ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

रविवार, मई 11, 2008

१९ अप्रैल के बाद

आज बहुत दिनों बाद लिख रहा हूँ । जाने क्यों ऐसा लगता है कि कहीं खो न जाऊ। अब मैं एक भीड़ मे आ गया जहाँ मुझे ख़ुद से संघर्ष ज्यादा करना पड़ रहा है। आपने वे ही अब प्रश्न बन के सामने आ खड़े हो रहे हैं । देखता हूँ कि जिन्दगी विचारों के धरातल पर कुछ कर पाती है या नही। अब सोचने के मुद्दे नही खोजने पड़ते बल्कि टाइम कम पड़ जाता है। अब दोस्तों के नाम वो चहल पहल नही होती.शायद नौकर होने का सबसे नकारात्मक असर यही समझ मे आ रहा है। अब अकेला हूँ ऐसा नही लगता शायद आदत बनने लगी हो। नये लोगों से अब ज्यादा या पहले की तरह आगे आकर दोस्ती करने की आदत भी नही रही। संवेदनाओं मे अब भोथरापन आने लगा है। चमडी मोटी होने लगी है.लेकिन मेरी कोशिश तो यही है किmई इसे पतली और पतली बनता जाऊ.क्योंकि संवेदनाओं के मरने का खामियाजा मैं नही भुगतना चाहता। मैं उस भीड़ का हिस्सा नही बनना चाहता जिसमे लोग सिर्फ़ आपने और अपनों के लिए जीते हैं। कुछ बिगड़ना चाहता हूँ इस जमाने के हक़ मे। सच..............कहता हूँ..................

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