ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

अहिस्ता बोलने वाले का अहिस्ता से चले जाना

शाम के करीब साढ़े पांच बजे यूएनआई की ऑफिस पहुंचना हुआ। यूनियन रूप में राजेश जी अपने किसी सहकर्मी के निधन पर बात कर रहे थे। शुरूआती बातचीत में उस व्यक्ति से अपरिचिय सा लगा,लेकिन नाम की जानकारी होते ही परिचय का सारा पिटारा खुल गया। अचानक भारतीय जनसंचार संस्थान और उस व्यक्ति से जुड़ी बातों की धुंधली तस्वीर उभरने लगी। क्योंकि धीमी आवाज में बोलने वाले राम कृष्ण पाण्डेय जी से पहला परिचय यहीं हुआ था। ये अलग बात है कि हम अति उत्सुकों को उनके पढ़ाने का अंदाज बहुत रास नहीं आया था। हालांकि बातें चाहे वह खबरों के चयन को लेकर हुईं हों या फिर मुश्किल समय की पत्रकारिता के तरीकों पर,हमारे लिए बेहद जरूरी थीं। कमी हमारी थी,क्योंकि हम जितने उत्साह में थे,उसमें किसी सुलझे हुए व्यक्ति को समझने का धैर्य नहीं था और यह बात किसी एक ही अध्यापक पर नहीं लागू हो रही थी। रामकृष्ण जी से आईआईएससी के बाद जब भी मिलना हुआ एक स्नेहिल स्पर्श लिए खैरियत पूछने वाले अभिभावक का अनुभव रहा। अभिभावक इसलिए क्योंकि इस महानगर में एतमिनान से कोई वरिष्ट दो मिनट बिना किसी हड़बड़ी के हाल पूछ ले,कम ही होता है।
अपने पीछे पत्नी और चार बच्चों जिसमें दो बेटियां और दो बेटों,का परिवार छोड़ गये रामकृष्ण पाण्डेय जी शुरूआती दौर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। जिसका असर रहा कि नौकरी बुहत ही देर से शुरू की। यूएनआई से रिटाटर होने के बाद बहुत ही कम पेंशन मिल रही थी। तब जो भी जानकारी मिली,वह दुःखद थी। उनका निधन हॉर्ट अटैक से हुआ । हार्ट अटैक की जानकारी होने में काफी देर लगी,शायद इतनी देर की कोई उपाय कारगर नहीं हो सके। उन्हें शुगर था,इसलिए हार्ट अटैक में होने वाला दर्द नहीं हुआ। जिसे साइलेंट हॉर्ट अटक कहा जाता है। उनके सहकर्मी बताते हैं कि उन्हें हॉर्ट से जुड़ी कुछ बीमारी थी,जिसको लेकर कई साल पहले डॉक्टर को भी दिखाया था। इस बीमारी के कई लक्षण उनमें थे,जैसे वे तेज चलने हांफने लगते थे,लेकिन किन्हीं कारणों से वे इसे छिपाते रहे। अंतर्मुखी होने का असर तो था ही और कुछ अन्य समस्याएं भी थीं।
उनसे ज्यादा बातचीत तो नहीं होती थी,हालाकि पत्रकारिता को जिंदा रखने के तरीकों पर राय हमें मिलती रहती थी। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने पत्रकारीय जीवन में ऐसे कई अनुभव संजोये थे। राजेश जी उनके बारे में बताते हैं कि सोच से निहायत ही सीधे किस्म के आदमी थे। कई मायनों में वे अपनी बातें दोस्तों से नहीं बांट पाते थे। शायद वे अपनी हर तकलीफ खुद में ही समेट लेना चाहते थे। यही कारण है कि उनकी बीमारी की जानकारी सभी को इतनी देर से लगी कि किसी के पास कुछ कर पाने का वक्त नहीं था। राजेश जी अपनी बात करते हुए यादों में चले जाते हैं। कहते हैं कि सरल स्वभाव के होने के बावजूद पत्रकारिता के तरीकों में रहते हुए वे अपनी बात कह लेने में माहिर थे। जब वे जनशक्ति अखबार का मुख्य पृष्ठ देख रहे थे,तो एक खबर को न छापने को लेकर दबाव आने लगा। संपादक तक ने उनसे खबर रोकने के लिए कहा और वे सभी से एक ही बात पूछते कि कौन सी खबर रोकनी है,जिसका जवाब किसी के पास नहीं था। और उनका तर्क था कि जब पता ही नहीं कि कौन सी खबर रोकनी है,तो मैं खबर कैसे रोक दूं और क्या यह जरूरी कि जो खबर मैं छापने जा रहा हूँ,उसी खबर को रोकने के लिए कहा जा रहा है। जबकि किस खबर को निशाने पर लिया जा रहा था,यह उन्हें बखूबी पता था। वे जानते थे कि ऐसे मामले में गोल-मटोल बातों से इशारा ही किया जाता है। इसी बात को बतौर तर्क इस्तेमाल करते वे खबर को मुख्य पृष्ठ पर छापना चाहते थे और खबर छपी भी। खबर थी कि एक युवक भाग रहा है और पुलिस पकड़ने के लिए खदेड़ रही है। वह युवक नशबंदी के लिए लाया गया था और इसकी फोटो भी आ चुकी थी।
एक और वाकया याद आ रहा है। हमारे सहपाठियों ने रामकृष्ण जी का अध्यापक होने के नाते पैर छूना चाहा। तो उन्होंने साफ शब्दों में मना कर दिया। कहा कि सम्मान के लिए पैर छूने की जरूरत नहीं है,बातचीत ही काफी है। जिससे साफ होता है कि वे सभी गैर-तार्किक बातों और रूढ़ियों का निजी स्तर पर भी विरोध करने में सक्षम थे। उनकी सार्वजनिक प्रतिबद्धता और निजी जीवन की असलियत में भेद नहीं था। आज रामकृष्ण पाण्डेय जी हमारे बीच सशरीर भले न हों,लेकिन उनके विचार हमें हमारी जिम्मेदारी का अहसास दिलाते रहेंगे।

1 टिप्पणी:

Anshu Mali Rastogi ने कहा…

निश्चित ही वे हमारी यादों और विचारों में संग-साथ रहेंगे।