हर गुजरने वाला वक्त आने वाले वक्त की कहानी लिख रहा होता है। जब इनका दस्तावेजीकरण कर दिया जाता है तो इन्हीं कहानियों को इतिहास कहलाने का मौका मिलता है। और ये इतिहास आईने के बतौर असलियत दिखाने के लिए प्रतिबद्ध रहता है। कतई जरूरी नहीं कि इतिहास का अध्ययन केवल कामयाबियों पर चर्चा के लिए ही हो। आने वाले वक्त को पूरा हक बनता है कि वह गुजरे हुए दौर की नाकामयाबियों पर विस्तार से बात करे। भविष्य की इसी शर्त पर मौजूदा दौर को निहारने पर एक बेचैनी सी महसूस होती है। एक प्रश्न सामने होता है कि आज के दौर के इतिहास को भविष्य किन शब्दों में जांचेगा। यह सम्भव ही नहीं कि इसे अज्ञात कालखंड मानकर अंधयुग घोषित कर दे। यानी जो कुछ कहा-सुना जायेगा,उसमें आज की घटनाओं का ब्यौरा दर्ज होगा ही। कहा जायेगा कि स्वतंत्र भारत ने वह दौर भी देखा है,जब लोकतांत्रिक तानाशाही यानी इमरजेंसी के बाद देश का राजनीतिक फलक लगभग दीवालियेपन की तरफ बढ़ गया था। संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्था को उदारीकरण के खेल के लिए खुला छोड़ दिया गया था। उसके बाद देश में राजनीति के नाम पर जो कुछ भी हुआ,वह केवल वादों का विज्ञापन भर था। बिगड़ते हालात का अंदाजा इसी बात से लगा जा सकता है कि ‘नेता’ जैसा सम्बोधन गाली की तरह हो गया था। पेशेवर राजनीतिज्ञों की जगह पूंजीपतियों और अपराधिक मामलों में वांछित लोगों ने ले ली थी। देश की शीर्षस्थ राजनीति पर आंकड़ों के उन बाजीगरों और नौकरशाहों का वर्चस्व हो गया था,जो जनता की भूख और कल्याण जैसी बातें आंकड़ों की शक्ल में ही समझ सकते थे। यही कारण था कि खाद्यान्न की कमी न होने के बावजूद दाम आसमान छू रहे थे। मंहगाई ने लोगों के निवाले को छोटा कर दिया था,उस पर सरकारी स्तर के वादों का तुर्रा था कि मंहगाई रोकने के उपाय किये जाएंगे। किसान कर्ज के बोझ तले आत्महत्या करने को मजबूर थे। अगर योजनाओं की बात करें तो जनकल्याण के नाम पर सैकड़ों योजनाएं चल रही थीं,लेकिन जमीनी हकीकत भ्रष्टाचार की दलदल में समा चुकी थी। आजादी के साठ साल बाद शुरू किये गये सर्व शिक्षा अभियान के तहत प्राथमिक स्कूलों में मिड डे मील योजना चालू की गई थी। जिसमें प्रति बच्चे दो रुपये सात पैसे की दर से धन मुहैय्या कराया जा रहा था। जो मंहगाई के चलते भूख और गरीबी का उपहास भर था। क्योंकि सन 2009 में देश की राजधानी सहित कई बड़े शहरों में दालों की कीमत 100 रूपये प्रति किलो तक पहुंच गई थी। ये मंहगाई कोई एक दो दिन की बात नहीं थी,दाल कई महीनों तक अपने दोगुने मूल्य पर बिक रही थी। दिल्ली की सरकारी बस सेवा ने घाटे से उबरने के नाम पर राजधानी में बसों के किराये भी बढ़ा दिये थे। किराया बढ़ोत्तरी ने लोगों की जेब खाली करना शुरू कर दिया था। यह सब उससमय हो रहा था,जब मंदी के सहारे पूंजीवर्ग अपने लाभ को अधिकतम करने की मंशा से छंटनी कर रहा था।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में राजनीति की अलग ही बयार बह रही थी। एक दिन की अच्छी बरसात के बाद सड़कों पर छह-छह घंटे का जाम लग गया था। जिस पर सूबे की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बयान दिया था कि जाम तो होगा ही,इसके लिए मैं क्या कर सकती हूँ। वर्ष 2009 के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से दिया गया प्रधानमंत्री का भाषण कई मायनों में ऐतिहासिक था। उस समय देश के राजनेता सिर्फ एतिहासिक भाषण देने का ही इतिहास रच रहे थे।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री थे,जिनके भाषण को किसी कम्पनीनुमा राजनीतिक पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में अपने निवेशकों को दिया गया सम्बोधन कहा गया। हालांकि उस दौर में सरकारी नुमाईंदों ने सुनने से ध्यान हटाकर सिर्फ कहने पर केंद्रित कर दिया था। यही कारण था कि देश की बहुसंख्यक आबादी असमंजस की जिंदगी जीने को मजबूर थी। देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री मायावती थी,जिनकी राजनीति बुत की राजनीति में तब्दील हो चुकी थी। हैरान करने वाली जानकारी है कि मायावती महोदया ने खुद अपनी मूर्तियां बनवाकर चौराहों व अन्य जगहों पर रखवाई थीं। वैसे यह ऐतिहासिक काम था। क्योंकि जीते जी मकबरा बनवाने की परम्परा तो भारत के इतिहास में मिलती है।
देश के 2009 हुए में आम चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी और उसके घटक दल को बहुमत मिला था। मंत्रिमंडल में दो दर्जन से अधिक ऐसे मंत्रियों को शपथ दिलाई गई थी,जिनको राजनीति का व्यवसाय विरासत में मिला था। कई टिप्पणीकारों ने तत्कालीन मंत्रिपरिषद को ‘कुनबा कैबिनेट’ का नाम दिया था। यह चुनाव भारतीय लोकतंत्र के काफी अहम साबित हुआ। क्योंकि इस चुनाव में वामपंथी अपनी जमीन गवां बैठे थे और संसद के भीतर विपक्ष के नाम पर मौजूद भारतीय जनता पार्टी आन्तरिक कलह का शिकार हो गई थी। जिसके चलते पूरी संसदीय व्यवस्था में विपक्षहीनता का मातम था। सरकार जो चाह रही थी,कर रही थी। सरकार की आलोचना करने या उसके खिलाफ जनान्दोलन करने की हालत में कोई भी शक्ति साबूत नहीं थी। आन्दोलन के नाम पर गैर सरकारी संगठनों ही सक्रिय दिखाई दे रहे थे,जो वास्तव में सरकार के ही पैसे से जी रहे थे। निजी पूंजी,सरकारी कामकाज को सीधे तौर पर प्रभावित कर रही थी। इन्हीं दिनों एक निराशाजनक घटना हुई थी। तत्कालीन पूंजीपति अम्बानी बंधुओं में विवाद था। इस विवाद में पेट्रोलियम मंत्रालय पर आरोप लगा था। हालांकि यह मामला चीन के आक्रामक होते रुख,प्रधानमंत्री को दिखाई देते आतंकी हमले के खतरे और त्यौहारों के जश्न के बीच दब गया। कुल मिलाकर राजनीतिक मंच पर जो कुछ हो रहा था,जनता के बीच में निराशाजनक माहौल गहरा रहा था। विकल्पहीनता के चलते अपराध की दर बढ़ रही थी। नकली खाद्यपदार्थों सहित नकली दवाइयों और नकली खून तक का धंधा फैल रहा था। नवोदित बीमारी स्वाइन फ्लू को लेकर सरकारी पर अफरा-तफरी का माहौल था,जबकि उसी दौरान तपेदिक,हैजा,जापानी इंसेफलाइटिस जैसी बीमारियों से पूर्वी उत्तर प्रदेश में सैकड़ों की मौतें हो रही थी।
मीडिया भी राजनीति की तरह ही पथ से विचलित हो चुकी थी। रौशन दिल-बेदाग नजर की जिम्मेदारी कहीं पीछे छूट चुकी थी। उसकी हालत को कुछ यूं समझे सकते हैं। पूंजी,पत्रकारिता के सुंदर,कमसिन,जन-विश्वास से हृष्ट-पुष्ट और सुढौल शरीर देखकर वहसी नजर फैलाई हुए थी। अपनी हवस का शिकार बनाने की तैयारी कर जब पूंजी ने पत्रकारिता का हाथ पकड़ा तो पत्रकारिता बिना किसी प्रतिरोध के खुद ही निर्वस्त्र होकर उसकी गोद में जा बैठी। इसके अभिभावक जिंदगी की जद्दोजहद में पत्रकारिता के जरायम पेशा होने के मलाल से कुंठित हो गये और तर्क-कुतर्क का भेद मिटाकर मुक्त खोजने लगे। रजामंदी से हुए शील-भंग को जीवनरक्षक उपाय बताया जा रहा था। तर्क दिया जा रहा था कि मंदी जैसे मुश्किल दौर में जिंदगी को बचाये रखने की शर्त पर मालिक के साथ चंद मिनट का किया गया हास-परिहास भर है। हालांकि पत्रकारीय मूल्यों की अर्थी पर मालिकों के जेब भर रही थी। सालों से रुके हुए प्रोजेक्ट पर सरकारों से समझौते होने का रास्ता साफ हो रहा था। जिस सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों के असर से खबर की शक्ल में विज्ञापन चलाए जाने लगे थे। यह सब वही पार्टी कर रही थी,जो पार्टी आजादी के बाद बहुसंख्यक साल सत्ता पर काबिज रही थी। उच्चतर व्यवहारों को आदर्श कहकर खारिज किया जा रहा था। निजीहित के लिए सर्वहित का गला दबाया जा रहा था। दुनियादारी की तमाम चीजों को पूंजी अपने विलास का सामान बना चुकी थी। इसमें लोगों की जिंदगी भी शामिल थी। ‘राज्य’ नाम का ‘समझौता’ बाजार के साथ गलबहियां डाले समंदर की सुनामी को लहर मान कर तफरी कर रहा था।
यह बीते हुए द्वापर युग का चीरहरण नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत का चीरहरण था। यहां दुस्शासन का काम पंचाली के पति कर रहे थे। पतियों में भारतीय लोकतंत्र के सभी स्तम्भ में सभी शामिल थे। जो पूंजी की द्यूतक्रीडा में अपनी अस्मिता के साथ बुद्धी तक हार चुके थे। और भूल चुके थे कि हमें इतिहास में दर्ज किया जा रहा है और जिसकी व्याख्या भविष्य में की जायेगी,तो हमें कहां खड़ा किया जाएगा ?
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
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1 टिप्पणी:
shabdon se bahut sunader chitarn kar diya aapne.....wastwikta bhi yahi hai
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