बुश को एक पत्रकार ने दो जूते मारे...लेकिन लगा एक भी नहीं...बुश एक देश का राष्ट्राध्यक्ष है,लेकिन जूता मारने वाले पत्रकार ने उसे एक नीति के बतौर देखा और समझा....तभी उसने अपना सबकुछ दांव पर लगाकर आत्मघाती लेकिन सार्थक कदम उठाने की हिम्मत की.....उसके लिए यह तय करना काफी आसान न रहा होगा कि वह कलम की ताकत पर विश्वास करे या जूते पर। लेकिन उसके लिए इराक की तबाही का आक्रोश व्यक्त करने का इससे बेहतर माध्यम समझ में नहीं आया...सद्दाम को अपदस्थ करने से लेकर आज तक इराक में लाखों-लाख लोग मारे जा चुके हैं....खाने से लेकर पीने के पानी तक के लिए लोग तरस रहे हैं....ऐसे में बुश ने इराक की प्रगति को बताने के लिए प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की थी। पिछले आठ सालों से बोला जा रहा यह झूठ किसी भी पत्रकार को नहीं पचना चाहिए था लेकिन वहां पत्रकारों में एक ही था जो शायद जिंदा था और उसने अपने प्रतिरोधी होने का परिचय दे दिया।
जूता मारने के बाद दो तरह की बहस चल पड़ी । एक बहस में पत्रकारी मूल्यों की दुहाई देकर मुंतजर अल जैदी को कोसा जाने लगा,तो दूसरी बहस में उसे असामान्य माहौल की सामान्य प्रतिक्रिया कहा जाने लगा। बहस चली कि किन परिस्थितियों में एक पत्रकार, पत्रकार के बतौर समाज की नुमांइदगी करता रहे। समाज हिस्सा होने के नाते एक पत्रकार से निषपक्षता की उम्मीद करना कहां तक उचित है। कहीं निष्पक्षता का मतलब अन्याय को सह लेने से नहीं लगा लिया गया है। क्या कोई पत्रकार सत्ता से प्रतिरोध की नीति को नहीं अपना सकता है या सीधे तौर प्रतिक्रिया नहीं दे सकता है। यही से बात आगे बढ़ती है कि पत्रकार और उसके पत्रकारिता निष्षक्षता तटस्थता की तरफ तो नहीं जा रही है।।
क्या यह जूता बुश पर था या उन दमनात्मक नीतियों पर,जो अमेरिका खुद या अपने पिट्ठुओं के जरिए दुनिया भर में चला रहा है। अब बात उठती है कि जब वह पत्रकार था तो अपनी लेखनी के जरिए प्रतिरोध का धैर्य क्यों नहीं बरकार रख पाया। लेकिन इसके लिए यह देखना जरूरी है कि वह किन परिस्थितियों में पत्रकारिता कर रहा था। उससे सही समय पर जनता के आक्रोश को अपने माध्यम के जरिए व्यक्त किया। यह अलग बात है कि यहां माध्यम कलम को नहीं बल्कि जूते को बनाना पड़ा। प्रोफेसर आनन्द प्रधान मानते हैं कि "एक असामान्य माहौल की सामान्य प्रतिक्रिया है। ऐसे माहौल में जो लोग सामान्य हैं दरअसल वही असामान्य हैं।" जबकि वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता अनिल चामडिया का मानना है कि" बात तरीके की नहीं बल्कि जज्बे की है। उसका जज्बा पीडितों के साथ होने के नाते सही ठहरा देता है।" बात यह कि एक पत्रकार कब तक साजिशों को समझने के बाद भी सांगठनिक पत्रकारिता की मर्यादा को पालता रहे। जबकि पत्रकारी पेशा पेशा वॉयस ऑफ वॉयसलेस के दर्शन से प्रेरित है। इसमें कोई शक नहीं कि मुंतजर अल जैदी पत्रकारिता के उस धड़े का हीरो बन गये हैं जो सत्ता के अपराध से प्रतिरोध करने में विश्वास रखता है। फिला़डेल्फिया में पत्रकारिता कर रहे डेव लिंडरिफ कहते है कि मुंतजर अल जैदी को कोलंबिया यूनिवर्सिटी ग्रेजुएट स्कूल ऑफ जर्नलिज्म में कम से कम एक साल के लिए नियुक्त किया जाए ताकि सत्ता से प्रतिरोध करने वाली पत्रकारिता की पीढ़ी तैयार की जा सके। Dev Lindoriff ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी ग्रेडुएट स्कूल ऑफ जर्नलिज्म से 1975 में पत्रकारिता की डिग्री ली थी और अभी खोजी पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं।
मुंतजर ने इराकी पत्रकारिता को आने वाली पीढ़ी के ऐसे प्रश्नों का सामना करने की जमीन दे दी,जिसका जवाब अक्सर भारत की आपातकालीन पत्रकारिता से किया जाता है। वरना भारत की आपातकालीन पत्रकारिता को जिस तरह से आलोचना का सामना पड़ता ठीक वैसे ही आलोचनाओं से इराकी पत्रकारिता को गुजरना पढ़ता। आपातकालीन पत्रकारिता के बारे में यह कहा जाता है कि सत्ता ने इसे घुटने टेकने के लिए कहा गया था,लेकिन वह रेंगने लगी थी।
इन सब के बावजूद यह नहीं समझा जाना चाहिए कि भारत में पत्रकारिता के लिए सामान्य माहौल है। यहां सत्ता का प्रतिरोध करने वाले पत्रकारों को मंच मिल पा रहा है। नवोदित पत्रकारों को अपने तीखेपन को लेकर उपहास का सामना करना पड़ता है। वरिष्ठ सहयोगियों का सुझाव होता है कि नए हो,सुधर जाओगे। इसका सार्वजनिक उदाहरण है कि किसी भी प्रेस कांफ्रेस में यदि लीक से हटकर या दिए गए बाउचर से ज्यादा कुछ पूछ लिया तो साथ के पत्रकार बंधु चीखने लगते हैं और लगता है कि जैसे उनके आका की नब्ज दुख गई हो। तो यह कैसे मान लिया जा की इराक में मुंतजर अल जैदी को अपनी बात रखने का मौका मिल रहा था,अगर नहीं मिल रहा था तो इराकियों की बात सत्ता तक कैसे पहुंचाता है.....
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
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2 टिप्पणियां:
esa hi hausala har patrkar ko dikhana hoga. kalam ko banduk ki tarah chalana hoga.
nishchay hi wah patrakar kabile tareef hai... spasht hai ki America ne poore vishwa ko qatl o garat ka maidan bana rakha hai. Jo uske mutabik nahiin chalta woh use khatm kar deta hai
Mujhe yaad hai jab Iraq aur America ki jung chal rahi thi tab moorkh RSS wale khush ho rahe the ki ek islamic desh ki barbad ho rahi thi... par unko kaun samjhaye ki USA ek goonda hai.. aj iraq ko maar raha hai kal apko marega.... uska toh hamesha virodh karte rehna hoga.. aur muntzar jaise logon ko hamesha hi apna samarthan dena hoga
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