और सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से मना कर दिया था। नए रिक्शों के आने के बाद कुछ स्वाभाविक से सवालों का जबाब जरूरी हो जाता है। क्या सोलर रिक्शों से ट्रैफिक जाम नहीं लगेगा या ये रिक्शे जमीन पर नहीं चलेंगे। क्या पुराने रिक्शों को हटाने के बाद चांदनी चौक की सड़क को और चौड़ा किया गया है। अगर नहीं तो इसे तर्कों की साजिश के बतौर देखना चाहिए,जिसमें दिल्ली सरकार सहित पूरा प्रशासनिक अमला शामिल हैं। एक बात के लिए दो अलग-अलग समय में अलग-अलग तर्कों का इस्तेमाल हुआ है। पुराने रिक्शों को हटाने के लिए ट्रैफिक जाम और नए रिक्शों को लाने के लिए प्रदूषणमुक्त होने का तर्क दिया गया है। ये ग्रीन रिक्शा है। इसकी खासियत बतायी गई कि यह सोलर पैनल के जरिए चार्ज किया जाएगा। सोलर पैनल मैट्रो स्टेशन पर लगेंगे। इसकी स्पीड 15 से 20 किमी प्रति घण्टे की होगी। चांदनी चौक में 15-20 किमी की स्पीड का खामियाजा कईयों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ सकता है। रही बात ग्रीन होने की तो पुराने रिक्शे किसी भी तरह से पर्यावरण के विपरीत नहीं थे।
दरअसल बाजारिक पूंजी अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए सबसे पहला हमला असंगठित क्षेत्र और छोटी-छोटी आत्मनिर्भर रोजगारदाता इकाईयों पर ही करती है। इसके जरिए उसे एक तरफ तकनीकी खपाने का मौका मिल जाता है,तो दूसरी तरफ बेरोजगार श्रमिकों की एक फौज का लाभ। जैसे 19 वीं सदी की औद्योगिक क्रांति ने भारतीय कुटीर उद्योगों को तबाह कर बेगारों की फौज खड़ी कर दी थी। जहां श्रम करने वाले सहज उपलब्ध हो,वहां पर मशीनें मानवीय श्रम के अनुपयोग को बढ़ाने का काम करती हैं। 25 रुपए के भाड़े पर मिलने वाला रिक्शा,किसी शहर में रोजगार और आवागमन का आसान साधन होता है। लेकिन इस तरह की कवायदों का मकसद 2010 के कॉमनवेल्थ गेम से पहले दिल्ली जैसे शहर को कॉमनमैन मुक्त बना देना है। ताकि दिल्ली आने वाले विदेशियों में भारत के विकसित के होने का पुख्ता एहसास दिलाया जा सके । आम आदमी की जगह कही जाने वाली सड़कों की बात करें तो दिल्ली के कई इलाकों में रिक्शे,बैलगाड़ी जैसे साधनों के चलने पर पाबंदी लगी हुई है। जैसे इंदिरा गांधी एयरपोर्ट से खेल गांव को जोड़ने वाली रिंग रोड़ पर,दिल्ली-नोएडा को जोड़ने वाला फ्लाईवे। यह उदाहरण हमारे नियोजित विकास के नए मॉडल हैं,जिन्हें देखकर इसके भीतर गरीब या कमजोर तबकों की भागीदारी का अन्दाजा लगाया जा सकता है। ताज्जुब नहीं होना चाहिए अगर आने वाले समय में इन जगहों को भी सोलर रिक्शों की तर्ज पर न भर दिया जाए।
सत्ता प्रतिष्ठानों में अपनी पैठ बना चुके पूंजीपतियों का प्रमुख उद्देश्य सत्ता के जरिए बाजार का सृजन है। इसलिए पुराने रिक्शों का हटाया जाना नई तकनीकी के रिक्शों के लिए बाजार बनाने की पृष्ठिभूमि के सिवाय और कुछ भी नहीं है। इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि पुराने रिक्शे सरकारी राजधानी की परिकल्पना पर खरे नहीं उतरते हैं। दिलचस्प है कि एक नए सोलर रिक्शे की कीमत 17000 रूपए है। तो रिक्शे की कीमत,बनावट और चमक के लिहाज से इसका ड्राईवर हर हाल में पुराने रिक्शा चालकों से बेहतर होगा। दरअसल यह उसी परिकल्पना का हिस्सा है,जिसके तहत सौन्दर्यीकरण के नाम पर आपातकाल के दौरान तुर्कमान गेट की झुग्गियों को उजाड़ा गया था। रही बैलगाड़ी और उसे चलाने वाले किसान की बात,तो उसका स्थान राष्ट्रीय पर्वों पर निकलने वाली झांकियों में सुरक्षित कर दिया गया है। जिसे राष्ट्रीय उत्सवों के मौके पर बड़े सभ्य तरीके से देशी जनता और विदेशी मेहमानों के सामने पेश किया जाएगा। ताकि दोनों की निगाह में तेजी से विकसित हो रहे भारत की छवि स्थापित हो सके।
कोई शक नहीं कि विकास को फैशन के तौर पर परिभाषित किया जा रहा है। दिल्ली के आईटीओ और इण्डिया गेट इलाके में फुटपाथ पर लगी सीमेंट की टाइल्स उखाड़कर रंगीन टाइल्स और लाल पत्थरों को लगाया जाना तो सिर्फ बानगी है।। ऐसी बहुत सी परियोजनाएं पूरे देश में तेजी से चल रही हैं। तेजी से विकसित हो रहे भारत में गरीबों की जगह को छीनने में पूंजी का साथ राज्य जैसी कल्याणकारी संस्थाएं खुलकर देने लगी हैं। नए सरकारी पैमाने धनपति हितैषी होकर गरीबों को हर इलाके से हासिए पर सरकाते जा रहे हैं। पानी,जमीन,स्वास्थय और शिक्षा जैसी अनिवार्य चीजों को तो पहले ही छीना जा चुका है। सड़क से आम जनता को बेदखल करने की कवायद भी शुरू हो चुकी है।
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
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3 टिप्पणियां:
बहुत ही सटीक मुद्दा उठाया आपने..हालांकि मुझे तो लगता है कि ये घोटालेबाजों को फ़ायदा पहुंचाने के लिये भी किया जाता रहा है
पुराना माल ही सही लेकिन अच्छा लिखा है.
जमीन से जुड़े आदमी हो और जमीन की ही बात करते हो। पढ़कर अच्छा लगा। बहुत उम्दा लेख। बधाई।
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