ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

रविवार, अक्तूबर 04, 2009

नौकरशाही और सूचना अधिकार

लोकतंत्र यानि जवाबदेही...पारदर्शिता॥और जनहित। लेकिन आजाद भारत में औपनिवेशिक कानूनों की मौजूदगी और उससे उपजी सरकारी मानसिकता ने लोकतंत्र मूल उत्स को बहाल में अड़चने डाल रखी है। जिसका कारण है कि सूचना अधिकार कानून लागू होने के बावजूद गोपनीयता अधिनियम-1923 जैसे कानून भी बरकरार हैं। जबकि इसी गोपनीयता अधिनियम के विरोध में विरोध में सूचना को अधिकार बनाए जाने की मांग पैदा हुई थी। बढ़ते जनान्दोलन को देखकर सरकारी गोपनीयता को कम करने का फैसला लिया गया। केवल 6 अध्याय,31 अनुच्छेदों और दो अनुसूचियों वाला सूचना अधिकार अधिनियम जनतंत्र को जानकारी के जरिए जनता की बेहतर भागीदारी लाने के लिए लागू किया गया। लेकिन नौकरशाही की सामन्ती मानसिकता ने इसे पंगु बना कर रख दिया है। नौकरशाही ने अपने काम करने के तरीके से सूचना अधिकार कानून को एक जटिलता के फेर में उलझा दिया है। इसका सीधा मकसद कारगुजारियों को छिपाना है। ऐसे में सूचना को आधा-अधूरा देना या तय समय में सूचना न देना या सूचना देते समय जानकारी को शब्दों के जाल में उलझा देने का काम हो रहा है।
सनद रहे कि उत्तर प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त एम.ए.खान ने आरोप लगाया था कि “उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग में कम योग्यता वाले व्यक्तियों की नियुक्तियां की गई हैं। जबकि यह पद एक तरह से न्यायिक पद है।’’ साथ ही नियुक्तियों में पारदर्शिता की कमी का आरोप भी लगाया था। अगर इन बातों को आरोपों से अधिक कुछ न मानें तो भी उत्तर प्रदेश में राज्य सूचना आयोग के काम करने का जो भी तरीका है,उससे आयोग की जिम्मेदारी पर संदेह जरूरी हो जाता है। उत्तर-प्रदेश राज्य सूचना आयोग और जन सूचना अधिकारियों के कारनामों को समझने के लिए कुछेक उदाहरणों को देखना जरूरी हो जाता है।
नवम्बर 2007 में बहराइच के ‘जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी’ के कार्यालय से जून 2006 के बाद रिटायर्ड हुए अध्यापकों की पेंशन से जुड़ी जानकारी मांगी गई थी। सबसे पहले जन सूचना अधिकारी ने तय समय सीमा(30 दिन)में कोई जवाब देना जरूरी नहीं समझा। पहली अपील करने तक कोई सूचना नहीं दी गई और 60 दिन से ज्यादा समय बीत जाने पर आधी-अधूरी सूचना उपलब्ध कराई गई। जिसमें पेंशन न शुरू होने से जुड़े प्रश्न का जवाब दिया गया कि इन अध्यापकों की पेंशन-पत्रावली लेखा कार्यालय को नहीं मिली है। जबकि जानकारी पेंशन न शुरू होने के सभी कारणों के बारे में मांगी गई थी। जन-सूचना अधिकारी ने तो सूचना का बंटाधार किया ही,यूपी राज्य सूचना आयोग भी इसमें पीछे नहीं रहा। आयोग में 12 मार्च 2008 को दूसरी अपील करने के बाद करीब आठ महीने से ज्यादा समय बीतने के बाद सुनवाई की तिथि तय की गई। खास बात यह कि इससे जुड़ा पत्र सुनवाई की तारीख बीतने के बाद मिला। कारण था कि साधारण डाक से भेजा गया था।
एक और उदाहरण उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की ए.सी.बसों से जुड़ा है। सूचना-आवेदन में इसके टेण्डर से लेकर रखरखाव सहित किराया बढ़ाने की नीति और नागरिक घोषणा-पत्र तक की जानकारी मांगी गई। इस सन्दर्भ में आया जवाब काफी दिलचस्प और हैरत में डालने वाला रहा। दो अलग-अलग जगह से बसों की संख्या के बारे में मिली सूचनाओं में 43 बसों का अन्तर पाया गया। मुख्य प्रधान प्रबन्धक ए.के.श्रीवास्तव के कार्यालय से मिले पत्र में बसों की संख्या 218 बताई गयी, तो प्रधान प्रबंधक(संचालन-2) पी.पी.पाण्डेय के कार्यालय से मिले पत्र में बसों की संख्या 261 बतायी गई। जानकारी दी गई कि बसों की खरीद खुली निविदा प्रक्रिया के तहत की गई है। टेण्डर की छायाप्रति पाने के लिए शुल्क जमा करने की बात कही गई,लेकिन कितना शुल्क लगेगा यह नहीं बताया गया। आश्चर्य है कि सूचना देने वाले जन-सूचना अधिकारी को यह भी नहीं पता कि अगर 30 दिन के अन्दर सूचना नहीं दी जाती है,तो उसके बाद सूचना को निशुल्क उपलब्ध कराने का प्रावधान सूचना अधिकार कानून का हिस्सा है। सूचना अधिकार अधिनियम की धारा-7(6) में इसका जिक्र है और इस आधार पर टेण्डर की छायाप्रति के लिए शुल्क मांगना अधिनियम के उल्लंघन के दायरे में आता है। बस खरीदने के लिए आबंटित धन राशि की जानकारी को दबा लिया गया। बसों की आय और व्यय के ब्यौरे के बारे में बताया गया कि संचालन शाखा में सूचना उपलब्ध नहीं है। अधिनियम की धारा 6(3) में साफ-साफ कहा गया है कि अगर मांगी गई सूचना किसी अधिकारी से जुड़ी हुई नहीं है,तो वह अधिकारी आवेदन को पांच दिन के भीतर उपयुक्त विभाग या अधिकारी के पास भेजेगा। ताकि आवेदक को समय से सूचना मिल सके। किराए में परिवर्तन को लेकर कहा गया कि पीक सीजन और लीअन सीजन के आधार पर किराये में बदलाव किया जाता है। जबकि इस पूरे मामले की फाइल नोटिंग्स की जानकारी को छिपा लिया गया। बसों को ‘संचालन के लिए ठीक’ जैसा प्रमाणपत्र और साफ-सफाई,रखरखाव के खर्चे सम्बन्धित जानकारी के लिए मुख्यालय में सूचना न होने का बहाना बनाया गया। 1 अप्रैल 2008 को जब मैंने बस(नम्बर-0992) में सफर किया था,तो उस दिन केवल 13 यात्री ही थे। कुछ दिन पहले ही किराये को 95 रुपए से बढ़ाकर 117 रुपए किया गया था। इस आधार पर किराया बढ़ोत्तरी के बाद आय-व्यय के बारे में मांगी गई जानकारी को अप्रासंगिक बताते हुए नहीं दिया गया। हॉ,इस बात की जानकारी भी दी गई कि निर्धारण विपणन नीति के तहत आता है। कुल मिलाकर अगर जवाब देने के तरीके पर गौर करें तो यह बात समझ में आने लगती है कि जन-सूचना अधिकारी आय-व्यय के लेखे-जोखे से जुड़ी जानकारियों को देने से परहेज क्यों करते हैं ? ए.सी बसों के लिए अलग से नागरिक चार्टर और सुविधाओं से जुड़ी जानकारी के बारे में कहा गया कि परिवहन विभाग ने अलग से ऐसी कोई जरूरत नहीं समझी है। उत्तर प्रदेश में चल रही तमाम ए.सी बसों की हालत देखकर नागरिक चार्टर न बनाने के पीछे की मंशा सामने आ जाती है। ए.सी बसों को चलाने के फैसले कितना सही है या गलत इसका हाल पता कर लेते हैं। लखनऊ से बहराइच की दूरी 120 किमी है और इस मुख्य सम्पर्क मार्ग की हालत ऐसी है कि अगर किसी बीमार को जल्दबाजी में सफर करा दिया जाए,तो उसके मरने का रास्ता साफ हो जाएगा। इन बदहाल सड़कों पर ए.सी. बसें चलायी गईं,जो कुछ दिनों में खटारा हो गईं। इस रूट की सभी बसों में अगर कुछ ठीक से काम करता हुआ मिल सकता है,तो वह अप्रैल महीने में माघ का अहसास कराने वाला कूलिंग सिस्टम। जैसे उसमें आदमी नहीं आलू के बोरों को लादा जाना हो। चारों तरफ से शीशे से बंद बसों में गुटखे की थूक और लोगों की पल्टियों से निकली दम घोटू दुर्गंध तो आम बात है। इन ए.सी बसों में ज्यादातर सीटें खाली ही रहती है। बसों में टी.वी.रखने वाले खांचें को ड्राइवर और कंडक्टर ने सामान रखने का बक्सा बना लिया है। प्राथमिक उपचार के लिए फर्स्ट एड बॉक्स लिखा तक नहीं मिलता है,शिकायत पुस्तिका तो दूर की बात है। यह सब विकास के नए चेहरे के तौर पर प्रचारित की जाने वाली उस लक्जरी बस की सुविधाएं हैं,जिसका किराया अद्यतन जानकारी के अनुसार 125 रुपये है, जो साधारण बसों के किराए से 53 रुपए अधिक है। तथ्य है कि भारत की बहुत बड़ी आबादी प्रतिदिन 20 रुपए की कमाई पर अपना जीवन गुजार रही है।
प्रधान प्रबन्धक(जन सूचना) अजय सिंह ने सूचना अधिकार अधिनियम की धारा-2(च) को आधार बनाते हुए निगम को घाटे से बचाने के उपायों,जन सुविधाओं की देखभाल करने वाले अधिकारी की नियुक्ति और किसी उच्च पदस्थ प्रशासनिक अधिकारी के कार्यालय के एक साल के खर्चे का ब्यौरे को सूचना की श्रेणी में मानने से इन्कार कर दिया। वहीं पी.पी.पाण्डेय (प्रधान प्रबन्धक,संचा-2) ने बौद्दिकता की छौंक लगाते हुए लिख भेजा कि “एयर लाइन्स तो दिन-रात के किराए में ही अन्तर कर देती हैं”। दरअसल यह बताना नौकरशाहों की उस मानसिकता का परिचय है,जिसमें वह मानता है कि सिर्फ वही जानकार और योग्य हैं,शेष सभी दोयम दर्जे के अयोग्य नागरिक हैं। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग की हालत जानते हुए इस मामले में दूसरी अपील नहीं की गई। एक अन्य मामले में पुलिस मुख्यालय से सूचना मांगी गई थी,जिसमें आयोग ने बाकायदा सुनवाई करके पुलिस मुख्यालय को मांगी गई सूचना उपलब्ध कराने का आदेश जारी किया था,बावजूद इसके मुख्यालय ने कोई सूचना नहीं भेजी है।
पूरी प्रक्रिया से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह से 30 दिन में सूचना देने की प्रक्रिया को महीनों की कसरत बना दिया गया है। अधिकारों को सशक्त बनाने के लिए लाया गया सूचना का अधिकार खुद नाइंसाफी का शिकार हो रहा है। सूचना मांगने वालों को नौकरशाही हर तरह से उलझाने और परेशान करने की कोशिश करती है। कहीं कहीं तो सीधे तौर पर हमले भी हुए हैं। खासकर पुलिसिया अत्याचार के बारे में सूचना मांगने पर कई लोगों को झूठे मामलों में फंसाने की घटनाएं सामने आयीं है। बात सूचना अधिकार की नियाममक संस्था यानी राज्य सूचना आयोग की सक्षमता और निष्पादन क्षमता को लेकर ज्यादा चिंता जनक है। न्यायालयों की तरह ही यहां पर आयुक्तों की कमी है,जिससे दूसरी अपील के लम्बित मामले तेजी से बढ़े हैं। राजनीति मंशा भी बेपरवाही की है। जिससे सूचना अधिकार कानून को सही से लागू करने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। जनता को सूचित होने से रोकने के लिए इस कानून को सही से लागू नहीं किया जा रहा है,क्योंकि जनता के पास जानकारी होगी और वह जागरुक होगी तो नेताओं से प्रश्न करेगी और बेहतर व्यवस्था की मांग करेगी। इस दशा में बरगलाने वाली राजनीति की जगह नहीं बचेगी। ऐसे में उन नेताओं को नुकसान होगा जो बरगलाहट के सहारे राजनीति कर रहे हैं।

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