सरकार और एक दुकानदार में कोई फर्क होना चाहिए या नहीं....लेकिन पिछले कुछ दिनों से यह फर्क मिटता जा रहा है। इसके कुछ लैंडमार्क उदाहरण देखे जा सकते हैं। शिक्षा को बाजार के हवाले किया जा रहा है,यानी आज की उच्च शिक्षा उनकी बपौती बनती जा रही है,जिनके पास मंहगी फीस चुकाने की कूबत है। डिग्रियों के बेंचने का उद्यम जो अभी तक निजी क्षेत्र के जिम्मे रखा गया था,मौद्रिक लाभ के मनोविज्ञान के तहत जनकल्याणकारी सरकार ने भी अपना लिया है। यही कारण है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग होने के बावजूद पत्रकारिता का स्ववित्तपोषित कोर्स शुरू किया गया है। जिसके विरोध में सड़कों पर उतरे छात्रों ने विश्वविद्यालय प्रशासन की साजिश को किसी तरह से न मानने की चेतावनी दे दी है। इस कोर्स को शुरू करते समय यू.जी.सी के नियमों को ताक पर रख दिया गया है। जाहिर है कि महज मंहगी फीस के जरिए ही हिंदी पट्टी में उन परिवारों के हजारों सपनों को मार देने की साजिश की जा रही है,जो अपने बच्चों को इलाहाबाद भेजकर उच्चशिक्षा दिलाने का सपना संजोते हैं। इलाहाबाद में रहना और पढ़ाई करना देश दूसरे हिस्सों की तुलना में कम खर्चीला है। (ज्यादा जानकारी के लिए-वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव का लेख-नई पीढ़ी पर पढ़ें)।ऐसे में यह सवाल लाजमी है कि एक ही विश्वविद्यालय में दो समानान्तर विभागों को चलाने का मकसद क्या है.... ? इलाहाबाद विश्वविद्यालय का यह कदम उस बड़ी कवायद का हिस्सा है, जिसमें यथास्थितिवाद को मजबूत करने की कोशिश हो रही है। यथास्थितवाद को बरकरार रखने के लिए ऐसी सभी प्रक्रियाओं और जगहों को कुतर्कों और साजिशों के जरिए तहस-नहस कर देने की कोशिश हो रही है,जिससे यथास्थितिवाद को खतरा है। छात्रसंघ को बेहाल करने की साजिश जो बहुत पहले रची गई थी आज लगभग सफल है,क्योंकि प्रशासन अपनी तानाशाही प्रवृत्ति को मजबूत करने के लिए उन सभी अंकुशों से पहले ही निपट लेना चाहती है,जो उसके आड़े आते हैं। अगर विश्वविद्यालय प्रशासन पहले से मौजूद जनसंचार विभाग को मजबूत और सुविधासम्पन्न बनाता तो बिना किसी शक के यहां पर उन तबकों के लोग आते,(अनिल यादव के शब्दों में)जिनके पास सब कुछ है,सिर्फ पैसा नहीं है। ऐसे लोग में पत्रकारीय सरोकारिता का असली ध्वज वाहक बनने की क्षमता है,जो संस्थानिक परिष्कार मिल जाने पर सरकारी या अन्य जगहों पर की जा रही साजिशों के खिलाफ लामबंद होने की पूरी सम्भावना रखते हैं। कुल मिलाकर भविष्य के जनपक्षीय नेतृत्व को जन्म से पहले ही मार देने की कोशिश की जा रही है। ताकि यथास्थितवाद के ढांचे को कोई खतरा न पैदा हो। जहां तक स्ववित्तपोषित कोर्स में ऐसे लोगों की जगह की बात है,तो हम आमदनी के गैर-बराबरी के बंटवारे से यह सहज अंदाजा लगा सकते हैं। इतनी मंहगी फीस जुटाने में वे सभी छात्र असमर्थ होंगे जो ग्रामीण या कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं। इन जगहों पर आरक्षित श्रेणी की सीटें खाली रहने की पूरी सम्भावना है जिसको बाद में अन्य वर्ग के छात्रों से भर दिया जाएगा।
मंहगी फीस चुकाकर जो भी समाज में आयेंगे,उनके भीतर पत्रकार कम एक सेल्समैन के गुण दा होंगे,जो सबसे पहले अपनी चुकता की गई फीस के एवज अच्छा भुगतान पाने की कोशिश करेंगे। जल्दी सफल होने के लिए वह सब कुछ करेंगे,जो उन्हें ज्यादा से ज्यादा पैसा दिला सके। क्योंकि मंहगी फीस चुकाने के बाद मौद्रिक लाभ का मनोविज्ञान जकड़ चुका होगा। इसके बारे में मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है कि जिस चैनल में नौकरी कर रहा हूँ। वहां पर इंटर्नशिप करने कई छात्र-छात्राएं आते हैं। उनकी फीस के बारे में जानकारी लेकर जो भी पता चलता है वह हैरत में डालता है। कुल पिछले एक साल में पच्चीसों नए पत्रकारों से मुलाकात हुई है। उनमें एक-दो को छोडकर बाकी सब आभिभूत होने वाले और बॉलीवुड की तर्ज पर पत्रकारिता करने वाले मिले हैं। मंहगी फीस चुकाकर पत्रकार बनने वाली लड़कियों का तो और भी बुरा हाल है। जाने क्या और कैसे तैयार किया गया है कि उन्हें विपाशा वसु हॉट के अलावा कुछ नजर ही नहीं आती और राजनीतिक मुद्दों पर बात करने को बुजुर्गियत मानती हैं।
जब सच्चाई को साफ-साफ यानीं नग्न सत्य देखने की जगह नंगे होकर सत्य दिखाने वाली पत्रकारिता की हवा तेज है,तो ऐसे में इलाहाबाद विश्वविद्यालय का स्ववित्तपोषित पत्रकारिता कोर्स चलाने का फैसला काफी कुटिलता के साथ लिया गया है। क्योंकि नग्नता के इस दौर में चीजों को जानने-समझने और लोगों को जोड़ने वाले पत्रकार इन्ही जगहों से निकल कर सामने आ रहे हैं। इस पूरे फैसले को इस नजरिये भी देखा जाना चाहिए। इसके अलावा इलाहाबाद विश्वविद्यालय अपनी खास किस्म की बौद्धिक संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है और इसी लोकप्रियता और विश्वास को भुनाने के लिए स्ववित्तपोषित कोर्स का तरीका निकाला गया है। पहले से मौजूद जनसंचार विभाग में सुधार से यथास्थितिवाद को नुकसान पहुंच सकता था,इसलिए उसे और कमजोर करने और भविष्य में घाटे का उद्यम साबित करने की साजिश की गई है,जो पूरी तरह से जनहित के खिलाफ है,निंदनीय है।
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
रविवार, सितंबर 13, 2009
केंद्रीय विश्वविद्यालय या डिग्रियों की दुकान
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
आपको हिन्दी में लिखता देख गर्वित हूँ.
भाषा की सेवा एवं उसके प्रसार के लिये आपके योगदान हेतु आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ.
एक टिप्पणी भेजें