हमारे विकास पर बहुत विलाप किया जायेगा। आने वाली पीढ़ियां कई सवाल एक साथ पूछा करेंगी। लेकिन ये कम मुमकिन है कि जिस सफर पर समाज को ले जाया जा रहा है,उसमें ऐसे प्रश्न पूछने वालों की तादाद हो। फिर भी आशा को जीवन की किरण मानते हुए विश्वास करना होगा कि लोग प्रश्न पूछेंगे और शायद उनके प्रश्न पूछने का तरीका ज्यादा नवाचार लिये हुए होगा। वे शायद ये न पूछें कि जो रहस्यमयी बुखार फैल रहा था,उसके क्या कारण थे, दवाइयां खोजी गई थी या नही। वे शायद ये पूछने में दिलचस्पी रखेंगे कि तब के समय में राजनीति हो रही थी या नहीं। क्योंकि राजनीति का मतलब ही ऐसी चिंताओं से रूबरू होना है। अगर कही भी इसकी सम्भावना मिलती है कि सरकारों की प्राथमिकताएं बदल गई थीं, तो यह तय है कि राजनीति नहीं हो रही थी। क्योंकि जो कुछ भी किया जा रहा था,उसकी तुलना दस्यु गिरोहों द्वारा अपने आस-पास की आबादी को दी जाने वाली सहूलियतों से की जा सकती है। जिसका उद्देश्य पहचान छुपाने और खतरे के समय आसपास के लोगों से शरण पाने का उपाय भर था।
तमाम तकनीकी उन्नयन हो गये थे,चांद पर पानी की खोज हो गई थी,लेकिन धरती पर पानी दिनों दिन गंदा होता गया और लोग उसी से मरने को मजबूर थे। बच्चे रहस्यमयी बीमारियों के चपेट में थे,देश दिनोंदिन तरक्की करते हुए नई-नई और लम्बी दूरी की मिसाइलों को बनाने में सफल हो रहा था। मिसाइलें ऐसी जिसकी मारक क्षमता में दूसरे कई देशों की आबादी थी। गुणगान हो रहा था,देश में विकास हो रहा है,लेकिन भूख से होने वाली मौतें भी दर्ज की जा रही थी। जब रोटी के लाले पडे थे,तब सरकारी गोदामों में टनों अनाज सड़ रहा था। नैतिकता की दुहाई देने वाला वो राज-समाज कैसा था ? अरे भाई ये काम तो राजशाही के जमानों में हुआ करता था,कि राजमहल जममगा रहे होते थे, और जनता अकाल के सन्नाटे में जीने को मजबूर थी। वैसे इतिहास में ऐसे कई तथ्य मिल जाते हैं जब राजाओं ने उदारता दिखाते हुए जनता के लिए गोदाम खोल दिये। तब फिर राजशाही से लोकतंत्र के बीच के सफर की कामयाबी क्या थी ? क्या इसी को कामयाबी माना जाये कि मंत्रियों ने यह स्वीकार करने का हौसला पैदा कर चुके थे कि मेरे विभाग में कमिया हैं,जिसे दुरूस्त करना जरूरी है। बात करते-करते नया चुनाव यानि पांच साला जश्न नजदीक हो आता था,फिर कमियों को दुरूस्त करने का मौका मांगते हुए और छूटे हुए विकास को पूरा करने के लिए आशीर्वाद की गुहार लगाकर सत्ता पाने को कोशिश होती थी,जनता भी कुंआ और खाई के पाले में बंटकर अपने सुकूंन को तबाह करने वालों को ही लोकतंत्र का सिपाहसलार बनाने को मजबूर थी।
भविष्य के आक्षेपों का अंदाजा लगाये तो बात कुछ ऐसी ही बनती नजर आती है। जरूरत आज की तमाम घटनाओं को जोड़कर देखने की है,ताकि भविष्य की डगर को महसूस करते हुए,अपने कदमों को ठहराव देते हुए, सोचने के खातिर कुछ वक्त निकाला जा सके। नहीं तो मुसीबत यही होगी कि प्रश्न बहुत होंगे और जबाब में सन्नाटा होगा। क्योंकि आज की पीढी एक उम्र में बूढ़ी होकर इतिहास का हिस्सा हो जायेगी और जो पीढ़ी इस इतिहास को पढ़ रही होगी उसके सवालों का जवाब उन पन्नों से गायब होंगे।
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
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1 टिप्पणी:
bahut bada likha he magar acha he
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
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