ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

सोमवार, मार्च 17, 2008

समझौता किन शर्तों पर

जहाँ तक मैं जानता हूँ समझौता दो बराबर वालों मे होता है । यानि दोनों अपनी अपनी मांगों से आगे पीछे हट कर एक मान्य जगह पर मिलते हैं। किसी की खुशी के लिए आपने वजूद को मिटा देना त्याग हो सकता है लेकिन आज के समाज की निगाह मे इसे सकारात्मक बदलाव नही माना जा सकता है। आज का सारा संघर्ष आपने वजूद को बचाने और बनाये रखने मे है। अगर इसे समझौता मानभी ले तो ये देखना होगा कि यह सब किन के बीच और किन परिस्थितियों मे लिया गया है. इसमे कितना सच है कि एक समझौता लादने वाला आगे कोई शर्त नही लादेगा. दबाव और शर्तों की बिसात पर चल रहे रिश्ते ज्यादा दिनों तक नही टिकते.इसे हम किसी भी आन्दोलन के संबध मे देख सकते हैं. पत्रकार होने के नाते ही नही बल्कि आम नागरिक होने के नाते भी इसे समझे . अधिकारों की सक्रियता के दौर मे यह जरुरी हो जाता है कि हम आपने अधिकारों को उन छोटे छोटे हादसों से बचाये जो हमारी जिन्दगी मे रिश्तों के जरिये आते हैं. अगर मेरे पिता के आदेश मेरे हितों के विपरीत हैं तो हमे उनका विरोध क्यों नहीं करना चाहिए. यदि हमारे टीचर हमे सही से नही पढाते तो हम उनके इस काम का विरोध क्यों नहीं कर सकते.यह कहा तक सही है कि रिश्ते ही हमारा परिचय तय करें. ये वे प्रश्न हैं जो मुझे परेशान करते हैं और अक्सर सामने आकर आ कर खडे हो जाते हैं. मैं ये सभी प्रश्न आप लोगों के सामने रखना चाहता हूँ ताकि एक आम राय की तरफ बढ़ सके .और अधिकारों की लडाई को एक दिशा दे सके .

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