ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

मंगलवार, जुलाई 08, 2008

विजुअल्स को लेकर हमारी संवेदना.........

जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन को लेकर हुए प्रदर्शन के दौरान भीड़ ने एक पुलिस वाले को बड़ी ही बेरहमी से पीटा था। अब इसे जिस तरह से टी.वी.चैनलों ने बिना ब्लर किए चलाया,उससे मुझे परेशानी हुई। कारण कि मेरा मानना है कि इस तरह के विजुअल्स न तो स्थाई प्रभाव रखते हैं और समाज को कोई मैसेज देते हैं। साथ ही ऑडियंस के मन को कुण्ठित कर देते हैं। बात यही तक सीमित नहीं है....एक बात गौर कीजिए कि जब आप से कोई स्वर्ग शब्द बोलता है तो आपके मन के साथ दिमाग कौन से विजुअल्स बनाता है। दरअसल आपके सोचे गए विजुअल्स किसी न किसी टी वी सीरियल या फिल्म में दिखाये गए स्वर्ग जैसे ही होते हैं। जैसे यही बात अगर किसी ग्रामीण प्रष्ठभूमि के व्यक्ति से या ऐसे बच्चे से पूछी जाए जिसने सीरियल और फिल्में न देखा हो तो स्वर्ग को लेकर उसकी समझ और विजुअल्स अलग-अलग होंगे। अब सोचिए कि जिस स्वर्ग को किसी ने देखा नहीं,वह दिमाग की एक जड़ सच्चाई बन गई है। इसके अलावा एक उदाहरण यह कि ठाकुरों की फिल्मी छवि कैसी दिखाई गई है.... व्यक्तिगत अनुभव है कि मेरा एक रूम पार्टनर ठाकुर या राजपूत का मतलब सिर्फ बन्दूक लिए और घोड़े पर सवारी करने वाला समझता था। वरिष्ठ पत्रकार राजेश वर्मा का मानना है कि "हम आज विजुअल्स पर इतने निर्भर हो गए हैं कि अब शब्दों के साथ अर्थ का संकट आने लगा है।" इसका मतलब यह नहीं कि लोग आम बोलने पर इमली समझने लगे हैं। बल्कि दिक्कत यह हुई है कि पहले लोग अपने-अपने के अनुभवों के आधार पर शब्दों का विजुअलाईजेशन करते थे। अब लोगों के विजुअलाईजेशन की प्रक्रिया में एकरूपता आती जा रही है। यह सोचने और समझने की एकरूपता सामाजिक और वैचारिक विविधीकरण के लिए घातक बनती जा रही है। यही कारण है कि भीड़ एक निहत्थे पुलिस वाले को बेरहमी से पीट रही थी और उसे बचाने वाला कोई नहीं था। क्योंकि भीड़ की सोच में विविधता नहीं थी। सोचिए कि हमारे अपने मन की उड़ान को किस कदर जकड़ दिया गया है...पहले हमारे स्वर्ग के रूप में धरती की कोई जगह हो सकती थी..... लेकिन अब हम उसे वही हवा में तैरने वाला और चारों तरफ धुंध से घिरा हुआ पाते हैं जैसा कि फिल्मों में देखा था.....

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

sathi bhid ka ek apna hi samajsashtr hota hai. is vawastha ke khilaf janta ke man ka gussa samay samay par ese hi nikalta hai. kabhi kbhi yah un tamam santi mulyon ko bhi samete rahata hai jo varshon se chli aa rahi hai.

mera aasman ने कहा…

hello vijay! kaise hain.... apki tippadi se alag main kuch aisa sochti hu ki us police wale ki jagah har middle class man khud ko dekhta hai jiska man sirf kuntha se bhara hai ....jiske paas sirf apmaan hai dukh hai.... bhid main ek haat saaf wo bhi karna chahta hai jo wo normally nahi karsakta... baharhaal rishi ji ye sach hai ki visuals ne hamari soch bhadane ki jagah choti hi ki hai... agar media us news ke saath nyaye karna chahta hi tha to use blurr karna chahiye tha ... aise main kahi na kahi pagal bhid ko hi majboot dikhaya gaya hai

Unknown ने कहा…

Aaam log jab vawastha se narraj hote hai to sarkar ke pratiko ko nukshan pahuchate hai. inme public property jaise road light,rail,sarkari bus aur bhut sari aur chege jo private aur public hai. bhid ne police ko bhi sarkar ka numinda paya aur usko dho diya. janha tak baat bisuwal ki hai ye kalpana ke yetharthko batae hai. kai baar bisuals kalpana se pare hote hai aur kabhi kalpna se kam.