ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

बुधवार, जून 11, 2008

सभी भाग रहे थे.....सभी जस्टिफाई कर रहे थे ....अपनी -अपनी सेलेरी .....

नॉएडा मे अरुशी मर्डर के सिलसिले मे सभी भाग रहे थे ....कुछ कैमरे लेकर भाग रहे थे और कुछ माईकसभी जानते थे की सीबीआई कुछ भी बोलने वाली नही खासकर रात के एक बजे...एक एक कर जा रही टीमों के रवैयिये से पता लग गया था .... सबसे आखिरी मे निकले आरुशी के चाचा ....सभी ने उनका तबतक पीछा किया जब वे बोल नही दिए....मैं सोचने लगा कि जब वे नही बोलना चाहते थे तो मिडिया के लोगों ने उनका पीछा क्यों किया .....काफी उधेड़ बुन के बाद तय कर पाया कि वे सभी अपनी अपनी सेलेरी जस्टिफाई कर रहे थे ....कोई दस हजार .......को .....तो कोई ....बीस तो कोई २५ से ....आगे जहाँ तक उनका संगठन उन्हें भुगतान कर रहा था...अब प्रश्न उठता है कि यदि वे लोग किसी भी तरह से उसके चाचा को नही बोलवा पाते तो चैनल पर ब्रेक करने के लिए .........तीन घंटे खडे रहने के बाद क्या मिला....अगर कुछ न मिलता तो उनका चैनल कल इस बात को कैसे आगे बढाता......अब बात उठती है कि आखिर एक रिपोर्टर कहाँ तक दोषी हैं ....मान लीजिये कि वे ऐसा नही करते तो अपने बोस को क्या जबाब देते कि वे वहाँ क्या कर रहे थे ...उहने मिलने वाली मोटी रकम तो विज्ञापनों से आती है ...और विज्ञापनों को पाने का जरिया टी आर पी है... टी आर पी तो ऐसे ही कयासों से आती है......अगर कोई इसमे पीछे रह गया तो उसकी कमाई ही घट जायेगी ....यानि सब कमाई का चक्कर है.....यहीं से न्यूज़ का फलसफा भी बदल जाता है....जो क्मवाए वही न्यूज़ है ....अब बात है कि इस भीड़ से अलग करने का साहस कौन जुटाए ...पत्र कार होने का जोखिम कौन ले ...जब कि बिजनेसमैन बनकर यानि न्यूज़ बेचकर अच्छी कमाई कि जा सकती हो.....अब बात उठती है कि अधिकांश या यूं काहे कि सारा मिडिया संस्थान कोई न कोई व्यवसायी चला रहा है ....अन्य उद्योग कि तरह यह भी एक एक लाभ का उपक्रम है .....यहाँ से भी उन्हेंउतना ही या उससे भी ज्यादा लाभ कमाने हैं .....इस पुरी तैयारी मे लाभ को कम करने वाली कोई भी बात नागवार गुजर सकती है ......यही कारन है कि जो जहाँ है जिस पोस्ट पर है .....अपनी अपनी सेलेरी ही नहीं बल्कि ख़ुद को भी जस्टिफाई कर रहा है....शायद मैं भी ख़ुद को ही जस्टिफाई ठहराने कि नुराकुस्ती मे व्यस्त हूँ.......

4 टिप्‍पणियां:

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

भाई साहब, यही तो विडंबना है। सेलरी जस्टीफाई करने के चक्कर में पढे-लिखे लोग ज्यादा गलतियाँ कर रहे हैं। सन् १८५० से १९५० के बीच पत्रकारिता से जुड़े महान देशप्रेमियों ने अगर अपना बिजनेस बढ़ाने का ही सोचा होता तो शायद हम-आप आज इतना छुट्टा होकर मनमानी लिखने और दिखाने का बिजनेस नहीं कर रहे होते। इस बेशर्मी पर लगाम लगाने के लिए स्वर्ग से कोई देवदूत या पैग़म्बर नहीं आने वाले हैं। तथाकथित ‘चौथे स्तम्भ’ को ही अपने बारे में कुछ सोचना-करना होगा।

अनूप शुक्ल ने कहा…

जस्टीफ़ाई हो गयी सेलरी।

Rajesh Roshan ने कहा…

patrkarita ka ek aur maara....

Udan Tashtari ने कहा…

ख़ुद को ही जस्टिफाई ठहराने की नुराकुस्ती में ही तो सब लगे हैं शायद इसी का नाम जिन्दगी है.